
अशोक भाटिया
बिहार में जैसे-जैसे विधानसभा चुनाव नजदीक आ रहा है वैसे-वैसे अपराधियों के हौसले भी बुलंद होते जा रहे हैं। एक के बाद एक दो हत्याओं से राजधानी पटना में हड़कंप मचा हुआ है। मुख्यमंत्री से लेकर राज्य के सारे सियासतदान यहां निवास करते हैं। इसके बाद भी अपराधियों के हौसले कुछ इस तरह से बुलंद हैं कि दिन दहाड़े हत्याओं को अंजाम दिया जा रहा है। गोपाल खेमका हत्याकांड की गुत्थी सुलझी भी नहीं थी कि अब बदमाशों ने पारस अस्पताल में भर्ती चंदन मिश्रा को गोलियों से छलनी कर दिया।
चंदन मिश्रा हत्याकांड के बाद से बिहार में जंगलराज शब्द एक बार फिर चर्चा में आ गए हैं। तेजस्वी यादव समेत विपक्ष दल के नेता नीतीश सरकार को जंगलराज की याद दिला रहे हैं। उनका कहना है कि पहले गोपाल खेमका और फिर चंदन मिश्रा हत्याकांड को जिस तरह से अंजाम दिया उसने नीतीश कुमार के सरकार के सुशासन के दावों की पोल खोलकर रख दी है। विपक्षी दल के नेता इसके लिए सीधे तौर पर नीतीश सरकार को जिम्मेदार ठहरा रहे हैं। यहां तक कि एनडीए में शामिल दल भी बिहार के मौजूदा हालातों को लेकर नीतीश कुमार की पुलिस पर हमला बोलते नजर आ रहे हैं।
दरअसल बिहार में अन्य मुद्दों के साथ क्राइम बड़ा इश्यू रहा है। लालू यादव और राबड़ी देवी के शासनकाल को खासतौर पर बेलगाम अपराध के लिए जाना जाता है। लालू यादव के कार्यकाल को विरोधी अभी भी ‘जंगलराज’ कहते हैं। नीतीश कुमार और एनडीए के अन्य नेता अतीत में अक्सर ही इसका उल्लेख कर लालू यादव और राबड़ी देवी के शासनकाल का उल्लेख करते रहे हैं। अब बिहार में कुछ ही महीनों के बाद विधानसभा चुनाव होने हैं। दिलचस्प बात यह है कि इस बार ‘जंगलराज’ शब्द की चर्चा या उल्लेख न के बराबर हो रहा है। कभी नीतीश के तरकश में सबसे मारक तीर रहे जंगलराज को इस बार उतनी तवज्जो नहीं दी जा रही है। 18 जुलाई 2025 को मोतिहारी में हुए मेगा रैली में भी यह शब्द गुंजायमान नहीं हुआ। अब सवाल उठता है ऐसा क्यों? क्यों सीएम नीतीश और एनडीए के अन्य नेता इससे परहेज करने लगे हैं?
