
- सरलता और संघर्ष की आयरन लेडी, जहाँ माँ का स्नेह, समाज की चेतना और स्त्री-संकल्प की प्रतिमूर्ति साथ-साथ चलती रही।
- संतोष वशिष्ठ जी का जीवन संघर्ष और सरलता की अनोखी मिसाल है। उन्होंने रसोई से अपनी यात्रा शुरू की और दैनिक चेतना की संपादक बनकर समाज को दिशा दी।
- मृदुभाषी, सौम्य और आत्मीय, फिर भी सिद्धांतों पर अडिग—यही उनकी असली पहचान थी। वशिष्ठ सदन को उन्होंने राजनीति और समाज का केंद्र बनाया और चेतना परिवार को माँ की तरह सँभाला। वे सचमुच हरियाणा की ‘आयरन लेडी’ थीं, जिनकी स्मृतियाँ और शिक्षाएँ हमें सदैव प्रेरित करती रहेंगी।
डॉ. प्रियंका सौरभ
कभी-कभी जीवन हमें ऐसे व्यक्तित्वों से मिलाता है, जो साधारण दिखाई देते हैं, परंतु भीतर से असाधारण ऊर्जा और सामर्थ्य से भरे होते हैं। वे लोग किसी मंच या रोशनी के सहारे नहीं चमकते, बल्कि अपने कर्मों की गरिमा से स्वयं दीप्त हो उठते हैं। हरियाणा की धरती पर जन्मी संतोष वशिष्ठ जी ऐसा ही एक नाम थीं। लोग उन्हें स्नेह और श्रद्धा से आयरन लेडी कहते थे। लेकिन यह उपाधि उनके कठोर स्वभाव की नहीं, बल्कि उनके अदम्य साहस और अटल सिद्धांतों की पहचान थी।
संतोष जी का जीवन जितना सरल दिखता है, उतना ही गहन और प्रेरणादायी है। वे उन दुर्लभ स्त्रियों में से थीं जिन्होंने गृहस्थी की जिम्मेदारियों और सामाजिक कर्तव्यों को एक साथ निभाया। उनकी वाणी मधुर, व्यवहार विनम्र और स्वभाव सौम्य था, लेकिन जब सिद्धांतों की बात आती तो वे चट्टान की तरह अडिग हो जातीं। उनके व्यक्तित्व का यही द्वंद्व उन्हें असाधारण बनाता था।
उनका जीवन इस सत्य की गवाही देता है कि महानता का आधार भव्य मंच या ऊँचे पद नहीं होते, बल्कि आत्मबल और निष्ठा होती है। उन्होंने अपने परिवार, समाज और पत्रकारिता—तीनों क्षेत्रों को समान महत्व दिया और हर जगह अपनी छाप छोड़ी।
रसोई से संपादक तक की यात्रा
संतोष जी की जीवन यात्रा साधारण नारी की तरह ही रसोई से प्रारंभ हुई। वे भोजन बनातीं, घर सँभालतीं, परिवार की जिम्मेदारियाँ निभातीं। लेकिन नियति ने उन्हें केवल गृहस्थी तक सीमित रहने नहीं दिया। परिस्थितियों ने, समय ने और उनके भीतर के संकल्प ने उन्हें उस राह पर खड़ा कर दिया जहाँ उन्हें समाज के लिए लिखना और बोलना पड़ा।
दैनिक चेतना के माध्यम से उन्होंने पत्रकारिता की दुनिया में कदम रखा। इस अख़बार की नींव उनके पति, स्व. देवव्रत वशिष्ठ ने रखी थी। परंतु इसकी निरंतरता और मजबूती के पीछे संतोष जी का योगदान किसी स्तंभ से कम नहीं था। वे रसोई के काम से उठकर संपादकीय मेज़ पर बैठतीं और समाज की धड़कनों को शब्दों में ढाल देतीं। यही वह सफर था जिसे लोग सम्मानपूर्वक “रसोई से संपादक तक” कहते हैं।
उनके लिए पत्रकारिता केवल एक पेशा नहीं, बल्कि समाज की आत्मा को अभिव्यक्त करने का माध्यम थी। उन्होंने कभी सनसनीख़ेज़ ख़बरों की लालसा नहीं की, बल्कि हमेशा सच, नैतिकता और समाजहित को प्राथमिकता दी। यही कारण था कि दैनिक चेतना को पाठकों ने परिवार की तरह अपनाया और उस पर विश्वास किया।
वशिष्ठ सदन : विचारों का संगम
संतोष जी का घर, वशिष्ठ सदन, वर्षों तक हरियाणा की राजनीति और समाज का केंद्र बना रहा। यह घर नेताओं, विचारकों और समाजसेवियों के लिए किसी खुले मंच जैसा था। यहाँ हर विचारधारा के लोग आते, बैठते, चर्चा करते और दिशा पाते।
