डॉ. अशोक कुमार भार्गव, आईएएस
आज हिंदी दिवस है। हिंदी के प्रति अपनी निष्ठा, वचनबद्धता, ममत्व, लगाव और भावनात्मक जुड़ाव प्रकट करने का दिवस । हिंदी के प्रचार, प्रसार, विकास और विस्तार के लिए संकल्प लेने का दिवस। विश्व भर में हिंदी के प्रति चेतना जागृत करने हिंदी हितैषियों लेखकों, रचनाधर्मियों और साहित्यकारों की श्रेष्ठता को सम्मानित करने दिवस। इसके साथ ही हिंदी की वर्तमान स्थिति का सिंहावलोकन कर उसकी प्रगति पर चिंतन, मनन करने का स्मारक दिवस भी है। भारतेंदु जी ने कभी बड़ी गहराई में उतर कर लिखा था। “निज भाषा उन्नति अहै सब उन्नति को मूल, पै निज भाषा ज्ञान के, मिटे न हिय को सूल। निःसंदेह है किसी भी राष्ट्र के विकास की बुनियाद उसकी निजी भाषा की श्री संपन्नता में ही निहित होती है। विदेशी भाषा ‘हिय के सूल’ की अभिव्यक्ति में समर्थ नहीं होती। हमारी निजी संस्कृति सभ्यता परंपरा हर्ष उल्लास दर्द और व्यथा की मूल चेतना की वास्तविक अभिव्यक्ति निजी भाषा में ही संभव सकती है। इसीलिए भाषा हमारी अस्मिता की पहचान होती है जिसमें हमारे राष्ट्र का सामूहिक स्वर मुखरित होता है। जिस प्रकार राष्ट्रीय एकता अखंडता के प्रतीक स्वरूप राष्ट्रीय ध्वज राष्ट्रगीत संविधान और निश्चित भू-भाग अपरिहार्य होता है ठीक उसी प्रकार राष्ट्र के वैविध्य को भावनात्मक एकता के सूत्र में गुंफित करने के लिए एक राष्ट्रभाषा की आवश्यकता होती है जो व्यापक स्तर पर बोलने सुनने समझने लिखने पढ़ने और राष्ट्रीय, अंतरराष्ट्रीय संपर्क, राजकीय कामकाज तथा विभिन्न भाषा, भाषियों के मध्य विचारों के आदान-प्रदान की युक्ति मात्र ही नहीं होती वरन राष्ट्र की सामासिक संस्कृति, राष्ट्रीय स्वाभिमान और आत्म गौरव की भावना भी सृजित करती है। निसंदेह इस पृष्ठभूमि में सदियों से हिंदी राष्ट्र भाषा के गौरव के लिए सर्वथा उपयुक्त रही है।
भारत की आजादी के पूर्व हिंदी मध्यकालीन भक्ति आंदोलन की भाषा रही जिसने तत्कालीन दिशाहीन समाज को नई चेतना और नई रोशनी दी। संतों की अमृतवाणी ने सांस्कृतिक विष को पचाने का संबल दिया। देश के सभी धार्मिक और सामाजिक सुधार आंदोलनों की भाषा भी हिंदी रही और स्वाधीनता संग्राम की पूर्णाहुति में हिंदी का अवदान अद्वितीय रहा। हिंदी केवल हिंदुओं की ही नहीं वरन मुसलमानों की भी भाषा रही और गैर हिंदी भाषियों ने भी हिंदी को श्री संपन्न किया। हिंदी प्रदेशों के साथ ही देश के दूरस्थ अंचलों में बिखरे हुए जन जन की संपर्क भाषा भी रही। जिन की मातृभाषा हिंदी नहीं थी वे भी भली-भांति हिंदी बोलते समझते है। ।