लगातार हो रही आपराधिक घटनाओं से स्वाभाविक तौर पर नीतीश सरकार की साख भी धुमिल हुई है। हर बात पर लालू-राबड़ी के कार्यकाल के जंगलराज की बात करने वाले अब इस शब्द का इस्तेमाल करने से बचने लगे हैं। शुक्रवार 18 जुलाई 2025 को मोतिहारी पीएम मोदी की बड़ी जनसभा थी। मंच पर मुख्यमंत्री नीतीश समेत कई दिग्गज नेता मौजूद थे। इनमें से कइयों ने अपनी बात भी रखी, पर जंगल राज का उल्लेख नहीं किया गया। जो कभी नीतीश कुमार की तरकश का सबसे बड़ा तीर हुआ करता था वो अब नदारद है। इससे सियासी गलियारों में चर्चाओं का दौर भी गरम है। बता दें कि लालू यादव और उनकी पत्नी राबड़ी देवी जब बिहार के मुख्यमंत्री थे, तब प्रदेश में अपराध अपने चरम पर था। आमलोगों को इससे काफी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता था।
‘जंगलराज’ बिहार में सबसे बड़ा राजनीतिक मुद्दा रहा है। लालू यादव को अक्सर ही इसके लिए जिम्मेदार ठहराया जाता है। अब दूसरा सवाल यह है कि क्या ‘जंगलराज’ वाला मुद्दा नीतीश कुमार से छिन गया है। दरअसल, पिछले कुछ समय से बिहार में हो रही आपराधिक घटनाओं का असर प्रदेश की राजनीति पर स्पष्ट रूप से देखा जा रहा है। पारस अस्पताल में घुसकर इलाजरत सजायाफ्ता गैंगस्टर की हत्या ने कानून-व्यवस्था पर एक बार फिर से सवाल उठाया है। विपक्षी नेता तेजस्वी यादव ने इसको लेकर नीतीश सरकार पर हमला बोला है। उन्होंने एक्स पर पोस्ट किया, ‘पुलिस का इकबाल क्षय, अधिकारी बने रंक। गुंडे बने विजय व अपराधी बने सम्राट। अस्पताल में घुसकर बेख़ौफ़ अपराधियों में गोली मारी।’ तो क्या चुनावी माहौल में ‘जंगलराज’ नाम का तीर नीतीश कुमार के तरकश से गायब हो गया है? यह तो आनेवाला समय ही बताएगा, पर फिलहाल विपक्षियों के हाथ में बड़ा मुद्दा लग गया है।
नीतीश कुमार, जो ‘सुशासन’ का वादा करके सत्ता में आए थे, अब खुद को एक ऐसे राज्य की अध्यक्षता करते हुए पाते हैं जो अराजकता की ओर वापस मुड़ता दिख रहा है। ऐसा लगता है कि उनके लगातार यू-टर्न, स्वास्थ्य संबंधी मुद्दों और सार्वजनिक नासमझियों ने उनके प्रशासनिक अधिकार और उनके मतदाताओं के विश्वास को खत्म कर दिया है।जैसे-जैसे 2025 का विधानसभा चुनाव नज़दीक आ रहा है, अपराध का बढ़ता ज्वार जेडी (यू), भाजपा और एनडीए के अन्य सहयोगियों के लिए एक गंभीर राजनीतिक चुनौती प्रस्तुत करता जा रहा है। तेजस्वी यादव लगातार खुद को फिर से स्थापित कर रहे हैं, जबकि नीतीश कुमार की ‘सुशासन बाबू’ के रूप में मजबूत छवि लड़खड़ा रही है। अराजकता का पुनरुत्थान एनडीए के सबसे शक्तिशाली चुनावी हथियारों में से एक – राजद के खिलाफ “जंगल राज” कथा को कुंद कर रहा है। जैसे-जैसे डर सड़कों पर लौटता है, अतीत और वर्तमान के बीच की रेखाएं धुंधली होने लगती हैं, जिससे एनडीए ने अपनी राजनीतिक अपील के विपरीत बहुत ही कमजोर कर दिया है।
