कार्बन घटाने से हरित अर्थव्यवस्था तक : कॉप -30 की चुनौतियां और अवसर

From carbon reduction to a green economy: challenges and opportunities for COP30

सुनील कुमार महला

30वां संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन सम्मेलन (कॉप-30), यानी कॉनफ्रेंस ऑफ द पार्टीज़, 10 नवंबर 2025 से ब्राज़ील के बेलेम में शुरू हो गया है। उपलब्ध जानकारी के अनुसार, विश्व के लगभग 200 देशों के 50,000 से अधिक प्रतिनिधि इस सम्मेलन में शामिल हुए बताए जा रहे हैं, तथा यह सम्मेलन 21 नवंबर 2025 तक चलेगा।

पाठकों को जानकारी देता चलूं कि यह सम्मेलन ऐसे समय में हो रहा है, जब वैश्विक तापमान (ग्लोबल वार्मिंग) ने नए रिकॉर्ड दर्ज किए हैं और चरम मौसम सहित जलवायु परिवर्तन के अन्य प्रभाव दुनियाभर में लोगों को लगातार प्रभावित कर रहे हैं।

यदि हम कॉप की बात करें तो ‘कॉप’ का अर्थ है— पार्टियों का सम्मेलन (Conference of the Parties)। सरल शब्दों में कहें तो कॉप एक ऐसा अंतरराष्ट्रीय जलवायु सम्मेलन है, जहाँ दुनिया भर के देश मिलकर यह तय करते हैं कि पृथ्वी को गर्म होने से कैसे बचाया जाए। दरअसल, यह संयुक्त राष्ट्र (यूनाइटेड नेशंस) द्वारा आयोजित एक अंतरराष्ट्रीय जलवायु सम्मेलन है, जो संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन रूपरेखा अभिसमय (UNFCCC) के तहत हर साल आयोजित किया जाता है।

वास्तव में, इसका उद्देश्य जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए विश्व के सभी देशों को एक मंच पर लाना है। इसमें हर देश के प्रतिनिधि, वैज्ञानिक, पर्यावरणविद और नेता मिलकर यह तय करते हैं कि कार्बन उत्सर्जन कैसे घटाया जाए, ग्लोबल वार्मिंग को कैसे कम किया जाए, और पेरिस समझौते जैसे वादों को किस तरह पूरा किया जाए।

यह भी उल्लेखनीय है कि पहला कॉप सम्मेलन, यानी पार्टियों का सम्मेलन, वर्ष 1995 में बर्लिन (जर्मनी) में आयोजित हुआ था। इसमें विकसित देशों से ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में कमी करने की कानूनी रूप से बाध्यकारी प्रतिबद्धताओं की दिशा में काम करने का आह्वान किया गया था, तथा ‘बर्लिन मैंडेट’ को अपनाया गया था, जिसने भविष्य में उत्सर्जन घटाने के ठोस समझौतों का रास्ता खोला। गौरतलब है कि इसी सम्मेलन के बाद आगे चलकर क्योटो प्रोटोकॉल (1997) जैसे महत्वपूर्ण जलवायु समझौते बने।

कॉप का वार्षिक शिखर सम्मेलन उन देशों को एक साथ लाता है, जिन्होंने 1992 की संयुक्त राष्ट्र जलवायु संधि — जो 3 जून 1992 को रियो डी जेनेरियो (ब्राज़ील) में आयोजित ‘पृथ्वी सम्मेलन’ के दौरान अपनाई गई थी और 21 मार्च 1994 से लागू हुई — पर हस्ताक्षर किए थे। इस संधि का मुख्य उद्देश्य सभी देशों को मिलकर जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए प्रतिबद्ध करना है।

दरअसल, इस संधि का उद्देश्य है — वायुमंडल में ग्रीनहाउस गैसों की सांद्रता को ऐसे स्तर पर स्थिर करना, जिससे जलवायु प्रणाली पर मानवीय प्रभाव खतरनाक न हो। इसमें विकसित देशों पर यह जिम्मेदारी डाली गई कि वे पहले ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन घटाने की दिशा में कदम उठाएँ, क्योंकि उन्होंने ही सबसे अधिक प्रदूषण फैलाया है।

दूसरे शब्दों में कहें तो विश्व के विकसित और अमीर देश आज ग्लोबल वार्मिंग में कहीं अधिक योगदान दे रहे हैं, इसलिए उनकी जिम्मेदारी भी अधिक बनती है कि वे इस समस्या के समाधान में अग्रणी भूमिका निभाएँ। किंतु विडंबना यह है कि इस सम्मेलन में हर बार वित्त को लेकर कोई ठोस हल नहीं निकल पाता।

