कृतज्ञता-संस्कृति से संवरती है जिन्दगी

Gratitude-culture improves life

ललित गर्ग

हर साल नवंबर के चौथे गुरुवार को अमेरिका समेत कई देशों में थैंक्सगिविंग डे यानी धन्यवाद दिवस, कृतज्ञता दिवस मनाया जाता है। थैंक्सगिविंग आधिकारिक तौर पर छुट्टियों के मौसम की शुरुआत का प्रतीक होता है, जिसे जर्मनी, ब्राजील, कनाडा, जापान और अन्य देशों में भी मनाया जाता है। अमेरिका में इस दिन को क्रिसमस की ही तरह धूमधाम से मनाया जाता है। इस दिन लोग एक-दूसरे का शुक्रिया अदा करते हुए आने वाले साल के लिए सुखद, स्वस्थ, समृद्ध एवं खुशहाल होने की दुआ करते हैं। यह दिन उत्तरी अमेरिका का एक पारंपरिक त्योहार है, जो एक तरह का फसल पर्व है। अधिकांश धर्मों में फसल कटने के बाद धन्यवाद की प्रार्थना और विशेष धन्यवाद समारोह आम बात है। इस दिन को मनाने का मकसद किसी अपने या अनजान व्यक्ति द्वारा की गई किसी भी तरह की मदद या सहयोग के लिए उनका शुक्रिया अदा करना है। इस दिन आप खास अंदाज में उन्हें शुक्रिया कह सकते हैं। आमतौर पर लोग इस दिन को अपने परिवार और दोस्तों के साथ सेलिब्रेट करते हुए अपने घरों में पारंपरिक भोजन का एक साथ आनंद लेते हैं। थैंक्सगिविंग डे को मनाने की शुरुआत पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति फ्रेंकलिन डी रूसवेल्ट द्वारा साल 1939 में की गई थी, जिसे बाद में साल 1941 में अमेरिकी कांग्रेस ने मान्यता दी थी।

कृतज्ञता जरूरी है। सभी धर्मों में कृतज्ञता का एक महत्वपूर्ण स्थान है। कृतज्ञता धार्मिक और सांस्कृतिक सीमाओं को पार करती है। सिसरो से लेकर बुद्ध तक और अन्य कई दार्शनिक व आध्यात्मिक शिक्षकों ने भी कृतज्ञता को भरपूर बांटा है और उससे प्राप्त खुशी को उत्सव की तरह मनाया है। दुनिया के सभी बड़े धर्म हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई और बौद्ध मानते हैं कि किसी के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करना एक भावनात्मक व्यवहार है और अंत में इसका अच्छा प्रतिफल प्राप्त होता है। बड़े-बड़े पादरी और पंडितों ने इस विषय को लेकर बहुत-सा ज्ञान बांटा है, लेकिन आज तक इन विद्वानों ने इसे विज्ञान का रूप नहीं दिया है। जबकि कृतज्ञता, धन्यवाद एवं शुक्रिया का बड़ा वैज्ञानिक महत्व भी है।

परोपकार एवं उपकार के प्रति आभार व्यक्त करना, कृतज्ञता एवं धन्यवाद ज्ञापित करना मानवीय मूल्य है। भले ही कृतज्ञता के पास शब्द नहीं होते, किन्तु साथ ही कृतज्ञता इतनी कृतघ्न भी नहीं होती कि बिना कुछ कहे ही रहा जाए। यदि कुछ भी न कहा जाए तो शायद हर भाव अव्यक्त ही रह जाए, इसीलिए ‘आभार’ मात्र औपचारिकता होते हुए भी कहीं गहराई में एक प्रयास भी है अपनी कृतज्ञता प्रकट करने का, अपने को सुखी और प्रसन्न बनाने का। किसी के लिए कुछ करके जो संतोष मिलता है उसे शब्दों में बयान नहीं किया जा सकता। फिर वह कड़कती ठंड में किसी गरीब को एक प्याली चाय देना ही क्यों न हो और उसके मन में ‘जो मिला बहुत मिला-शुक्रिया’ के भाव हों तो जिंदगी बड़े सुकून से जी जा सकती है, काटनी नहीं पड़ती।

अमेरिकी लोग दुनियाभर में कई रोज़मर्रा की स्थितियों में ‘धन्यवाद’ कहने के लिए जाने जाते हैं । हालाँकि इनमें से कुछ ‘धन्यवाद’ निस्संदेह दिल से कहे जाते हैं, लेकिन कई नियमित भी होते हैं और बिना किसी भावना के कहे जाते हैं। यह देखते हुए कि अमेरिकी कितनी बार ‘धन्यवाद’ कहते हैं, यह जानकर आश्चर्य हो सकता है कि दुनिया भर की कई अन्य संस्कृतियों में, लोग शायद ही कभी ‘धन्यवाद’ कहते हैं। भारतीय संस्कृति में कृतज्ञता को बहुत बड़ा गुण माना जाता है। भारतीय संस्कृति में बड़ों और गुरुओं का सम्मान करने पर ज़ोर दिया जाता है। महाभारत में कहा गया है कि उपकार को न याद रखने वाले कृतघ्न व्यक्ति का उद्धार नहीं होता। कृतज्ञता की भावना को बढ़ाने के लिए, खुशी को अपनाना चाहिए क्योंकि खुशी और कृतज्ञता एक-दूसरे को बढ़ाते और मज़बूत करते हैं। कृतज्ञता की भावना को बढ़ाने के लिए ध्यान, सकारात्मक चिंतन और कृतज्ञता के अभ्यास को अपनाने की बात कही गयी है। इस भावना को बढ़ाने के लिए रिश्तों, अनुभवों और जुड़ाव के क्षणों को महत्व देना चाहिए। कृतज्ञता की भावना को बढ़ाने के लिए, अपने कार्यों, विचारों एवं व्यवहारों का प्रभाव दूसरों पर भी पड़ता है, इस बात को समझने की अपेक्षा है।

