पूर्व सीजेआई चन्द्रचूड़ के गले की फांस बना तीस्ता सीतलवाड़ को जमानत देना

Granting bail to Teesta Setalvad became a noose around the neck of former CJI Chandrachud

संजय सक्सेना

भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश डी. वाई. चंद्रचूड़ के कार्यकाल में कई महत्वपूर्ण और विवादास्पद निर्णय सामने आए, जिन्होंने भारतीय न्यायपालिका और समाज पर गहरा प्रभाव डाला। उनके कुछ निर्णयों और दृष्टिकोणों ने सार्वजनिक बहस को जन्म दिया है, 2002 के गुजरात दंगों से संबंधित मामलों में साक्ष्य गढ़ने और गवाहों को प्रभावित करने के आरोप में जेल में बंद तीस्ता सीतलवाड़ को जमानत देना पूर्व न्यायाधीश के लिये गले की फांस बनता नजर आ रहा है,क्योंकि यह मामला राष्ट्रपति के पास एक शिकायत के रूप में पहुंच चुका है,जिसकी जांच का आदेश भी राष्ट्रपति ने कानून मंत्रालय को दे दिया है।

तीस्ता सीतलवाड़ पर 2002 के गुजरात दंगों से संबंधित मामलों में साक्ष्य गढ़ने और गवाहों को प्रभावित करने के आरोप हैं। गुजरात हाईकोर्ट ने 1 जुलाई 2023 को उनकी जमानत याचिका खारिज करते हुए उन्हें तुरंत आत्मसमर्पण करने का आदेश दिया था । हालांकि, सुप्रीम कोर्ट ने उसी दिन रात में एक विशेष सुनवाई में हाईकोर्ट के आदेश पर रोक लगाते हुए उन्हें अंतरिम राहत दी। इतना ही नहीं तीस्ता को जमानत मामले की सुनवाई के लिये पहले दो जजो की बेंच बनाई गई,लेकिन इसमें से जब एक जज ने सवाल खड़ा किया कि इतनी जल्दी क्या है जमानत देने की तो मामला फंसता देख तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश ने तीन चचों की बेंच बना दी जिसने तीस्ता को जमानत दे दी।

सुप्रीम कोर्ट की तीन-न्यायाधीशों की पीठ, जिसमें जस्टिस बी.आर. गवई, ए.एस. बोपन्ना और दीपांकर दत्ता शामिल थे, ने गुजरात हाईकोर्ट के आदेश को पूर्णतः विकृत और विरोधाभासी करार दिया। पीठ ने यह भी कहा कि सीतलवाड़ की हिरासत में पूछताछ की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि अधिकांश साक्ष्य दस्तावेजी हैं और पहले ही जांच एजेंसी के पास हैं

एक पूर्व न्यायाधीश ने राष्ट्रपति को भेजी गई शिकायत में आरोप लगाया है कि सुप्रीम कोर्ट का यह निर्णय न्यायिक प्रक्रिया के मानकों के खिलाफ है और इससे न्यायपालिका की साख पर प्रश्नचिह्न लगता है। उन्होंने यह भी आरोप लगाया कि मुख्य न्यायाधीश चंद्रचूड़ ने व्यक्तिगत रूप से इस मामले में हस्तक्षेप किया, जिससे न्यायिक निष्पक्षता पर संदेह उत्पन्न होता है। शिकायतकर्ता का कहना है यह मामला न्यायपालिका की स्वतंत्रता, न्यायिक प्रक्रिया की पारदर्शिता और कार्यपालिका के साथ उसके संबंधों पर व्यापक बहस को जन्म दे सकता है। राष्ट्रपति को भेजी गई शिकायत इस दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम हो सकती है, जो न्यायपालिका की जवाबदेही और पारदर्शिता सुनिश्चित करने की दिशा में मार्ग प्रशस्त कर सकती है। चन्द्रचूड़ के अन्य विवादित फैसलों की बात की जाये तो तस्वीर और भी साफ हो जाती है।2018 में, सुप्रीम कोर्ट की एक पांच-न्यायाधीशों की पीठ ने 4-1 के बहुमत से आधार योजना को संवैधानिक घोषित किया। हालांकि, न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने अपने 481 पृष्ठों के असहमति वाले निर्णय में आधार अधिनियम को संविधान पर धोखाष्करार दिया। उन्होंने कहा कि इस अधिनियम को मनी बिल के रूप में पारित करना द्विसदनीयता के सिद्धांत का उल्लंघन है और यह नागरिकों की गोपनीयता के अधिकार का हनन करता है।

2018 में, भीमा कोरेगांव हिंसा के सिलसिले में पांच सामाजिक कार्यकर्ताओं की गिरफ्तारी हुई। जब सुप्रीम कोर्ट में इस मामले की सुनवाई हुई, तो न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने असहमति जताते हुए कहा कि पुलिस जांच में पक्षपात की संभावना है और एक स्वतंत्र विशेष जांच दल का गठन होना चाहिए। उन्होंने मीडिया में जांच से संबंधित जानकारी के लीक होने को भी जांच की निष्पक्षता पर संदेह उत्पन्न करने वाला बताया।2018 में, सुप्रीम कोर्ट ने केरल के सबरीमाला मंदिर में 10 से 50 वर्ष की आयु की महिलाओं के प्रवेश पर प्रतिबंध को असंवैधानिक घोषित किया। न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने इस निर्णय में सहमति व्यक्त की, लेकिन उन्होंने असैनसियल रीजनल प्रैक्टिस के सिद्धांत पर पुनर्विचार की आवश्यकता जताई। उन्होंने कहा कि धर्म के नाम पर महिलाओं के साथ भेदभाव करना संविधान के अनुच्छेद 17 (अस्पृश्यता का उन्मूलन) का उल्लंघन है।

2023 में, सुप्रीम कोर्ट ने समलैंगिक विवाह को कानूनी मान्यता देने से इनकार कर दिया। हालांकि, मुख्य न्यायाधीश चंद्रचूड़ ने अपने आंशिक असहमति वाले निर्णय में कहा कि समलैंगिक जोड़ों को नागरिक संघ (बपअपस नदपवद) और गोद लेने का अधिकार मिलना चाहिए। उन्होंने यह भी कहा कि स्ळठज्फप्।$ समुदाय के अधिकारों की रक्षा करना राज्य की जिम्मेदारी है।2017 में, सुप्रीम कोर्ट ने एक ऐतिहासिक निर्णय में गोपनीयता को मौलिक अधिकार घोषित किया। न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने इस निर्णय में कहा कि गोपनीयता का अधिकार संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत संरक्षित है और यह व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अभिन्न हिस्सा है। इस निर्णय ने बाद में धारा 377 को असंवैधानिक घोषित करने का मार्ग प्रशस्त किया।

2019 में, सुप्रीम कोर्ट ने निर्णय दिया कि मुख्य न्यायाधीश का कार्यालय सूचना के अधिकार अधिनियम यान आरटीआई के तहत आता है। न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने इस निर्णय में सहमति व्यक्त करते हुए कहा कि न्यायपालिका की पारदर्शिता और स्वतंत्रता एक-दूसरे के विरोधी नहीं हैं, बल्कि दोनों एक साथ चल सकते हैं। 2024 में, सुप्रीम कोर्ट ने अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय ( के अल्पसंख्यक दर्जे पर पुनर्विचार करते हुए कहा कि किसी संस्थान की स्थापना अल्पसंख्यक समुदाय द्वारा की गई हो, तो उसे अल्पसंख्यक संस्थान माना जा सकता है। इस निर्णय ने 1967 के अज़ीज़ बाशा मामले को पलट दिया।