
प्रदीप शर्मा
कई बार समाचार सुनने-पढ़ने को मिलते हैं कि परिजनों के गंभीर व असाध्य रोगों के महंगे इलाज की वजह से लाखों लोग गरीबी की दलदल में डूब गए। कोरोना संकट के दौरान भी लोगों द्वारा घर, जमीन व जेवर बेचकर अपनों की जान बचाने की कोशिश की खबरें मीडिया में तैरती रही। लेकिन सामान्य दिनों में दवा कंपनियों की मिलीभगत व दबाव में लिखी जाने वाली महंगी दवाइयां भी गरीबों को टीस दे जाती हैं। इसके बावजूद कि बाजार में उसी साल्ट वाली गुणवत्ता की जेनेरिक दवा सहज उपलब्ध है। कुछ समय पहले केंद्र सरकार की ओर से जेनेरिक दवाइयां लिखने की अनिवार्यता के निर्देश का अच्छा-खासा विरोध हुआ, जिसके चलते निर्णय वापस लेना पड़ा था। अब इसी चिंता को देश की शीर्ष अदालत ने अभिव्यक्त किया है। दरअसल, बीते शुक्रवार को दवा कंपनियों की मुनाफाखोरी के कारोबार से बढ़ती दवाओं की कीमतों के बाबत एक मामले में सुनवाई करते हुए शीर्ष अदालत ने कहा कि यदि डॉक्टर केवल जेनेरिक दवाइयां ही लिखना प्रारंभ कर दें, तो दवा कंपनियों व चिकित्सकों के अपवित्र गठबंधन को तोड़ा जा सकता है।
निस्संदेह, तरह-तरह के प्रलोभन व परोक्ष-अपरोक्ष लाभ देकर दवा कंपनियां चिकित्सकों पर महंगी दवा लिखने का दबाव बनाती हैं। जिसकी कीमत उन लोगों को चुकानी पड़ती है, जो महंगी दवा खरीदने की क्षमता नहीं रखते। ऐसे में वे कर्ज लेकर या अपने रिश्तेदारों से मदद लेकर किसी तरह गंभीर रोगों से ग्रस्त मरीजों का इलाज कराते हैं। इस खर्च के दबाव के चलते परिजनों को भी तमाम कष्ट उठाने पड़ते हैं। गाहे-बगाहे सरकारों ने दवा कंपनियों की बेलगाम मुनाफाखोरी रोकने को कदम उठाने की घोषणाएं तो कीं, लेकिन समस्या का सार्थक समाधान नहीं निकल पाया। चिकित्सा बिरादरी की तरफ से भी यदि इस दिशा में सहयोग मिलने लगे तो इस समस्या का समाधान किसी सीमा तक संभव हो सकता है। लेकिन विडंबना है कि ऐसा हो नहीं पा रहा है। एक संकट यह भी है कि दवा कंपनियों द्वारा प्रचार किया जाता है कि जेनेरिक दवाइयां रोग के उपचार में पर्याप्त रूप से सक्षम नहीं होती।
निस्संदेह, सरकारों को इस दिशा में गंभीरता से सोचना होगा कि जेनेरिक दवाइयों को प्रोत्साहन देने के उसके प्रयास क्यों सिरे नहीं चढ़ते। एक वजह यह भी है कि दवा कंपनियों की लॉबी खासी ताकतवर होती है और साम-दाम-दंड-भेद की नीति का उपयोग करके अपने उत्पादों का विपणन करने में सफल हो जाती है। ऐसे आक्षेपों से चिकित्सा बिरादरी भी दोषमुक्त नहीं हो सकती, जो दवा कंपनियों के लोभसंवरण से मुक्त नहीं हो पाती। सरकारों को देखना चाहिए कि दवा कंपनियों द्वारा पोषित कदाचार पर नियंत्रण के प्रयास जमीनी हकीकत क्यों नहीं बन पाते। यदि ये कदम सख्ती से उठाए जाएं तो गरीब मरीज गंभीर रोगों का उपचार करने में सक्षम हो पाएंगे। फिर उनके अपनों का इलाज उनकी क्षमता के अनुरूप हो सकेगा। निस्संदेह, लंबे उपचार व असाध्य रोगों के इलाज में दवाओं की कीमत एक प्रमुख घटक होता है। यदि दवा नियंत्रित दामों में मिल सके तो उनकी बड़ी चिंता खत्म हो सकती है। निस्संदेह, दवाओं की कीमत हमारी चिकित्सा सेवाओं के लिये एक बड़ी चुनौती बनी हुई है।
सरकार को चाहिए कि गांव से लेकर शहरों तक जेनेरिक दवाओं के मेडिकल स्टोर बड़ी संख्या में खोले जाएं। मरीजों के तिमारदार उन तक आसानी से पहुंच सकें। इस काम में स्वयं सेवा समूहों की मदद ली जा सकती है ताकि गरीब-अनपढ़ मरीजों को जागरूक करके जेनेरिक दवाइयों के उपयोग को प्रोत्साहित किया जा सके। मरीजों के परिजनों को विश्वास दिलाया जाना चाहिए कि जेनेरिक दवाइयां भी उसी साल्ट से बनी होती हैं, जिससे महंगी ब्रांडेड दवाइयां बनी होती हैं। निश्चित रूप से चिकित्सा बिरादरी का भी फर्ज बनता है कि वे अपने ऋषिकर्म का दायित्व निभाते हुए गरीब मरीजों को अधिक से अधिक जेनेरिक दवाइयां लिखना शुरू करें। यह उनके लिये भी पुण्य के काम जैसा होगा। लेकिन एक बात तो तय है कि सरकार असरकारी व समान गुणवत्ता की जेनेरिक दवाओं की बिक्री व सहज उपलब्धता के लिये युद्धस्तर पर प्रयास करे। साथ ही सूचना माध्यमों व स्वयं सेवी संस्थाओं की मदद से जागरूकता अभियान भी चलाए।