शिशिर शुक्ला
किसी भवन की उत्कृष्टता को सुनिश्चित करने में सर्वाधिक योगदान उस नींव का होता है, जिस पर वह भवन निर्मित किया जाता है। भवन की दीर्घकालिक स्थिरता हेतु यह परम आवश्यक है कि उसके संपूर्ण भार को धारण करने वाली नींव पूर्णतया दृढ़ हो। मानव का व्यक्तित्व भी एक भवन के समतुल्य है। ध्यातव्य है कि शिक्षा व्यक्तित्व निर्माण में अमूल्य योगदान करती है। किंतु यदि गंभीरतापूर्वक विचार किया जाए तो प्राथमिक स्तर की शिक्षा ही वह नींव है जिस पर मानवता की इमारत निर्मित होती है। जन्मोपरांत पांच या छह वर्ष तक शिशु अपनी प्रथम पाठशाला अर्थात परिवार में रहते हुए शनै: शनै: शारीरिक एवं मानसिक विकास की प्रक्रिया से गुजरता है। पांच वर्ष की आयु पूर्ण होने पर वह जीवन की उस अवस्था में प्रवेश करता है जोकि जीवन का सबसे महत्वपूर्ण काल होता है। इस अवस्था में प्रवेशोपरांत शिशु एक बालक का रूप ले लेता है। इसी अवस्थाविशेष में मन मस्तिष्क को प्रभावित करने वाले विविध कारक बालक के व्यक्तित्व को एक निश्चित आकार में ढालने का प्रयास प्रारंभ कर देते हैं। इन कारकों में सबसे महत्वपूर्ण कारक है -प्राथमिक शिक्षा।
आज भले ही शहरीकरण व आधुनिकीकरण जैसी प्रक्रियाएं समाज व राष्ट्र को धीरे धीरे मजबूती से अपनी गिरफ्त में ले रही हों, किंतु भारत गावों में बसता है, इस सत्य से आज भी इनकार नहीं किया जा सकता। एक तथ्य के अनुसार भारत सरकारी स्कूलों के माध्यम से शिक्षा देने वाला सबसे बड़ा देश है। किंतु दुर्भाग्यवश एक कटुसत्य यह है कि हमारे देश में प्राथमिक शिक्षा की स्थिति नितांत चिंताजनक है। यद्यपि प्राथमिक शिक्षा हेतु शासन के स्तर से भारत के लगभग प्रत्येक गांव को एक सरकारी विद्यालय उपलब्ध कराया गया है, किंतु विभिन्न ऐसे कारक हैं जिसकी वजह से ये विद्यालय उन्नत दशा को प्राप्त करने में पूर्णतया अक्षम हैं। सरकारी विद्यालयों की प्रमुख समस्याओं में एक समस्या यह है कि हमारे यहां समाज के जनमानस के मन में यह धारणा बैठी हुई है कि सरकारी विद्यालय मात्र निर्धन, अपवंचित एवं जागरूकताविहीन वर्ग हेतु निर्मित किए गए हैं। यह धारणा विद्यालयों में विद्यार्थियों की संख्या व स्थिति के रूप में स्पष्टत: दृष्टिगोचर होती है। सत्य तो यह है कि इन विद्यालयों में उन्हीं परिवारों के बच्चे प्रवेश लेते हैं, जो महंगे शुल्क का बोझ उठाने में समर्थ नहीं हैं। कोई भी ऐसा अभिभावक जो आर्थिक रूप से सम्पन्न एवं सामाजिक रूप से जागरूक है, अपने बच्चे को सरकारी विद्यालय में शिक्षा ग्रहण करने हेतु कदापि भेजना नहीं चाहता। तथाकथित उच्च श्रेणी के निजी विद्यालयों में अपने बच्चे को प्रवेश दिलाकर उसकी प्रसन्नता व आत्मसंतुष्टि का स्तर वही होता है जोकि किसी बड़ी उपलब्धि को हासिल कर लेने पर हुआ करता है। हमारे दृष्टिकोण की इस कमजोरी को निजी स्कूलों के व्यापारियों ने भलीभांति पहचान लिया है, नतीजतन वे इसका जमकर लाभ उठाते हैं। बाहरी रंगरूप, चकाचौंध एवं तड़क-भड़क के बल पर निजी स्कूल सरकारी विद्यालयों पर भारी पड़ते हैं, जिसका कुप्रभाव सरकारी विद्यालयों में दिन-प्रतिदिन न्यून होती विद्यार्थियों की संख्या के रूप में