प्रो. महेश चंद गुप्ता
देश की राजनीति में चुनावी वादों के तहत फ्री योजनाओं का चलन गहन बहस का विषय बना हुआ है। दिल्ली विधानसभा चुनाव की सरगर्मियों के बीच यह मुद्दा फिर से राष्ट्रीय विमर्श का हिस्सा बन चुका है। कल्याणकारी राज्य के सिद्धांत पर आधारित भारत में जन कल्याणकारी योजनाएं स्वाभाविक हैं लेकिन इन योजनाओं का स्वरूप जब मुफ्त रेवडिय़ां बांटने जैसा हो जाए तो यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि क्या यह चलन देश के लोगों को आत्म निर्भरता की ओर ले जा रहा है या पराश्रितता की ओर धकेल रहा है?
दिल्ली चुनाव मेंं महिलाओंं को नकद पैसा देने की घोषणाओं की होड़ है। विभिन्न राज्यों में चुनावों के समय ऐसा ही किया जा रहा है। मतदाताओं को बिजली, पानी, बस यात्रा सुविधा फ्री में दी जा रही है। इसके बाद अब पैसा भी देंगे, यह रवैया समझ से बाहर है। विभिन्न देश अपने नागरिकों की शिक्षा, चिकित्सा आदि पर खर्च करते हैं पर नकद देने का उदाहरण शायद भारत में पहला ही है। माना, एक कल्याणकारी राज्य होने के नाते लोगों का जीवन सुखमय एवं सुविधा पूर्ण बनाना सरकारों का दायित्व है और ऐसी योजनाओं को जनता में लोकप्रियता मिल रही है लेकिन बड़ा सवाल यह है कि क्या हम एक कल्याणकारी राज्य की परिभाषा से भटक रहे हैं और लोगों को हर चीज फ्री में देने की लत लगाकर आखिर हम देश को कहां ले जा कर खड़ा करना चाहते हैं?
देश के नागरिकों को मूलभूत सुविधाएं प्रदान करना सरकारों का दायित्व है। प्राचीन काल से ही शासक जनता की सुख-सुविधाओं का ध्यान रखते आए हैं। प्राचीन भारत में मौर्य राजवंश के सम्राट अशोक और विजयनगर के राजा कृष्णदेव राय ने जनता की सुख सुविधाओं का ध्यान रखा और जन-जन की भलाई के काम किए। लेकिन तब राज्य का ध्यान केवल जरूरतमंदों की बुनियादी आवश्यकताओं को पूरा करने और समाज में समानता लाने पर केंद्रित था। स्वतंत्रता के बाद समाजवादी और मिक्स इकोनॉमी मॉडल के तहत गरीबों के कल्याण के लिए योजनाएं बनाई गईं पर आज ये योजनाएं मूलभूत जरूरतें पूरी करने से ज्यादा वोट बैंक की राजनीति का हिस्सा बन चुकी हैं। देश का धन समाज के कल्याण और राष्ट्र की सुरक्षा पर खर्च हो, यह ठीक है मगर जिस तरह चुनाव जीतने के लिए इसे फ्री घोषणाओं पर लुटाया जा रहा है, उससे तो यह एक विकृति के रूप मेंं सामने आ रहा है।
भारत में रेवड़ी बांटने का चलन शुरू करने का श्रेय दक्षिण भारत की पार्टियों को है। वहां 1967 में मद्रास के चुनावों में मुफ्त उपहारों का चलन पहली बार शुरू हुआ। तब राज्य मेंं गंभीर खाद्य संकट था। ऐसे में सीएन अन्नादुरई के नेतृत्व में डीएमके ने एक रुपये प्रति किलो चावल उपलब्ध कराने का वादा किया। नतीजतन, मतदाताओं ने वहां 234 विधानसभा सीटों में से 138 सीटें डीएमके की झोली में डाल दीं। इसके बाद तो तमिलनाडु में ऐसी प्रतिस्पर्धा शुरू हुई, जिसमें हर पार्टी मुफ्त चावल, कलर टीवी, ग्राइंडर, पंखे, लैपटॉप देने के वादे करती नजर आई। बिहार में जेडीयू और ओडिशा में बीजेडी ने छात्राओं को मुफ्त साइकिल देने का वादा करके महिला मतदाताओं को लुभाया। इस प्रकार राज्यों में रेवड़ी कल्चर चल रही थी लेकिन इसे आम आदमी देश की राजनीति में एक तरह से मुख्यधारा में ले आई। आप ने 2013 मेंं दिल्ली विधानसभा चुनावों में मुफ्त बिजली और पानी देने का वादा किया। बुनियादी सुविधाएं मुफ्त में देने का वादा किए जाने का यह पहला मौका था। अब वोटों की राजनीति मेंं कौनसी पार्टी इससे कैसे दूर रहे। पीएम नरेन्द्र मोदी ने मुफ्त की रेवड़ी की आलोचना की है। मोदी का कहना है कि इस तरह के वादे करके वोटरों को लुभाना राष्ट्र निर्माण नहीं, बल्कि राष्ट्र को पीछे धकेलने की कोशिश है। वहीं दूसरी ओर भाजपा 18 साल से ज्यादा उम्र की महिलाओं के लिए पेंशन और ऐसे लाभ देने का वादा करने का लोभ संवरण नहीं कर पाई है। भाजपा ने महिलाओं को हर महीने 2500 रुपये देने का वादा किया है। भाजपा ने गरीब परिवारों को गैस सिलेंडर पर पांच सौ रुपये सब्सिडी व होली-दिवाली पर एक मुफ्त सिलेंडर देने का भी एलान किया है। आप आदमी पार्टी ने महिलाओं को हर महीने 2100 एवं कांग्रेस ने हर महीने 2500 देने का वादा किया है। एक ओर जनसंख्या नियंत्रण की बात कही जाती है तो दूसरी ओर भाजपा ने गर्भवती महिलाओं को 21 हजार रुपये की एकमुश्त वित्तीय सहायता और छह पोषण किट, पहले बच्चे के लिए 5,000 रुपये और दूसरे बच्चे के लिए 6,000 रुपये देने का वादा किया है। क्या इससे गरीबों में लोग ज्यादा बच्चे पैदा करने के लिए प्रोत्साहित नहीं होंगे?
