ममता कुशवाहा
विश्व राजनीति के समकालीन परिदृश्य में हाल ही में जोहानसबर्ग में सम्पन्न हुआ जी- 20 शिखर सम्मेलन एक ऐतिहासिक घटना के रूप में दर्ज हो गया। अफ्रीकी धरती पर पहली बार आयोजित इस वैश्विक मंच ने उस परिवर्तनकारी युग की आहट दी, जिसमें दुनिया का शक्ति-संतुलन अधिक न्यायसंगत और बहुध्रुवीय स्वरूप ग्रहण करने की ओर अग्रसर है। यह सम्मेलन केवल प्रमुख अर्थव्यवस्थाओं की वार्षिक बैठक भर नहीं रहा, बल्कि इसने उभरते वैश्विक दक्षिण और विकासशील देशों की आकांक्षाओं का सम्मान करते हुए समानता, सहभागिता और समावेशी विकास के नए प्रतिमान स्थापित किए। इन परिवर्तनों के केंद्र में भारत रहा, जो इस बार केवल एक सहभागी नहीं, बल्कि एक प्रेरक, संयोजक और दूरदर्शी नेतृत्व के रूप में उभरा। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सक्रिय भूमिका ने सम्मेलन की चर्चाओं को विकास सहयोग, जलवायु वित्त, तकनीकी परिवर्तन, कर्ज संकट और संस्थागत सुधार जैसे मुद्दों पर केंद्रित रखा। पूरा सम्मेलन मानो इस विचार को दोहरा रहा था कि “विकास एक साझा यात्रा है, किसी एक राष्ट्र की नहीं।”
जोहानसबर्ग सम्मेलन का सबसे अनोखा और प्रभावशाली पहलू था, विकासशील देशों की व्यापक और सशक्त भागीदारी। पश्चिमी नेतृत्व की अनुपस्थिति के बावजूद न केवल चर्चाएँ सार्थक रहीं, बल्कि अंतिम संयुक्त घोषणा-पत्र पर सर्वसम्मति ने यह प्रदर्शित किया कि वैश्विक दक्षिण आज केवल एक दर्शक नहीं, बल्कि निर्णय प्रक्रियाओं का सक्रिय चालक बन चुका है। अमेरिका सहित कई धनी देशों के शीर्ष नेतृत्व की गैरमौजूदगी के बावजूद यह सम्मेलन किसी भी रूप में कमज़ोर नहीं पड़ा। बल्कि इसने एक स्पष्ट संकेत दिया कि दुनिया का नया संतुलन अब कुछ तयशुदा महाशक्तियों के इर्द-गिर्द नहीं घूमता; उसमें अनेक नई आवाज़ें शामिल हैं, जिनमें भारत अत्यंत प्रभावी और विश्वसनीय भूमिका निभा रहा है। दक्षिण अफ्रीका की मेजबानी और भारत के कूटनीतिक कौशल ने इस सर्वसम्मति को संभव बनाया, जिससे यह संदेश गया कि एक संतुलित विश्व-व्यवस्था वही है, जिसमें सबकी आवाज़ सुनी जाए।
अफ्रीका का उभार और भारत- अफ्रीका की साझेदारी
यह सम्मेलन अफ्रीका के राजनीतिक और आर्थिक महत्व को वैश्विक विमर्श के केंद्र में लाने वाला एक निर्णायक अवसर बना। दशकों से अफ्रीकी राष्ट्र यह मांग करते रहे हैं कि उन्हें वैश्विक संस्थाओं में उचित प्रतिनिधित्व मिले तथा निवेश, व्यापार और तकनीक के क्षेत्रों में समान अवसर प्रदान किए जाएँ। जोहानसबर्ग में इन आवाज़ों को न केवल मंच मिला, बल्कि भारत जैसा दृढ़ समर्थक भी मिला। प्रधानमंत्री मोदी ने बार-बार यह स्पष्ट किया कि विश्व के उत्तर और दक्षिण का विकास एक-दूसरे पर निर्भर है, और यदि दुनिया को स्थिरता चाहिए तो अफ्रीका की आकांक्षाओं का सम्मान अनिवार्य है। भारतीय नेतृत्व ने याद दिलाया कि अफ्रीकी संघ को जी- 20 की सदस्यता दिलाने का प्रस्ताव भारत ने ही रखा था, जिसे पिछले वर्ष मंजूरी मिली। यह पहल इतिहास में दर्ज हो चुकी है और भारत- अफ्रीका संबंधों को नई ऊर्जा प्रदान कर रही है।
कर्ज संकट पर वैश्विक सहमति और भारत की रचनात्मक भूमिका
