रमेश शर्मा
अचानक यूं इस फानी दुनिया से विदा हो जाएंगे ऐसा तो सपने में भी इलहाम नहीं होता था क्योंकि उनकी पोस्ट फेसबुक पर लगातार आ रही थी। कभी उदयपुर कभी विदेश कभी मुंबई से लगातार शेयर कर रहे थे और जो जीवंतता बनी हुई थी तो यह भान ही नहीं था कि कोई काल बीमारी बन कर उनके साथ विचर रहा है और अचानक वो हम सब से जुदा करा ले जाएगा।
कोई 30 साल पहले मैंने दिल्ली में जब राष्ट्रीय सहारा में लगभग नई शुरुआत की तो क्राइम रिपोर्टर के रूप में संदीप ठाकुर मेरे साथ थे।उनका ठाकुरों वाला शहंशाही अंदाज हर एसीपी डीसीपी के सिर चढ़कर बोलता था और खबरें उनके पास खुद कर आती थी। खरी बात में ठाकुर का कोई सानी नहीं था। हर मोर्चे पर पीड़ित मित्रों का साथ देते हुए खड़े नजर आते थे। उनकी फैन फॉलोइंग इतनी ज्यादा है कि उनके वाल पर लगातार श्रद्धांजलि का तांता लगा हुआ है। संदीप और मैंने करीब 3 साल इकट्ठे काम किया। उसके बाद परिस्थितियों ऐसी बनी कि संदीप हिंदुस्तान में चले गए लेकिन उनसे जुड़ाव लगातार बना रहा। चैट होता रहा। फोन पर भी बात हो जाती थी। अंदाज उनका वही पुराना वाला पूरी तरह से दबंग रहता और उनकी बातें अकाट्य होती थी। अपनी शर्त पर जीने वाले तर्कशील मस्त तबीयत के धनी थे और जो उनके व्यक्तित्व की खूबियां थी वह उनकी पत्रकारिता में भी झलकती थी। उनके साथ आप कभी बोर नहीं हो सकते थे। नया कुछ सीखने की ललक और ड्रेस सेंस ठाकुर साब आपका अंदाज़ निराला है, मित्र उनको यही कहते।
एक किस्सा मुझको याद आता है। संदीप ठाकुर की जिससे नहीं बनती थी उसके खिलाफ पोस्टर भी टांग सकते थे। एक संपादक जी के साथ उनकी नहीं बनी तो संदीप ने उपमा दे कर उपमा (टाइटल देने का रिवाज) पोस्टर बनाकर दीवारों पर टंगा दी और सहमत होते हुए भी मैं खुल कर उनके साथ नहीं था तो मेरे बारे में भी यह लिखा कि “रमेश शर्मा हारे हुए सिपाही”… मुझे याद आता है मित्र मंडली की शामें संदीप के किस्सों से रंगीन हुआ करती थी, उस शुरुआती संघर्ष के दौर में मैंने यह कहा कि थैंक यू संदीप भाई आपने मुझे सिपाही तो माना , हारा हुआ ही सही चोर तो नहीं माना। साफ़ सफफाक दिल के, सचमुच यारों के यार यार दिलदार थे, हमेशा याद आएंगे। उनको प्रिय लाइने थी _
कोहनी पर टिके हुए लोग।
टुकड़ों पर बिके हुए लोग।
करते हैं बरगद की बातें।
ये गमले में उगे हुए लोग।
संदीप को शत-शत नमन