दिखाई पड़ता है। यद्यपि एक दूसरी समस्या के रूप में यहां पर यह उल्लेखनीय है कि भारत में अधिकतम सरकारी विद्यालय बुनियादी सुविधाओं के मामले में गुणवत्ता से सर्वथा विहीन हैं। न जाने कितने विद्यालय ऐसे हैं, जहां शिक्षणकक्ष, श्यामपट्ट, शौचालय, पेयजल, बैठने की व्यवस्था इत्यादि नितांत दयनीय अवस्था में विद्यमान हैं। और तो और, इन अव्यवस्थाओं के प्रति कोई भी अपना ध्यान केंद्रित करना नहीं चाहता। लिहाजा यही अव्यवस्थाएं सरकारी विद्यालयों के प्रति समाज के उपेक्षापूर्ण दृष्टिकोण का कारण बन जाती हैं। अपने बच्चे को निर्धन परिवारों के बच्चों के साथ बैठाने तथा मध्यम या निम्नस्तरीय बुनियादी सुविधाओं एवं हिंदी माध्यम से युक्त शिक्षा प्रदान करने में समाज का एक बड़ा वर्ग हीनभावना का अनुभव करता है। यही हीनभावना तथाकथित हाई स्टैंडर्ड निजी स्कूलों के कारोबार को फलीभूत करने में एक बड़ा योगदान करती है। एक अन्य समस्या जोकि सरकारी विद्यालयों में विद्यमान है, वो यह कि विद्यालयों का एक अच्छा खासा प्रतिशत ऐसा है जहां पर्याप्त संख्या में शिक्षक नहीं हैं। परिणामस्वरूप, एकल शिक्षक के लिए उसकी नौकरी कर्तव्यनिर्वहन के स्थान पर तनावपूर्ण औपचारिकता का रूप ले लेती है। दुष्परिणाम यह होता है कि, ऐसे विद्यालयों में शिक्षण तो हो सकता है किंतु अधिगम का सर्वथा अभाव रहता है। कई अभ्यर्थी ऐसे होते हैं जो उच्चशिक्षित होते हैं किंतु अपने दुर्भाग्य अथवा दोषपूर्ण कार्यप्रणालीयुक्त तंत्र के कारण अपनी योग्यतानुरूप नौकरी न पाकर, प्राथमिक शिक्षा के क्षेत्र में पहुंच जाते हैं। ऐसी स्थिति में वे कुंठा व हीनता से ओतप्रोत, रहने के कारण अपने कर्तव्य का निर्वहन कुशलतापूर्वक नहीं कर पाते। हमारी व्यवस्था की एक सबसे बड़ी कमी यह है कि शिक्षकों को शिक्षण के अतिरिक्त अनेक ऐसे कार्य सौंप दिए जाते हैं, जिनका शिक्षक से तनिक भर भी लेना देना नहीं होता है, उदाहरणार्थ- जनगणना में ड्यूटी, चुनाव में ड्यूटी, पल्स पोलियो में ड्यूटी इत्यादि। ऐसी स्थिति में शिक्षक पूर्णरूपेण शिक्षण पर केंद्रित नहीं रह पाता एवं उसकी कार्यकुशलता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।
प्राथमिक शिक्षा भविष्य निर्माण की प्रथम सीढ़ी है। इसके माध्यम से बालक में कौशल, रचनात्मकता एवं समझ का विकास होता है। बालक का मस्तिष्क एक कोरे कागज की तरह होता है जिस पर कुछ लिखना अत्यंत आसान होता है। हमें इस सत्य को स्वीकारना होगा कि हमारे देश में प्राथमिक शिक्षा ( विशेषत: सरकारी विद्यालयों में ) अव्यवस्थाओं एवं इस कारण उपेक्षाओं का शिकार हो रही है। इसकी गुणवत्ता को सुधारने के लिए शासन, समाज एवं व्यक्तिगत स्तर से सार्थक प्रयास किये जाने की महती आवश्यकता है। विद्यालयों में बुनियादी भौतिक सुविधाएं उपलब्ध कराना, शिक्षकों की समस्याओं का त्वरित निराकरण एवं उन्हें शिक्षणकार्य तक ही सीमित रखना तथा विभिन्न जागरूकता कार्यक्रमों के माध्यम से सरकारी विद्यालयों के प्रति समाज के दृष्टिकोण को बदलने का प्रयास इत्यादि कुछ ऐसे कदम हैं जिन्हें उठाकर सरकारी विद्यालयों की एवं प्राथमिक शिक्षा की स्थिति को बेहतर बनाया जा सकता है।