यही नहीं अंग्रेजी और चीनी के बाद हिंदी ही देश में सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषा रही। भारतीय संविधान सभा ने 14 सितंबर 1949 को हिंदी की राष्ट्रभाषा घोषित न करते हुए अनुच्छेद 343 में लिखा कि संघ की सरकारी भाषा देवनागरी लिपि में हिंदी होगी और संघ के सरकारी प्रयोजनों के लिए भारतीय अंकों का अंतरराष्ट्रीय रूप होगा किन्तु अधिनियम के खंड 2 में यह प्रावधान किया गया कि इस संविधान के लागू होने के समय से 15 वर्ष की अवधि तक संघ के उन सभी प्रयोजनों के लिए अंग्रेजी का प्रयोग होता रहेगा जिसके लिए इसके लागू होने से तुरंत पूर्व होता था। अनुच्छेद की धारा 3 में व्यवस्था की गई संसद उक्त 15 वर्ष की कालावधि के पश्चात विधि द्वारा (क) अंग्रेजी भाषा का अथवा अंकों के देवनागरी रूप का ऐसे प्रयोजन के लिए प्रयोग उपबंधित कर सकेगी जैसे कि ऐसी विधि में उल्लिखित हो। इसके साथ ही अनुच्छेद 1 के अधीन संसद की कार्यवाही हिंदी अथवा अंग्रेजी में संपन्न होगी। 26 जनवरी 1965 के पश्चात संसद की कार्रवाई केवल हिंदी (और विशेष मामलों मैं मातृभाषा) में ही निष्पादित होगी बशर्ते संसद कानून बनाकर कोई अन्यथा व्यवस्था न करें। संविधान के अनुसार हिंदी को 1965 के बाद पूरी तरह राजकीय कार्य की भाषा बन जाना था किंतु राष्ट्रभाषा के संदर्भ में गठित खेर आयोग (1955) और पंत समिति (1957)के प्रतिवेदनो पर विचार करने के बाद 1963 में बनाए गए राजभाषा अधिनियम के अनुसार ऐसी व्यवस्था कर दी गई कि 26 जनवरी 1965 के पश्चात भी अंग्रेजी राजकाज की भाषा बनी रहेगी। 1967 में इसे संशोधित किया गया और कहा गया कि हिंदी ही संघ की राजभाषा होगी किंतु अंग्रेजी के प्रयोग की छूट तब तक बनी रहेगी जब तक हिंदी को राजभाषा के रूप में अपनाने वाले सभी राज्यों के विधान मंडल अंग्रेजी को समाप्त करने के लिए संकल्प न पारित करें। स्पष्ट है कि विधेयक के अनुसार अंग्रेजी का प्रयोग अनंत काल तक किया जा सकेगा। किसी निश्चित अवधि का उल्लेख वहां नहीं है। यदि एक भी राज्य हिंदी का प्रयोग न चाहे तब भी हिंदी राजकाज की अनिवार्य भाषा नहीं हो सकेगी।
संसद में इस संशोधन विधेयक का सेठ गोविंद दास ने प्रबलता से विरोध किया। बकौल सर्वेश्वर दयाल सक्सेना ” वे छीनने आए हैं हमसे हमारी भाषा/ उल्लुओं की जबान में/ कोयल गा सकती है तो गाए/ जिसे सिखाना हो उसे सिखाए/ हमारे पास बहुत कम वक्त शेष है /एक गलत भाषा में /गलत बयान देने से /मर जाना बेहतर है /यही हमारी टेक है। संविधान में निर्देशित 15 वर्ष की अवधि में यह अपेक्षा की गई थी कि सभी राज्य अपनी राजभाषा में कार्य करेंगे। उन प्रांतों में शिक्षा का माध्यम वहां की राजभाषा होगी और एक राज्य से दूसरे राज्य संपर्क के लिए राष्ट्रभाषा हिंदी का प्रयोग करेंगे। इस प्रकार प्रत्येक राज्य की अपनी भाषा के साथ राष्ट्रभाषा भी विकसित होगी। परंतु दुर्भाग्य से यह संभव नहीं हो सका। और संविधान में निर्देशित 15 वर्ष की अवधि बीतने पर भी हिंदी राष्ट्रभाषा के रूप में सर्वमान्य नहीं हो सकी। इस राष्ट्र के आराध्य प्रभु श्री राम को 14 वर्ष का वनवास मिला था और पांडवों का 12 वर्ष का किंतु हिंदी को 15 वर्ष का वनवास मिला। आजादी के 75 वर्ष बीत गए अमृत काल प्रारंभ हो गया किंतु हिंदी का राष्ट्रभाषा के पथ पर पदासीन होने का वनवास समाप्त नहीं हुआ। हिंदी की यह यात्रा ‘सौ दिन चले अढ़ाई कोस’ की रही।