संवाद से समाधान तक: लेह-लद्दाख में हिंसा का सबक

From dialogue to resolution: Lessons from the violence in Leh-Ladakh

ललित गर्ग

केंद्र शासित प्रदेश लद्दाख को राज्य का दर्जा देने व संविधान के अंतर्गत विशेष संरक्षण देने वाली छठी अनुसूची में शामिल करने के लिये चल रहे आंदोलन का हिंसक एवं विध्वंसक होना, विरोध प्रदर्शन, पुलिस के साथ झड़प और आगजनी की घटनाएं दुर्भाग्यपूर्ण होने के साथ-साथ चिन्ताजनक है। बड़ी संख्या में प्रदर्शनकारी एकत्र हुए और उन्होंने लेह में भारतीय जनता पार्टी के कार्यालय में आग लगा दी और उसके बाहर खड़े वाहनों को फूंक दिया। आमतौर पर बेहद शांत रहने वाले लद्दाख के लिए यह बहुत बड़ी घटना है। दरअसल, पर्यावरणविद् और सामाजिक कार्यकर्ता सोनम वांगचुक दो सप्ताह से अनशन पर थे, उनके साथ अन्य कार्यकर्ता भी अनशनरत थे, जिनकी तबीयत बिगड़ने से जन-आक्रोश एवं हिंसा भड़की। इस हिंसा ने अनेक सवाल खड़े कर दिए हैं। एक ओर यह घटना वहाँ की जनता के असंतोष और बेचैनी को उजागर करती है, वहीं दूसरी ओर यह संकेत देती है कि लंबे समय से किए जा रहे वादे और आश्वासन क्यों अधूरे रह गए और क्यों स्थानीय लोग स्वयं को असुरक्षित महसूस करने लगे हैं?

सरकार ने अगस्त 2019 में अनुच्छेद 370 और 35ए के प्रावधान हटाने के साथ ही जम्मू-कश्मीर से अलग कर लद्दाख को केंद्र शासित राज्य बनाया था। तब सरकार ने वादा किया था कि हालात सामान्य होते ही पूर्ण राज्य का दर्जा बहाल कर दिया जाएगा। लोगों ने सोचा था कि अब उनकी पहचान, संस्कृति और स्थानीय अधिकार और अधिक सुरक्षित होंगे। लेकिन इसके विपरीत उनकी आशंकाएँ बढ़ीं। उन्हें लगा कि संघ शासित प्रदेश के रूप में दिल्ली से संचालित प्रशासन स्थानीय जरूरतों और आकांक्षाओं को समझने और पूरा करने में असफल हो रहा है। इसी कारण 6 साल बाद लोगों का भरोसा और सब्र डगमगाने लगा। इसी के चलते सोनम वांगचुक को अहिंसक आन्दोलन का रास्ता अख्तियार करना पड़ा, जो कतिपय कारणों से हिंसक हो गया। हालांकि, हिंसा के बाद वांगचुक ने अपना अनशन त्याग कर आंदोलनकारियों से शांति की अपील की है। उन्होंने कहा है कि इस तरह की हिंसा से शांतिपूर्ण आंदोलन का मेरा संदेश आज विफल हो गया। अगर युवा गलत रास्ते पर जाएंगे, तो इससे हमारे वास्तविक उद्देश्य गुम हो जायेंगे। वाकई, लद्दाख के संयमी समाज को सतर्कता और संवेदनशीलता का परिचय देना चाहिए। वांगचुक का पूरा आंदोलन अहिंसक रहा है। सरकार से मतभेद होने पर भी उन्होंने बातचीत का रास्ता नहीं छोड़ा। उनके समर्थन में खड़े युवाओं को इसे समझना चाहिए। हिंसा से समस्या जटिल हो जाएगी। लद्दाख की जो भौगोलिक स्थिति है, उसे देखते हुए वहां के लोगों को कानून-व्यवस्था के प्रति विशेष रूप से सजग रहना चाहिए। लद्दाख का केंद्रशासित प्रदेश बनना एक नये सूरज का उदय होना है और इसका वहां के लोगों ने स्वागत भी किया था। इस क्षेत्र को कश्मीर घाटी के वर्चस्व से मुक्ति मिली थी, पर वहां के लोगों की महत्वाकांक्षा को राजनीति रंग देकर एवं संकीर्ण राजनीतिक स्वार्थों के अंधेरों में धकेल कर इसके वास्तविक उद्देश्यों को धुंधलाने की कुचेष्टा की गई है।

हिंसा व आगजनी के बाद केंद्र शासित प्रदेश में संचारबंदी लागू की गई है। मीडिया माध्यमों से कुछ आंदोलनकारियों के मारे जाने की बात भी कही जा रही है। प्रतिक्रिया स्वरूप लेह बंद का आयोजन हुआ, जिसमें बड़ी संख्या में युवाओं ने भाग लिया। यह प्रदर्शन कालांतर हिंसक प्रतिरोध में बदल गया। घटनाक्रम के बाद जम्मू-कश्मीर के विपक्षी दलों ने हिंसा के लिये केंद्र को निशाने पर लिया है। कहा गया कि आंदोलनकारी लेह की अस्मिता को संरक्षण देने और स्थानीय युवाओं को रोजगार देने की मांग कर रहे हैं। उल्लेखनीय है कि केंद्र व लद्दाख के प्रतिनिधियों के बीच आगामी 6 अक्टूबर, 2025 को एक वार्ता का दौर निर्धारित था, जिसमें लेह एपेक्स बॉडी (एलएबी) और कारगिल डेमोक्रेटिक अलायंस (केडीए) के सदस्य शामिल होने वाले हैं। जब बातचीत होने ही वाली है, तो ऐसे विरोध प्रदर्शन की क्या जरूरत थी? लेह के लोग अधूरे वायदों से खुद को असुरक्षित महसूस कर रहे हैं और उनमें यह डर है कि अगर शासन उनके हाथ में न रहा तो प्राकृतिक संसाधनों का अंधाधुंध दोहन होगा। इसी वजह से आंदोलनकारियों की हिंसक अभिव्यक्ति सामने आई है। वास्तव में, यह पूरा आंदोलन राजनीतिक प्रवृत्ति का है। इस प्रदर्शन को साफ तौर पर सरकार पर दबाव बनाने की कोशिश के रूप में देखा जा सकता है। कहा जा रहा है कि ताजा विरोध-प्रदर्शन केन्द्र से बातचीत को अनुकूल दिशा में ले जाने की रणनीति का हिस्सा है।