वर्तमान समय में अनेक विकासशील देश विशेषकर अफ्रीका और एशिया के गंभीर कर्ज संकट से जूझ रहे हैं। इस ऋण- भार की वजह से वे अपने सामाजिक और आर्थिक विकास में आवश्यक निवेश नहीं कर पा रहे।सम्मेलन में कर्ज पुनर्गठन, पारदर्शी ऋण प्रबंधन और जवाबदेही पर जोर दिया गया। भारत ने इस प्रश्न पर बेहद संतुलित और व्यावहारिक दृष्टिकोण प्रस्तुत किया। भारत का तर्क था कि ऋण समाधान केवल आर्थिक मसला नहीं, बल्कि विकास, क्षमता निर्माण और सुशासन से जुड़ा मुद्दा है। भारत स्वयं एक ऐसा राष्ट्र रहा है जिसने सहायता प्राप्तकर्ता से सहायता प्रदाता बनने तक का लंबा सफर तय किया है। इसलिए वह अनुभव के आधार पर कह सकता है कि ऋण का समाधान तभी संभव है जब उधार लेने वाले देशों को आत्मनिर्भर बनने का अवसर दिया जाए।
जलवायु न्याय और समान ऊर्जा संक्रमण की आवश्यकता
जोहानसबर्ग की चर्चाओं में जलवायु परिवर्तन सबसे प्रमुख मुद्दों में रहा। विश्व के विकासशील देशों ने जोर दिया कि वे जलवायु संकट के सबसे बड़े पीड़ित हैं, जबकि प्रदूषण में उनकी हिस्सेदारी बहुत कम है। भारत ने जलवायु न्याय का पुरजोर समर्थन किया, जिसका अर्थ है कि विकसित राष्ट्र अधिक जिम्मेदारी लें और विकासशील देशों को पर्याप्त वित्त, तकनीक और संसाधन उपलब्ध कराएँ। भारत ने सतत जीवनशैली, सौर ऊर्जा, हरित विकास और परिपत्र अर्थव्यवस्था जैसे विषयों पर व्यवहारिक सुझाव दिए। इसके साथ ही भारत ने विकसित देशों से यह भी कहा कि जलवायु वित्त की प्रतिबद्धताएँ ज़मीन पर उतारी जानी चाहिए, केवल काग़ज़ पर नहीं।
डिजिटल तकनीक और समावेशी विकास का भारतीय मॉडल
सम्मेलन का एक और केंद्रीय विषय था, वैश्विक डिजिटल परिवर्तन। दुनिया डिजिटल हो रही है, लेकिन डिजिटल विभाजन भी उतनी ही तेजी से बढ़ रहा है। भारत ने इस संदर्भ में अपने डिजिटल पब्लिक इंफ्रास्ट्रक्चर मॉडल को सामने रखा- आधार, यूपीआई, डिजिलॉकर, आरोग्य सेतु, कोविन और अन्य सेवाओं के माध्यम से भारत ने दिखाया कि किस तरह तकनीक को जनकल्याण का उपकरण बनाया जा सकता है। प्रधानमंत्री मोदी ने कहा कि डिजिटल भविष्य ऐसा होना चाहिए जो असमानताओं को कम करे, न कि बढ़ाए। दुनिया ने इस भारतीय दृष्टिकोण की सराहना की और कई देशों ने भारत के साथ डिजिटल सहयोग को मजबूत करने में रुचि दिखाई।
खाद्य सुरक्षा, ऊर्जा सुरक्षा और वैश्विक स्वास्थ्य
जोहानसबर्ग सम्मेलन ने व्यावहारिक चुनौतियों पर भी ध्यान केंद्रित किया, जैसे खाद्य सुरक्षा, ऊर्जा आपूर्ति, स्वास्थ्य अवसंरचना और स्थायी निवेश। भारत ने खाद्य संकट के दौरान विश्व को अनाज उपलब्ध कराने की अपनी भूमिका पर प्रकाश डाला। ऊर्जा सुरक्षा पर भारत ने कहा कि ऊर्जा विकल्पों में विविधता अत्यंत आवश्यक है, ताकि किसी एक क्षेत्र पर अत्यधिक निर्भरता न बनी रहे।
वैश्विक स्वास्थ्य के विषय में भारत ने वैक्सीन उपलब्धता और चिकित्सा अवसंरचना को मजबूत करने पर जोर दिया। कोरोना महामारी के दौरान भारत की भूमिका दुनिया ने देखी थी, वैक्सीन मैत्री और आपातकालीन सहायता के रूप में।
नए भू-राजनीतिक संतुलन और भारत की भूमिका
आज की दुनिया व्यापार युद्धों, क्षेत्रीय संघर्षों, सामरिक प्रतिस्पर्धा और वैश्विक नेतृत्व के अभाव जैसे गंभीर तनावों से घिरी हुई है, जिसके कारण अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था लगातार अस्थिर होती जा रही है। ऐसे दौर में जोहानसबर्ग शिखर सम्मेलन ने दुनिया को यह सशक्त संदेश दिया कि टकराव और शक्ति-प्रदर्शन समस्याओं का समाधान नहीं हैं; बल्कि सहयोग, संवाद और बहुध्रुवीयता ही आगे बढ़ने का वास्तविक मार्ग है। यह सम्मेलन संकेत देता है कि विश्व अब किसी एकध्रुवीय शक्ति-संरचना को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं, बल्कि एक ऐसे संतुलित वैश्विक ढांचे की ओर बढ़ रहा है जहाँ कई राष्ट्र मिलकर निर्णय लें और सामूहिक रूप से स्थिरता का निर्माण करें।