इस दिशा में एक कठिनाई हिंदी के विकास से संबंधित भी है। आरोपित है कि हिंदी अंतरराष्ट्रीय ज्ञान की खिड़की नहीं है। उसमें ज्ञान विज्ञान तकनीकी शब्दावली और अकादमिक स्तर पर संदर्भ कोश का अभाव है। और एक कठिनाई गैर हिंदी राज्यों के हिंदी विरोध से संबंधित है जो हिंदी के पद आसीन होने पर हिंदी साम्राज्यवाद का कथित खतरा देखते हैं और अपने हितों को असुरक्षित समझते हैं। दुर्भाग्यवश वर्तमान स्थिति इतनी संवेदनशील हो गई है कि राष्ट्रभाषा के प्रश्न को गैर राजनीतिक ढंग से सोचना ही संभव प्रतीत नहीं होता। हिंदी विरोध ने राजनीतिक अस्त्र का रूप धारण कर लिया है। अंग्रेजों की फूट डालो और राज करो की दूषित मानसिकता ने हिन्दी के नाम पर भारतीय समाज को विघटित करने का राजनीतिक षड्यंत्र किया। भाषावाद क्षेत्रवाद अलगाव और संकीर्ण दृष्टिकोण को हवा दी। अंग्रेजी का प्रभुत्व कायम किया। निस्संदेह गुलामी की जंजीरें टूट गई है किंतु अंग्रेजी और अंग्रेजियत के रूप में हमारे मनोजगत में दास्तां के चिन्ह आज भी विद्यमान हैं।
हिंदी राष्ट्रभाषा के गौरव से वंचित है। हिंदी अपनी सहजता सरलता बोधगम्यता और वैज्ञानिकता की वजह से सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषा है। देश में 2011की जनगणना अनुसार 43.63 प्रतिशत से अधिक लोग हिंदी बोलते हैं। पूरे विश्व में 80 करोड़ से अधिक लोग हिंदी बोलते हैं। किंतु अंग्रेजी के प्रति मोह और आकर्षण ने हिंदी के मार्ग में अनेक कठिनाइयां निर्मित की है। अंग्रेजी को आज भी ज्ञान की अंतरराष्ट्रीय खिड़की, रोजगार की कुंजी और सफलता का द्वार तथा ‘स्टेटस सिंबल’ माना जाता है। जबकि हिंदी में ज्ञान विज्ञान के अपार कोष हैं, साहित्य की अमूल्य कृतियां हैं। वास्तविकता यह है कि मानवीय गरिमा के इतिहास को नई रोशनी और दिशा देने वाले जितने भी महान ग्रंथ हैं वे अंग्रेजी में नहीं लिखे गए। अंग्रेजी साहित्य की महत्वपूर्ण कृतियों की भूमिकाएं भी लेटिन भाषा में लिखी गई है। हिंदी साहित्य किसी भी दृष्टि से अंग्रेजी साहित्य से कमतर नहीं है। सूर तुलसी मीरा रसखान का रचनाधर्मी संसार गुणवत्ता की दृष्टि से अंग्रेजी साहित्य से ज्यादा समृद्ध है।भगवत गीता के एक एक श्लोक, रामचरित मानस की एक एक चौपाई , कबीर की साखियों और सूरदास के पदों पर अंग्रेजी का समग्र साहित्य न्यौछावर किया जा सकता है। हमारे देश की विभिन्न भाषाओं में ऐसे अनेक रचनाकार नाटककार कवि और व्यंग्यकार है जो किसी भी दृष्टि से अंग्रेजी साहित्यकार से कम नहीं हैं। किंतु फिर भी अंग्रेजी की अनिवार्यता के तिलिस्म ने हिंदी को अपने ही घर में अजनबी और प्रवासिनि बना दिया है अर्थात रानी भई अब दासी, दासी अब महरानी है। 