उल्लेखनीय है कि कॉप शिखर सम्मेलनों में वित्त (Climate Finance) पर चर्चा हमेशा एक प्रमुख विषय रही है। दरअसल, जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए विकसित देशों और विकासशील देशों के बीच आर्थिक सहयोग अत्यंत आवश्यक है। इसलिए हर कॉप बैठक में यह प्रश्न उठता है कि विकसित देश गरीब या विकासशील देशों को कितनी आर्थिक सहायता देंगे ताकि वे हरित ऊर्जा (नवीकरणीय ऊर्जा) को बढ़ावा दे सकें, कार्बन उत्सर्जन घटाने के उपाय कर सकें और जलवायु आपदाओं से निपटने की तैयारी कर सकें।

2009 के कॉप-15 (कोपेनहेगन सम्मेलन) में यह तय किया गया था कि विकसित देश हर साल 100 अरब डॉलर की जलवायु सहायता देंगे। बाद के लगभग हर कॉप सम्मेलन में यह सवाल दोहराया गया कि यह वादा कितना पूरा हुआ और भविष्य में वित्तीय सहायता को कैसे बढ़ाया जाए, लेकिन इस पर अब तक कोई ठोस प्रगति नहीं हो सकी है।

हाल फिलहाल, इस सम्मेलन में नए वादे करने की बजाय इस बात पर ध्यान दिया जाना चाहिए कि पिछले सम्मेलनों में किए गए वादों पर कितना अमल हुआ।

कॉप-28 और कॉप-29 दोनों सम्मेलनों ने दुनिया को हरित ऊर्जा की ओर मोड़ने, कार्बन उत्सर्जन कम करने, ऊर्जा दक्षता बढ़ाने और जलवायु न्याय सुनिश्चित करने की दिशा में एकजुट होकर आगे बढ़ने का आह्वान किया था। इन वादों का लक्ष्य न केवल जलवायु संकट को रोकना था, बल्कि आने वाली पीढ़ियों के लिए एक सुरक्षित, स्वच्छ और टिकाऊ पृथ्वी का निर्माण करना भी था।

कॉप-28 में सभी देशों को नवीकरणीय ऊर्जा को तीन गुना करने, ऊर्जा दक्षता की दर को दोगुना करने, तथा अविनाशी जीवाश्म ईंधन (कोयला, तेल, गैस) पर निर्भरता कम करने की दिशा में अग्रसर होने पर ज़ोर दिया गया था। वहीं, कॉप-29 सम्मेलन में देशों ने एक महत्वपूर्ण समझौता किया जिसे ‘ग्लोबल कूलिंग प्लेज’ कहा गया। इसका उद्देश्य था — एयर कंडीशनर, फ्रिज और अन्य शीतल उपकरणों से होने वाले प्रदूषण और गैसों के उत्सर्जन को कम करना।

दरअसल, इन उपकरणों में इस्तेमाल होने वाले शीतलक (कूलेंट्स) वातावरण में जाने पर जलवायु को गंभीर रूप से नुकसान पहुँचाते हैं क्योंकि ये गैसें ग्लोबल वार्मिंग को बढ़ाती हैं। इसलिए कॉप-29 में यह तय किया गया कि वर्ष 2050 तक इन शीतलक गैसों से होने वाला उत्सर्जन लगभग 68% तक घटाया जाएगा।

मतलब यह कि धरती पर ग्लोबल वार्मिंग कम हो और साथ ही मानव जीवन पर उसका दुष्प्रभाव भी घटे — ऐसे संतुलित उपायों पर चर्चा की गई थी।

कहना गलत नहीं होगा कि आज संपूर्ण विश्व में जीवाश्म ईंधन एक बड़ी समस्या के रूप में उभरकर सामने आया है, हालांकि समय के साथ इसका प्रयोग कुछ हद तक कम हुआ है। लेकिन धरती पर जंगलों की संख्या भी घटती जा रही है।

इतना ही नहीं, हम तापमान वृद्धि को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक रोकने के अपने लक्ष्य को अब तक पूरा नहीं कर सके हैं। जैसा कि इस सम्मेलन के उद्घाटन सत्र में संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंटोनियो गुटेरेस ने कहा — “वैश्विक तापमान को 1.5 डिग्री सेल्सियस से नीचे बनाए रखने में हम सफल नहीं रहे हैं, जो हमारी नैतिक विफलता और लापरवाही है। अब तमाम नेताओं को सहमति बनानी ही होगी, खास तौर पर तब, जब उत्सर्जन पिछले वर्ष एक और रिकॉर्ड ऊँचाई पर पहुँच गया हो।”

वास्तव में, ऐसे सम्मेलनों में जलवायु वित्त हमेशा बड़ा मुद्दा रहा है और इस बार भी यह निश्चित रूप से प्रमुख विषय बनेगा।

गौरतलब है कि कॉप-29 में 2035 तक 300 अरब अमेरिकी डॉलर का लक्ष्य तय किया गया था, और कॉप-30 में इसे अंतिम रूप दिया जाना है।

हाल फिलहाल, यदि अमेरिका जलवायु वित्त के मुद्दे पर पीछे हटता है, तो इससे इस सम्मेलन के लक्ष्यों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है। मीडिया रिपोर्टों के अनुसार, ट्रंप सरकार ने जलवायु परिवर्तन पर कार्यों में कमी की थी। उसने पेरिस समझौते से बाहर निकलने का फैसला किया, जलवायु से जुड़ी अनुसंधान योजनाओं के लिए मिलने वाला धन घटा दिया, और कई नवीकरणीय ऊर्जा (जैसे सौर और पवन ऊर्जा) की परियोजनाएं रोक दीं।

