क्लीन डवलपमेंट मेकनिज़्म और संयुक्त क्रियान्वयन से कम होगी ग्लोबल वार्मिंग !

Global warming will be reduced by clean development mechanism and joint implementation!

सुनील कुमार महला

अभी जून के महीने की शुरुआत ही हुई है और मार्च से ही लगातार ताबड़तोड़ गर्मी पड़ रही है। आज भारत ही नहीं अपितु संपूर्ण विश्व ग्लोबल वार्मिंग की समस्या का लगातार सामना कर रहा है। आज संपूर्ण विश्व में सबसे बड़ी चिंताएं या तो पर्यावरण प्रदूषण को लेकर हैं अथवा ग्लोबल वार्मिंग तथा जलवायु परिवर्तन को लेकर। ग्लोबल वार्मिंग को लेकर हाल ही में विश्व मौसम विज्ञान संगठन ने एक रिपोर्ट जारी की है।रिपोर्ट में यह चेतावनी दी गई है कि 80 प्रतिशत संभावना है कि साल 2025 और 2029 के बीच के साल 2024 से ज्यादा गर्म होंगे। दूसरे शब्दों में कहें तो

अगले पांच वर्षों में कम से कम एक साल 2024 से अधिक गर्म होने की संभावना है, जिसे अब तक का सबसे गर्म वर्ष माना गया है। जानकारी के अनुसार 1850-1900 के औसत तापमान की तुलना में सतही तापमान 1.2 डिग्री से 1.9 डिग्री सेल्सियस तक रह सकता है।यह बहुत ही चिंताजनक है कि साल 1880 से जब से तापमान के बारे में रिकार्ड रखना शुरू किया गया, उनमें से पिछले 11 साल, लगातार अब तक के रिकॉर्ड में सबसे गर्म रहे हैं। पाठकों को बताता चलूं कि रिपोर्ट में डब्लूएमओ ग्लोबल एनुअल टू डेकाडल क्लाइमेट अपडेट (2025-2029) ने यह भी अनुमान लगाया है कि 70 प्रतिशत संभावना है कि 2025-2029 के लिए पांच साल का औसत तापमान 1.5 डिग्री सेल्सियस को पार कर जाएगा, जिससे धरती पर लगातार और गंभीर हीटवेव, सूखा जैसे हालात होंगे।यह पिछले साल की साल 2024-2028 के लिए डब्लूएमओ रिपोर्ट में बताई गई 47 प्रतिशत संभावना और साल 2023-2027 के लिए 2023 रिपोर्ट में बताई गई 32 प्रतिशत संभावना से ज्यादा है। वास्तव में, यह सीमा अहम और महत्वपूर्ण इसलिए है क्योंकि, यह पेरिस समझौते के लक्ष्यों में से एक है। यहां पाठकों को बताता चलूं कि साल 2015 के पेरिस जलवायु समझौते के तहत वैश्विक तापमान वृद्धि को पूर्व-औद्योगिक स्तरों की तुलना में दो डिग्री सेल्सियस से नीचे और यदि संभव हो तो 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित करने का लक्ष्य रखा गया था। आज हम कोयला, तेल और गैस का औद्योगिक पैमाने पर इस्तेमाल लगातार कर रहे हैं और वैज्ञानिक यह बात मानते हैं कि 1.5 डिग्री सेल्सियस का लक्ष्य लगभग असंभव हो गया है, क्योंकि कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन अभी भी धरती पर बहुत तेजी से बढ़ रहा है। बहरहाल, यहां यह कहना ग़लत नहीं होगा कि जब भी धरती का तापमान बढ़ता है तो इसके बहुत ही दूरगामी और व्यापक असर पड़ते हैं। मसलन, इससे संपूर्ण विश्व की अर्थव्यवस्थाओं, हमारे दैनिक जीवन, हमारी पारिस्थितिकी प्रणालियों, वनस्पतियों , जीवों या यूं कहें कि हमारे पूरे नीले ग्रह पर इसका नकारात्मक प्रभाव बढ़ता है। दूसरे शब्दों में कहें तो इससे (ग्लोबल वार्मिंग से) कहीं न कहीं सतत् विकास का जोखिम बढ़ता है। बहरहाल,रिपोर्ट के अनुसार, तापमान वृद्धि से चरम मौसमी घटनाएं और गंभीर होंगी, जैसे: अधिक गर्मी और भारी बारिश। ग्लोबल वार्मिंग बढ़ती है तो इससे सूखा, बर्फ का पिघलना, और समुद्र के जलस्तर में वृद्धि जैसी घटनाएं घटित होतीं हैं तथा समुद्र का तापमान भी बढ़ता है और इससे समुद्री जीवन प्रभावित होता है।