हर व्यक्ति जितना अपने दुःखों से पीड़ित नहीं है, उससे ज्यादा वह दूसरों के सुखों से पीड़ित है। इसीलिये वह दुखी होता जारहा है। उसकी संकीर्ण मानसिकता एवं छोटी सोच का ही परिणाम है कि वह दुखों का सृजन करता है। इसके बावजूद वह सोचता है कि ऐसा मेरे साथ ही क्यों हुआ या फिर दुनिया के सारे दर्द मेरे लिए ही क्यों बने हैं, जबकि अगर सोचा जाए तो महत्वपूर्ण यह नहीं होता कि आपके पास पीड़ाएं कितनी हैं, जरूरी यह होता है कि आप उस दर्द के साथ किस तरह खुश रह जाते हैं। इसलिए जो कुछ भी बचा है, उसे गले लगाएं बजाए कि खोए हुए का गम मनाने के। जब हमारी दिशाएं सकारात्मक होती है जो हम सृजनात्मक रच ही लेते हैं। हमें कृतज्ञ तो होना ही होगा, क्योंकि इसके बिना छोटी-छोटी तकलीफे भी पहाड़ जितनी बड़ी बन जाती है। एक जिंदगी जीता है, दूसरा उसे ढोता है। एक दुःख में भी सुख ढूंढ लाता है, दूसरा प्राप्त सुख को भी दुःख मान बैठता है। एक अतीत भविष्य से बंधकर भी वर्तमान को निर्माण की बुनियाद बनाता है, तो दूसरा अतीत और भविष्य में खोया रहकर वर्तमान को भी गंवा देता है। इसी सोच ने पश्चिमी देशों में धन्यवाद दिवस को बड़ी व्यापकता दी है।

महान् दार्शनिक संत आचार्य महाप्रज्ञ ने कहा भी है कि यह बड़ी विचित्र बात है कि सद्गुण आदमी प्रयत्न करने पर भी जल्दी नहीं सीख पाता और दुर्गुण बिना किसी प्रयत्न के ही सीख लेता है, वैसे ही अच्छे बोल और मृदुभाषिता आदमी प्रयास करने पर भी जल्दी से नहीं सीख पाता और गाली तथा अपशब्द बिना प्रयास के ही सीख लेता है। इस प्रवृत्ति को बदलकर ही सुख पाने के प्रयत्न सफल हो सकते हैं। सोच को बदलना होगा, जिस संकीर्ण एवं विकृत सोच के साथ रहने से मन और भावों पर विपरीत प्रभाव पड़ रहा हो, वृत्तियां कलुषित और उच्छृंखल हो रही हों, जीवनशैली में विकृति आ रही हो, उनका साथ छोड़ देना ही हितकर है। वाल्मीकि ने रामायण में भी इस बात का उल्लेख किया है कि परमात्मा ने जो कुछ तुमको दिया है, उसके लिए उनके प्रति कृतज्ञता प्रकट करो। हालांकि इसका विज्ञान बस इस छोटे से वाक्य में समाहित है कि जितना आप देंगे, उससे कहीं अधिक यह आपके पास लौटकर आएगा, लेकिन इसे समझ पाना हर किसी के वश की बात नहीं है। ‘कितना दें और क्यों’ इस बात में बिल क्लिंटन ने देने का गणित बेहतर ढंग से समझाया है।

औरों में दोष देखने की छिद्रान्वेषी मनोवृत्ति कृतज्ञता-संस्कृति की बड़ी बाधा है। लोग हमेशा इस ताक में रहते हैं कि कौन, कहंा, किसने, कैसी गलती की। औरों को जल्द बताने की बेताबी उनमें देखी गई है, क्योंकि उनका अपना मानना है कि इस पहल में भरोसेमंद इंसान की पहचान यूं ही बनती है। यह भ्रामक सोच अनेक समस्याओं की जनक है। वास्तविकता यही है कि सुख प्राप्ति के लिए आदमी दुख के उत्पादन का कारखाना चला रहा है। अपने मिथ्या दृष्टिकोण के कारण वह दुख को जेनरेट कर रहा है। सुख को पाने की चाह है तो दृष्टिकोण को सम्यक बनाकर सुख प्राप्ति के अनुरूप कार्य करना होगा। हमारे पास दो रास्ते हैं या तो हम दीप हो जाएं, जो उसे दुगुना कर देता है, लेकिन इसके लिये कुछ सार्थक करना होता। धन से प्रेरित होकर नहीं, बल्कि मानवीय मूल्यों से प्रेरित होकर। क्योंकि बड़े-बड़े धन के अम्बार और महंगे साज-ओ-सामान के बजाय सार्थक संकल्प एवं कृतज्ञता का भाव जीवन को अधिक सुख देते हैं, प्रसन्न बनाते हैं।