सरकार वर्तमान में 140 करोड़ की जनसंख्या में से 80 करोड़ लोगों को फ्री अनाज बांट रही है। राज्यों में बिजली, पानी, बस यात्रा, लैपटॉप आदि हर चीज मुफ्त में देने पर जोर है। मुफ्त योजनाओं के कारण जनता में हर चीज मुफ्त में पाने की आदत बढ़ रही है। इससे लोग आत्मनिर्भर और कर्मठ बनने के बजाय, पराश्रित और सरकार पर निर्भर हो रहे हैं। मुफ्त योजनाओं के वादे अप्रत्यक्ष रूप से वोट खरीदने का जरिया बन चुके हैं।
फ्री योजनाओं पर विभिन्न राज्य भारी धन खर्च कर रहे हैं। इससे लगातार बढ़ता राजस्व घाटा और विकराल रूप लेती देनदारियां राज्यों की अर्थव्यवस्था पर भारी पड़ रही हंै। विभिन्न राज्य भारी भरकम कर्ज में डूबे हुए हैं। हिमाचल प्रदेश की सरकार मार्च 2024 तक करीब 87 हजार करोड़ रुपए के कर्ज के तले दबी है और आशंका है कि यह कर्ज मार्च 2025 तक 95 हजार करोड़ रुपए तक पहुंच जाएगा। 2022 में हिमाचल में विधानसभा चुनाव के दौरान कांग्रेस की 300 यूनिट फ्री बिजली, महिलाओं को हर महीने1500 रुपये देने जैसी घोषणाओं का यह नकारात्मक प्रभाव है। प्रदेश में प्रति व्यक्ति कर्ज 1 लाख 17 हजार रुपए पहुंच चुना है। कर्ज और खर्च के असंतुलन के कारण सरकारी कर्मचारियों के वेतन और पेंशन चुकाना मुश्किल पड़ रहा है। कर्नाटक मेंं ठेकेदारों का 25 हजार करोड़ रुपए का बकाया चुकाने में असमर्थता के कारण कई विकास परियोजनाएं ठप्प होने के कगार पर पहुंच चुकी हंै। पंजाब में फ्री बिजली ने अर्थ व्यवस्था की कमर तोड़ दी है। वहां 80 प्रतिशत घरेलू उपभोक्ता फ्री बिजली इस्तेमाल कर रहे हैं। पंजाब का सार्वजनिक ऋण जीएसडीपी का 44.12 फीसदी हो चुका है। राजस्थान में भी विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने फ्री योजनाओं का अंबार लगा दिया।
फ्री योजनाओं पर हाल मेंं एसबीआई की एक रिपोर्ट चिंतित कर रही है। एसबीआई की रिपोर्ट में चेतावनी दी गई है कि महिलाओंं के खाते में डायरेक्ट पैसा भेजने वाली योजनाओं की सुनामी राज्यों का दीवाला निकाल सकती हैं। रिपोर्ट के अनुसार महिलाओं के खाते मेंं सीधे नकद धनराशि भेजने की योजनाओं का चलन हाल के वर्षों में और खासकर चुनाव के दौरान काफी बढ़ा है। इस तरह की पहल राज्य की वित्तीय स्थिति को नुकसान पहुंचा सकती है। रिपोर्ट मेंं कुछ राज्यों की ओर से की गई ऐसी योजनाओं को विशुद्ध चुनावी राजनीति से प्रेरित बताया गया है। रिपोर्ट मेंं चिंता जताई गई है कि अगर यही स्थिति रही तो अन्य राज्य भी ऐसी घटनाओं के लिए बाध्यकारी होने लगेंगे और यह चुनावी वादों का प्रमुख हिस्सा बन जाएंगे। केन्द्र सरकार पर भी ऐसी योजनाओं के लिए दबाव बनेगा जिससे बजट का एक बड़ा हिस्सा प्रभावित हो सकता है। इससे विकास योजनाओं की गति अपेक्षाकृत धीमी पड़ सकती है। आठ राज्यों में इन योजनाओं की लागत 1.5 लाख करोड़ के पार चली गई है। यह राशि राज्यों की कुल राजस्व प्राप्तियों का तीन से 11 प्रतिशत के बीच है। ओडिसा जैसे राज्य गैर कर राजस्व और ऋणों की कमी के कारण इन लागतों को वहन करने की बेहतर स्थिति में हैं लेकिन अन्य राज्यों को आर्थिक चुनौतियों का सामना करना पड़ सकता है। रिपोर्ट में कर्नाटक का उदाहरण देते हुए बताया गया है कि वहां की गृह लक्ष्मी योजना, जिसमें परिवार की महिला मुखिया को 2,000 रुपये प्रति माह दी जाती है, के लिए 28,608 करोड़ रुपये का आवंटन किया गया है। यह राशि राज्य की कुल राजस्व प्राप्तियों का 11 प्रतिशत है।