ऑस्ट्रेलिया, फ्रांस, भारत, चीन और घाना में बाढ़, कनाडा में जंगल की आग ग्लोबल वार्मिंग के उदाहरण कहे जा सकते हैं। बहरहाल, पाठकों को बताता चलूं कि यूके मौसम विभाग(यूके मेट आफिस) ने भी 2025 के लिए एक जलवायु पूर्वानुमान रिपोर्ट जारी की है, जिसमें 2025 को अब तक के तीन सबसे गर्म वर्षों में से एक होने की संभावना व्यक्त की गई है। इस रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि 2025 में वैश्विक औसत तापमान पूर्व-औद्योगिक स्तर से 1.5 डिग्री सेल्सियस से अधिक हो सकता है। यहां पाठकों को यह भी बताता चलूं कि विश्व मौसम विज्ञान संगठन और यूके मेट आफिस दुनिया की दो सबसे शीर्षस्थ एजेंसियां हैं जो कि जलवायु पूर्वानुमान रिपोर्ट जारी करतीं हैं। बहरहाल, पाठकों को बताता चलूं कि मानवीय ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन जलवायु परिवर्तन का आज एक मुख्य कारण है । ग्लोबल वार्मिंग पर इनके प्रभाव विनाशकारी हैं और यह अधिकाधिक आवश्यक होता जा रहा है कि इन उत्सर्जनों को कम किया जाए, ताकि मानव को ग्रह पर इतना दबाव डालने से रोका जा सके। स्थिति इतनी गंभीर है कि अंतर्राष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी ( आईईए ) ने अनुमान लगाया है कि यदि हम इसी तरह जारी रखेंगे तो 2050 तक उत्सर्जन में 130% की वृद्धि होगी । यह विडंबना ही कही जा सकती है कि क्योटो प्रोटोकॉल जैसे समझौतों के बावजूद, कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन में वृद्धि जारी है। वैसे कमोबेश विश्व के लगभग सभी देश वैश्विक प्रदूषण के उच्च स्तर के लिए जिम्मेदार हैं, लेकिन एक रिपोर्ट के अनुसार चीन (30 प्रतिशत), संयुक्त राज्य अमेरिका (15 प्रतिशत), भारत (7 प्रतिशत), रूस(5 प्रतिशत) और जापान (4 प्रतिशत) वैश्विक प्रदूषण के लिए जिम्मेदार देश हैं। इनमें भी चीन का निर्यात बाजार बहुत बड़ा है जो किसी भी अन्य देश की तुलना में अधिक डाइऑक्साइड उत्सर्जित करता है। यहां यदि हम भारत की बात करें तो विश्व स्वास्थ्य संगठन का कहना है कि दुनिया के 15 सबसे प्रदूषित शहरों में से 14 भारत में हैं। देश में वायु गुणवत्ता की सुरक्षा के लिए 1981 से ही कानून लागू है, लेकिन जीवाश्म ईंधनों के जलने की दर में काफी वृद्धि हुई है और इसके परिणामस्वरूप भारत विश्व में सर्वाधिक प्रदूषण फैलाने वाले देशों की रैंकिंग में तीसरे स्थान पर है। वहीं पर रूस तेल, कोयला, गैस और जीवाश्म ईंधन पर निर्भरता के कारण बड़ी मात्रा में कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन करता है। यदि हम यहां पर जापान की बात करें तो जापान विश्व में जीवाश्म ईंधन का सबसे बड़ा उपभोक्ता और ग्रीनहाउस गैसों का पांचवा सबसे बड़ा उत्सर्जक है। बहरहाल, यह दुर्भाग्य की बात है कि दुनिया के बड़े और विकसित देश आज कार्बन उत्सर्जन कम करने के लिए प्रतिबद्ध नहीं दिख रहे हैं। इससे भी बड़ी विडंबना यह है कि दुनिया के समृद्ध देश आज कार्बन उत्सर्जन कम करने को अपना दायित्व नहीं मानते और न ही अपनी सामर्थ्य के अनुसार अधिक धन देने के लिए ही तैयार नजर आते हैं। हालांकि इसी बीच अच्छी बात यह भी है कि भारत ने 2070 तक कार्बन तटस्थता का लक्ष्य निर्धारित किया है, और यूरोपीय संघ ने 2050 तक ‘शुद्ध-शून्य’ उत्सर्जन का लक्ष्य रखा है। कई अन्य देशों ने भी जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए उत्सर्जन में कमी करने के लक्ष्य निर्धारित किए हैं, जैसे कि ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को कम करना और नवीकरणीय ऊर्जा पर स्विच करना। पाठकों को बताता चलूं कि भारत ने उत्सर्जन तीव्रता में कमी लाने के लिए ‘कार्बन क्रेडिट ट्रेडिंग स्कीम, 2023’ को अधिसूचित किया है। इतना ही नहीं,भारत ने नवीकरणीय ऊर्जा पर स्विच करने और ऊर्जा दक्षता में सुधार करने के लिए कई योजनाएं और नीतियां बनाई हैं, जैसे कि सौर ऊर्जा का उपयोग करना आदि। अंत में यही कहूंगा कि ग्लोबल वार्मिंग आज किसी देश विशेष की समस्या नहीं है, अपितु यह हम सभी की एक सामूहिक समस्या है और इसके लिए हमें एक दूसरे के सहयोग के साथ आगे आना होगा और पूर्ण प्रतिबद्ध और कृतसंकल्पित होकर काम करना होगा। वास्तव में ग्लोबल वार्मिंग से निपटने के लिए वर्ष 1997 के क्योटो प्रोटोकॉल द्वारा विकसित देशों को जो तीन विकल्प क्रमशः अंतर्राष्ट्रीय उत्सर्जन व्यापार,क्लीन डवलपमेंट मेकनिज़्म और संयुक्त क्रियान्वयन पर मुस्तैदी और पूरी तन्मयता से काम करना होगा तभी हम इस गहराती समस्या से निपट सकेंगे।