1990 के दशक में बिहार की ग्रामीण, जाति-संचालित हिंसा के विपरीत, आज का अपराध तेजी से शहरी है, और बढ़ती गरीबी, बेरोजगारी और सामाजिक हताशा से प्रेरित लगता है। सरकार की प्रतिक्रिया सूत्रबद्ध रही है: दोषारोपण का खेल, निलंबन और “सख्त कार्रवाई” के खोखले आश्वासन। लेकिन कानून और व्यवस्था सिर्फ पुलिस का मुद्दा नहीं है बल्कि इसके लिए राजनीतिक इच्छाशक्ति की जरूरत है। अगर ऐसा ही चलता रहा तो नीतीश जनता का भरोसा खो सकते हैं, खासकर महिला मतदाता। उनकी निषेध नीति ने उन्हें अपनी सद्भावना अर्जित की थी, लेकिन बढ़ती असुरक्षा इसके विपरीत कर सकती है। एक अन्य प्रमुख निर्वाचन क्षेत्र, युवा, जिन्हें लालू के कथित ‘जंगल राज’ की ज्यादा याद नहीं है, एक जटिल वास्तविकता का सामना कर रहे हैं। सुरक्षा कोई विलासिता नहीं है – यह एक बुनियादी अधिकार है।
राहुल गांधी ने राज्य सरकार पर “संरक्षण पर स्थिति” को प्राथमिकता देने का आरोप लगाया है, यह दावा करते हुए कि जब बिहार जलता है, तो मंत्री आयोगों का पीछा करते हैं। अतिरंजित, हो सकता है, लेकिन यह एक निराश मतदाताओं के साथ एक राग पर प्रहार कर सकता है।
फिर भी, कुछ तथ्यों को अनदेखा करना अनुचित होगा। हाल के वर्षों में सजा दर में सुधार के साथ-साथ कुछ हाई-प्रोफाइल मामलों में तेजी से गिरफ्तारियां हुई हैं। नीतीश कुमार ने सभी घरों को 125 यूनिट मुफ्त बिजली देने का भी ऐलान किया है। महिलाओं के लिए नौकरी में आरक्षण और जाति-सर्वेक्षण संचालित योजनाओं जैसे कल्याणकारी उपायों ने गहरी सामाजिक असमानताओं को दूर करने का प्रयास किया है। लेकिन शासन केवल नीतिगत घोषणाओं से कहीं अधिक है।
फिर भी, वर्तमान स्थिति को केवल एक राजनीतिक गठबंधन या नेता के चरणों में नहीं रखा जा सकता है। संरचनात्मक कमजोरियां – जिनमें बड़े पैमाने पर बेरोजगारी, अंडर-पुलिसिंग और एक सुस्त न्याय प्रणाली शामिल है – सभी शासनों में फैल गई हैं। बिहार देश में सबसे अधिक युवा बेरोजगारी दर और सबसे कम प्रति व्यक्ति आय वाले राज्यों में से एक है। अवैध हथियारों की आसान उपलब्धता, प्रणालीगत पुलिस रिक्तियां और 3।7 मिलियन से अधिक लंबित अदालती मामले केवल स्थिति को खराब करते हैं।
नीतीश कुमार, जो आठ बार शीर्ष पर रहे हैं और 18 वर्षों से अधिक समय तक बिहार पर शासन कर चुके हैं, अक्सर एनडीए और महागठबंधन के बीच राजनीतिक निष्ठा बदलते समय, इन स्थायी प्रणालीगत विफलताओं के लिए जिम्मेदारी भी साझा करनी चाहिए। एनडीए सरकार की विफलताओं की जांच की जानी चाहिए, लेकिन विपक्ष के हमलों की भी बारीकी से जांच की जरूरत है। राजद की कानून-व्यवस्था की विरासत के आलोक में तेजस्वी यादव के ‘आपराधिक अव्यवस्था’ के आरोप खोखले लगते हैं। इसी तरह, राहुल गांधी द्वारा भाजपा की आलोचना आसानी से कांग्रेस पार्टी की पिछली उदासीनता को नजरअंदाज कर देती है, खासकर जब यह लालू के साथ गठबंधन में थी।
स्वाभाविक है लगातार हो रही आपराधिक घटनाओं से परेशान नीतीश सरकार की साख भी धुमिल हुई है। हर बात पर लालू-राबड़ी के कार्यकाल के जंगलराज की बात करने वाले अब इस शब्द का इस्तेमाल करने से बचने लगे हैं। शुक्रवार 18 जुलाई 2025 को मोतिहारी पीएम मोदी की बड़ी जनसभा थी। मंच पर मुख्यमंत्री नीतीश समेत कई दिग्गज नेता मौजूद थे। इनमें से कइयों ने अपनी बात भी रखी, पर जंगल राज का उल्लेख नहीं किया गया। जो कभी नीतीश कुमार की तरकश का सबसे बड़ा तीर हुआ करता था वो अब नदारद है। इससे सियासी गलियारों में चर्चाओं का दौर भी गरम है।
अशोक भाटिया, वरिष्ठ स्वतंत्र पत्रकार ,लेखक, समीक्षक एवं टिप्पणीकार