इस उभरती बहुध्रुवीय विश्व-व्यवस्था में भारत एक विश्वसनीय, संतुलनकारी और कूटनीतिक रूप से सक्षम राष्ट्र के रूप में सामने आया है। उसकी विदेश नीति परस्पर सम्मान, संवाद और रचनात्मक सहयोग पर आधारित है, जो आज के विभाजित वैश्विक परिदृश्य में अत्यंत प्रासंगिक है। भारत ने विभिन्न देशों के बीच सेतु का कार्य करते हुए मतभेदों को संतुलित किया और साझा समाधान के लिए मार्ग प्रशस्त किया। इसका सबसे उल्लेखनीय उदाहरण है संयुक्त घोषणा-पत्र का सर्वसम्मति से पारित होना, जो आज के ध्रुवीकृत माहौल में लगभग असंभव उपलब्धि थी। यह न केवल भारत की कूटनीतिक प्रभावशीलता को रेखांकित करता है, बल्कि यह भी दर्शाता है कि विश्व समुदाय भारत को एक स्थिर, विश्वसनीय और दूरदर्शी वैश्विक नेतृत्व के रूप में देख रहा है।
वैश्विक प्रगति की साझा यात्रा
दुनिया आज ऐसे निर्णायक मोड़ पर खड़ी है जहाँ प्रगति का मार्ग किसी एक राष्ट्र की शक्ति या एकतरफ़ा नीतियों से नहीं, बल्कि सभी देशों के सामूहिक प्रयास, सहयोग और परस्पर सम्मान से तय होगा। यही विचार “वैश्विक प्रगति की साझा यात्रा” की भावना को जन्म देता है, एक ऐसी सोच जो इस बात पर आधारित है कि विकास तभी स्थायी और सार्थक होगा जब वह सबको साथ लेकर चले। यह केवल आर्थिक वृद्धि का मुद्दा नहीं, बल्कि एक व्यापक वैश्विक दृष्टिकोण है जिसमें न्याय, समानता और पारस्परिक भरोसा मुख्य भूमिका निभाते हैं। भारत इस नए वैश्विक विमर्श में अग्रणी रहा है। उसने स्पष्ट शब्दों में कहा कि सभी देशों, विशेषकर विकासशील और उभरती अर्थव्यवस्थाओं को, समान अवसर और सम्मान मिलना चाहिए। विश्व तभी सुरक्षित और स्थिर रह सकता है जब उसके हर हिस्से को अपनी क्षमता विकसित करने का पूरा अवसर मिले। भारत की विदेश नीति में निहित “वसुधैव कुटुंबकम्” जैसे सिद्धांत इस साझा यात्रा की दिशा को और अधिक अर्थपूर्ण बनाते हैं।
आज जब वैश्विक व्यापार तनाव, आपूर्ति-शृंखला टूटन, भू-राजनीतिक अविश्वास और आर्थिक अस्थिरता विश्व व्यवस्था को चुनौती दे रहे हैं, तब यह साझा यात्रा और भी महत्वपूर्ण हो जाती है। भारत ने इस संदर्भ में न केवल स्थायी और विश्वसनीय आपूर्ति-शृंखलाओं के निर्माण पर ज़ोर दिया, बल्कि यह भी बताया कि विकास तब तक समतामूलक नहीं हो सकता जब तक वैश्विक संस्थाएँ, जैसे संयुक्त राष्ट्र, आईएमएफ और विश्व बैंक 21वीं सदी की वास्तविकताओं के अनुरूप खुद को न ढालें। “वैश्विक प्रगति की साझा यात्रा” केवल एक आदर्श नहीं, बल्कि आज की विश्व-व्यवस्था की अनिवार्य आवश्यकता है। यह वही मार्ग है जो देशों को परस्पर निर्भरता को समझने, एक-दूसरे की चुनौतियों को स्वीकारने और सामूहिक समाधान ढूँढने की प्रेरणा देता है। भारत ने इस यात्रा की दिशा दिखाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है और विश्व को याद दिलाया है कि भविष्य उन्हीं का होगा जो सबको साथ लेकर चलेंगे।
जोहानसबर्ग में सम्पन्न जी–20 शिखर सम्मेलन ने यह सिद्ध कर दिया कि दुनिया तेजी से बदल रही है, एकाधिकार की नहीं, साझेदारी की ओर। भारत इस परिवर्तन के केंद्र में है- विश्वसनीय, संतुलित और दूरदर्शी नेतृत्व के साथ। सम्मेलन के परिणामों ने यह स्पष्ट किया कि भारत अब केवल वैश्विक चर्चाओं में भाग नहीं लेता, बल्कि उन्हें दिशा भी प्रदान करता है। एक अधिक न्यायपूर्ण, समावेशी और संतुलित विश्व-व्यवस्था का निर्माण अब कल्पना नहीं, बल्कि एक वास्तविक प्रक्रिया है और भारत इसका अग्रदूत बनकर उभर रहा है।