ऐसी योजनाओं से राज्यों पर भारी भरकम बोझ पड़ रहा है। इसका उदाहरण, पश्चिम बंगाल की लक्ष्मीर भंडार योजना है। इसके योजना के तहत सरका आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग की महिलाओं को 1,000 रुपये का एकमुश्त अनुदान देती है और इस योजना की लागत 14,400 करोड़ रुपये (राज्य की कुल राजस्व प्राप्तियों का 6 प्रतिशत) है। इसी प्रकार दिल्ली की मुख्यमंत्री महिला सम्मान योजना में वयस्क महिलाओं (कुछ श्रेणियों को छोडक़र) को 1,000 रुपये प्रति माह देने का वादा किया गया है। इस योजना पर करीब 2,000 करोड़ रुपये खर्च होंगे। यह राशि राजस्व प्राप्तियों का 3 प्रतिशत होगी।
फ्री योजनाएं जनता को तत्काल राहत देती हैं, लेकिन इनका दीर्घकालिक प्रभाव घातक हो सकता है। यह देश के आर्थिक भविष्य और लोकतांत्रिक प्रक्रिया को कमजोर कर सकती हैं। सरकारों को चाहिए कि वे जनकल्याण और आर्थिक स्थिरता के बीच संतुलन बनाकर नीतियां बनाएं। साथ ही, यह जिम्मेदारी सुप्रीम कोर्ट और चुनाव आयोग की भी बनती है कि वे इस प्रवृत्ति पर रोक लगाने के लिए कदम उठाएं। अगर समय रहते इस पर नियंत्रण नहीं किया गया, तो भविष्य में देश की आर्थिक और सामाजिक संरचना को गहरा नुकसान हो सकता है। फ्री चुनावी योजनाओं का बढ़ता चलन हमारे लोकतंत्र और अर्थव्यवस्था के लिए खतरा बनता जा रहा है। इस स्थिति को बदलना ही होगा। सुप्रीम कोर्ट इस पर चिंता जताते हुए संज्ञान ले चुका है लेकिन उसका सकारात्मक परिणाम सामने नहीं आ सका है। कोर्ट ने इस मामले में चुनाव आयोग को कदम उठाने का निर्देश दिया था लेकिन आयोग के पास इस संबंध में जरूरी शक्तियां ही नहीं हैं।
एसबीआई का यह सुझाव उपयोगी है कि राज्य ऐसे कल्याणकारी कार्यक्रमों को लागू करने से पहले अपने राजकोषीय स्वास्थ्य और उधार लेने के पैटर्न पर विचार करें। पर इसके साथ-साथ और भी कदम उठाने होंगे। हर चीज फ्री में बांटने के बजाय राज्य सरकारों को अपने राजस्व और व्यय का संतुलन बनाकर कल्याणकारी योजनाएं लागू करनी चाहिए। केंद्र सरकार को ऐसा कानून बनाना चाहिए जो फ्री योजनाओं को सिर्फ जरूरतमंद और वंचित वर्ग तक सीमित करे। इसके साथ ही जनता को यह समझाना जरूरी है कि मुफ्त योजनाओं का दीर्घकालिक परिणाम देश के लिए घातक हो सकता है। सरकार ऐसी योजनाओं को प्रोत्साहन दे जिनसे रोजगार और उद्यमिता को बढ़ावा देकर लोगों को आत्मनिर्भर बनाने में मदद मिले। मुफ्तखोरी की संस्कृति देश के लिए घातक है। इससे तुष्टिकरण और अकर्मण्यता को बढ़ावा मिलेगा। रेवड़ी बांटने वाली पार्टियों में राष्ट्र और लोगों के उत्थान की कोई भावना नहीं है। नेताओं के परिवार तक सिमट चुकी क्षेत्रीय पार्टियां रेवड़ी कल्चर के बूते पर सत्ता सुख भोगते रहना चाहती हैं। ऐसा लगता है राजनीतिक दलों ने जनता के वोट खरीदने की बोली लगा रखी है।
(लेखक और प्रख्यात शिक्षा विद्, चिंतक और वक्ता हैं। वह 44 सालों तक दिल्ली यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर रहे हैं।)