इसे दुखद ही कहा जाएगा कि राष्ट्रपति ट्रंप जीवाश्म ईंधन को बढ़ावा दे रहे हैं और स्वच्छ ऊर्जा के प्रति अमेरिकी प्रतिबद्धता से पीछे हट रहे हैं। वास्तव में, इससे पर्यावरण संरक्षण के वैश्विक प्रयासों को क्षति पहुँची है।

कहना गलत नहीं होगा कि कॉप-30 जलवायु सम्मेलन को लेकर इस बार पूरी दुनिया की निगाहें अमेरिका पर टिकी हुई हैं। इसका कारण यह है कि अमेरिका दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में से एक होने के साथ-साथ दूसरा सबसे बड़ा ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जक देश भी है। जलवायु परिवर्तन से निपटने में उसकी नीतियाँ और प्रतिबद्धताएँ वैश्विक स्तर पर गहरा असर डालती हैं।

इधर, विश्व की जलवायु लगातार बिगड़ रही है। दुनियाभर में जलवायु परिवर्तन से हालात गंभीर हैं और वैश्विक तापमान ने वर्ष 2023 और 2024 में नए रिकॉर्ड दर्ज किए हैं।

तापमान हर दशक 0.27 डिग्री सेल्सियस की दर से बढ़ रहा है, और वर्ष 2030 तक इसके गंभीर परिणाम सामने आने की संभावनाएँ जताई जा रही हैं।

विश्व में अनेक स्थानों पर लगातार आपदाएँ आ रही हैं — प्रदूषण में कटौती नहीं हो रही, ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं, समुद्र का स्तर लगातार बढ़ रहा है। जलवायु संकट के कारण बाढ़, तूफान, चक्रवात और भीषण गर्मी जैसी चरम मौसमी घटनाएँ आम हो गई हैं।

हरित ऊर्जा पर भी उतना ध्यान नहीं दिया जा रहा, जितना आवश्यक है। सच यह है कि धरती की बदलती आबोहवा आज मानव अस्तित्व को चुनौती देने लगी है — फिर चाहे वह प्रदूषण के कारण हो, ग्लोबल वार्मिंग से, या वनों के विनाश और प्रकृति के संसाधनों के अंधाधुंध दोहन से।

बहरहाल, कहना गलत नहीं होगा कि यह सम्मेलन विशेष रूप से विकासशील देशों के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण साबित होगा।

उपलब्ध जानकारी के अनुसार, इस सम्मेलन में वार्ता पेरिस समझौते के क्रियान्वयन, जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए आवश्यक वित्तीय संसाधनों की उपलब्धता तथा अनुकूलन योजनाओं पर विशेष रूप से केंद्रित होगी।

सम्मेलन में भारत भी अपनी स्वच्छ ऊर्जा प्रगति पर प्रकाश डालेगा। गौरतलब है कि भारत ने निर्धारित समय से पहले ही 50 प्रतिशत गैर-जीवाश्म ऊर्जा का लक्ष्य हासिल कर लिया है, और आज हमारे देश में हरित ऊर्जा में अभूतपूर्व तेजी देखने को मिली है।

आँकड़े बताते हैं कि अब भारत की कुल ऊर्जा क्षमता 500 गीगावाट से अधिक है, जिसमें से 256 गीगावाट स्वच्छ स्रोतों से मिल रही है। भारत ही नहीं, विश्व के अन्य बड़े देश जैसे चीन ने भी अक्षय ऊर्जा में अपने निवेश को बढ़ाया है, जो सराहनीय है।

लेकिन यह दुखद है कि विश्व की कुछ बड़ी अर्थव्यवस्थाएँ, जैसे अमेरिका, अपनी जलवायु नीतियों में निरंतर अस्थिरता ला रही हैं।

जैसे-जैसे विश्व की जनसंख्या बढ़ रही है, वैसे-वैसे तापमान वृद्धि के साथ ऊर्जा की माँग भी तेजी से बढ़ रही है।

उल्लेखनीय है कि कॉप-29 में विकासशील देशों को उत्सर्जन घटाने से होने वाले नुकसान की भरपाई के लिए आर्थिक सहायता पर चर्चा हुई थी, लेकिन विकसित देश केवल 300 अरब डॉलर सालाना देने पर सहमत हुए, जबकि माँग 1.3 ट्रिलियन डॉलर की थी।

इसलिए इस बार इस सम्मेलन के दौरान यह मुद्दा फिर प्रमुखता से चर्चा में रहेगा।

अंत में यही कहा जा सकता है कि अब सभी देशों को उत्सर्जन घटाने का एक स्पष्ट रोडमैप बनाना ही होगा — भले ही विकसित और विकासशील देशों के बीच मतभेद बने रहें।