इस पूरे वातावरण को संतुलन में रखने वाली शक्ति थीं—संतोष जी। वे सभी का आदर करतीं, सबकी सुनतीं, परंतु स्वयं निष्पक्ष और सिद्धांतनिष्ठ बनी रहतीं। उनके सहज स्वभाव और मृदु व्यवहार के कारण हर आगंतुक उनसे आत्मीयता का अनुभव करता। उन्होंने यह साबित कर दिया कि घर केवल चार दीवारों का नाम नहीं, बल्कि समाज का आईना भी बन सकता है।
चेतना परिवार की माँ
संतोष जी केवल अपने बच्चों की माँ नहीं थीं। दैनिक चेतना के हर सहयोगी, हर पत्रकार, हर कर्मचारी को वे अपने परिवार का हिस्सा मानतीं। उन्हें प्रोत्साहित करना, उनकी कठिनाइयों में साथ खड़ा होना और उनके लिए बेहतर अवसर उपलब्ध कराना—ये सब उनके स्वभाव का हिस्सा था।
वे पत्रकारिता को एक सेवा मानती थीं, और इसी दृष्टि से हर कार्यकर्ता को प्रेरित करती थीं। यही कारण था कि चेतना परिवार उन्हें माँ की तरह मानता रहा।
आयरन लेडी की छवि
‘आयरन लेडी’ कहना आसान है, परंतु इसका अर्थ समझना कठिन। संतोष वशिष्ठ ने यह उपाधि अपने कठोर हृदय से नहीं, बल्कि अपने अडिग इरादों से अर्जित की। वे भीतर से कोमल थीं, रिश्तों को सँभालना जानती थीं, लेकिन जब समय आया तो किसी दबाव के आगे झुकीं नहीं।
पत्रकारिता की दुनिया में आर्थिक संकट, सामाजिक विरोध और राजनीतिक दबाव सामान्य बात है। परंतु संतोष जी ने हर परिस्थिति का सामना साहस के साथ किया। वे जानती थीं कि सच बोलना कभी आसान नहीं होता, लेकिन वे सच से पीछे नहीं हटीं। यही साहस उन्हें औरों से अलग करता है।
सरलता की शक्ति
उनकी सबसे बड़ी ताक़त थी—उनकी सरलता। जीवन में चाहे कितने भी उतार-चढ़ाव आएँ, वे मुस्कान के साथ हर परिस्थिति को स्वीकार करतीं। वे मानती थीं कि सरलता ही सबसे बड़ा हथियार है। उनके जीवन का यही गुण लोगों को सबसे अधिक प्रभावित करता था।
वे कहा करती थीं—“रिश्तों की असली शिक्षा किताबों से नहीं, घर के आँगन से मिलती है। पहले अपने खून के रिश्तों को सँभालो, तभी समाज को भाईचारे की सीख देने का हक़ बनता है।”
यह वाक्य उनके जीवन का सार है। उन्होंने इसे केवल कहा ही नहीं, बल्कि जिया भी।
एक विरासत
आज जब संतोष वशिष्ठ हमारे बीच नहीं हैं, तो उनकी स्मृतियाँ और शिक्षाएँ हमारे पास धरोहर की तरह हैं। वे हमें यह सिखाकर गईं कि स्त्री यदि ठान ले तो घर की दीवारों से बाहर निकलकर पूरे समाज को दिशा दे सकती है। उन्होंने यह भी सिद्ध किया कि पत्रकारिता केवल कागज़ पर छपने वाली ख़बरों का नाम नहीं, बल्कि समाज के विचार और भविष्य की धड़कन है।
उनकी विरासत केवल अख़बार तक सीमित नहीं है। उनकी विरासत है—सत्यनिष्ठा, साहस, सरलता और सेवा। यह ऐसी धरोहर है जिसे कोई समय नहीं मिटा सकता।
अमर स्मृतियाँ
संतोष वशिष्ठ का जीवन हमें यह समझाता है कि महानता पद या संपत्ति से नहीं, बल्कि त्याग और निष्ठा से आती है। उन्होंने अपने जीवन से यह संदेश दिया कि संघर्ष और सेवा ही सच्ची शक्ति है।
वे केवल एक स्त्री, पत्नी या माँ नहीं थीं। वे एक आंदोलन थीं, एक विचार थीं, एक चेतना थीं। उनका जाना एक युग का अंत है, पर उनकी स्मृतियाँ अमर हैं।
सचमुच, संतोष वशिष्ठ जैसी महिलाएँ कभी जाती नहींं। वे समाज की चेतना में सदा जीवित रहती हैं, प्रेरणा देती रहती हैं और हमें बार-बार याद दिलाती हैं कि—
“आयरन लेडी वही होती है,
जो मुस्कान के साथ संघर्ष झेलकर भी समाज को रोशनी देती है।”