लद्दाख के लोग चाहते हैं कि उन्हें पूर्ण राज्य का अधिकार मिले ताकि वे अपने निर्णय स्वयं ले सकें। साथ ही उनकी यह भी माँग है कि उन्हें संविधान की छठी अनुसूची में शामिल किया जाए जिससे उनकी भूमि, संसाधन, परंपराएँ और रोजगार सुरक्षित रहें। रोजगार के अवसरों की कमी और सरकारी नौकरियों में स्थानीय युवाओं की उपेक्षा ने इस असंतोष को और गहरा किया है। लेह और कारगिल के बीच प्रतिनिधित्व को लेकर भी सवाल उठते रहे हैं। लगातार समितियाँ बनीं, बातचीत हुई, आश्वासन दिए गए, लेकिन जब ठोस कार्रवाई नहीं हुई तो लोगों के भीतर अविश्वास बढ़ा। निस्संदेह, लेह चीन की सीमा से लगा सुरक्षा की दृष्टि से संवेदनशील क्षेत्र है, जिसके मुद्दों को प्राथमिकता के आधार पर सुलझाया जाना जरूरी है। एक बड़ा मुद्दा क्षेत्र के युवाओं की बेरोजगारी रही है। युवाओं की दलील है कि क्षेत्र के युवाओं को पहले जम्मू-कश्मीर पब्लिक सर्विस सेलेक्शन कमीशन में राजपत्रित अधिकारी पदों के लिये आवेदन का मौका मिलता था, जो लद्दाख के केंद्रशासित प्रदेश बनने के बंद हो गया। स्थानीय युवा अब केंद्रीय कर्मचारी चयन आयोग की स्पर्द्धा में टिक पाने में दिक्कत महसूस करते हैं। वहीं दूसरी ओर स्थानीय नौकरियों में युवाओं के लिये कोई विशेष अभियान भी नहीं चला। जिससे बेरोजगारों में खासा रोष व्याप्त रहा है।

आंदोलनकारी इसके अलावा कारगिल व लेह को लोकसभा सीट बनाने और स्थानीय लोगों को सरकारी नौकरियों में वरीयता देने की भी मांग कर रहे हैं। उल्लेखनीय है कि संविधान के अनुच्छेद 244 की छठी अनुसूची में ऐसी स्वायत्त व अधिकार संपन्न प्रशासनिक इकाइयों का प्रावधान है, जिनके पास जल-जंगल व उद्योगों को लेकर क्षेत्र की संस्कृति व संरक्षण हेतु निर्णय करने का अधिकार होता है। लोग यह महसूस करने लगे कि उनकी जान-माल की सुरक्षा को लेकर सरकार गंभीर नहीं है। लद्दाख की जनता के भीतर असुरक्षा की भावना इसलिए भी है क्योंकि उन्हें लगता है कि उनकी भूमि और संसाधनों पर बाहरी दखल बढ़ रहा है। स्थानीय प्रशासनिक संस्थाएँ जैसे हिल डेवलपमेंट काउंसिल्स कमजोर कर दी गई हैं और महत्वपूर्ण फैसले केंद्र के हाथ में केंद्रित हो गए हैं। इससे यह भावना गहराती है कि स्थानीय समाज की आवाज़ को दबाया जा रहा है। जब लंबे समय तक विश्वास और संवाद की कमी बनी रहती है तो जनता के धैर्य का बाँध टूट जाता है। यह सिर्फ राज्य का दर्जा पाने की माँग नहीं है बल्कि यह आत्म-नियंत्रण, पहचान और न्याय पाने की जद्दोजहद है।

लद्दाख की जनता यह चाहती है कि उनके अधिकारों को संवैधानिक गारंटी मिले, उनके संसाधनों की सुरक्षा हो और निर्णय प्रक्रिया में उनकी भागीदारी सुनिश्चित हो। यदि सरकार ने पहले जो आश्वासन दिए थे, उन्हें समयबद्ध और स्पष्ट तरीके से लागू कर दिया जाता तो शायद स्थिति यहाँ तक न पहुँचती। आज जरूरत इस बात की है कि सरकार संवाद और विश्वास बहाली की दिशा में ठोस कदम उठाए। संवैधानिक गारंटी देकर, स्थानीय प्रतिनिधित्व को सशक्त बनाकर, रोजगार और शिक्षा की योजनाओं को मजबूती देकर ही इस असंतोष को शांत किया जा सकता है। लद्दाख की जनता को यह विश्वास दिलाना होगा कि उनके हित सुरक्षित हैं, तभी हिंसा और आक्रोश का माहौल शांति और भरोसे में बदला जा सकेगा। लोगों में यह विश्वास पैदा करना जरूरी है कि फैसलों में लद्दाख के हितों का ख्याल रखा जाएगा। इसका सबसे बेहतर तरीका है पारदर्शिता। वहीं, जनता को भी समझना होगा कि सरकार के लिए हर मांग मानना और तुरंत मानना संभव नहीं होता।