17 अप्रैल 1977 धर्मयुग पत्रिका में श्री अटल बिहारी वाजपेई जी ने निम्न पंक्तियां उल्लिखित की थी ‘बनने चली विश्व भाषा जो, अपने घर में दासी। सिंहासन पर अंग्रेजी को, लखकर दुनिया हांसी। लखकर दुनिया हांसी, हिंदी वाले हैं चपरासी।अफसर सारे अंगरेजीमय अवधि हों मद्रासी। कह कैदी कविराय, विश्व की चिंता छोड़ो। पहले घर में अंग्रेजी के गढ़ को तोड़ो।’
वैश्वीकरण के इस युग में हिंदी भाषा के प्रयोग में परिवर्तन परिलक्षित हुआ है। विश्व में हिंदी के लिए उपयुक्त वातावरण तैयार करने तथा हिंदी को अंतरराष्ट्रीय भाषा के रूप में स्थापित करने के उद्देश्य से 10 जनवरी 1975 को नागपुर में प्रथम विश्व हिंदी सम्मेलन आयोजित किया गया और उसके बाद निरंतर विश्व हिंदी सम्मेलन आयोजित किए जा रहे हैं। 10 जनवरी को विश्व हिंदी दिवस भी मनाया जा रहा है। यही कारण है कि आज विश्व के 180 से अधिक विश्वविद्यालयों में हिंदी अध्यापन प्रारंभ हुआ है। साहित्य की दृष्टि से हिंदी में गुणात्मक और मात्रात्मक दृष्टि से उच्चतम साहित्य सृजित किया जा रहा है। हिंदी अब विभिन्न भाषाओं में अनुवाद का महत्वपूर्ण माध्यम बन गई है। समाचार पत्रों की दृष्टि से भी हिंदी पाठकों की संख्या बहुत विशाल है। आधुनिक इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों कंप्यूटर मोबाइल आईपैड व्हाट्सएप टि्वटर आदि में अपेक्षाकृत हिंदी का प्रयोग बढ़ रहा है। सोशल मीडिया इंटरनेट और गूगल पर हिंदी लिखने बोलने और सुनने वालों की प्रभावी उपस्थिति हो रही है । पूरे देश में हिंदी की स्वीकार्यता व्यापक रूप से बढ़ रही है। मॉरीशस सूरीनाम त्रिनिदाद नेपाल बर्मा भूटान थाईलैंड दक्षिण अफ्रीका केन्या इंडोनेशिया सिंगापुर आदि देशों में हिंदी संपर्क भाषा के रूप में उभर रही है। यह हिंदी की वैश्विक स्वीकृति का प्रमाण है। हिंदी की इस ताकत को बाजार भी समझने लगा है और टीवी पर विदेशी चैनल हिंदी का उपयोग कर रहे हैं तथा अनेक बहुराष्ट्रीय कंपनियां अपने उत्पाद को बेचने के लिए आवश्यक सूचनाएं तथा उत्पादों के विज्ञापन आदि हिंदी में उपलब्ध करा रही हैं।वस्तुतः हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि हिंदी का विरोध किसी भारतीय भाषा से नहीं है उसका विरोध केवल अंग्रेजी से है वह भी अंग्रेजी के पठन-पाठन से नहीं बल्कि हिंदी के स्थान पर उसके प्रयोग से है।आज आवश्यकता इस बात की है कि हिंदी के लिए शोर मचाने की बजाय हिंदी को बचाने उसको समृद्ध बनाने उसके विकास विस्तार और प्रयोग के लिए निष्ठा पूर्वक कार्य करने की है। हिंदी भाषा की समृद्धि और विकास के लिए विश्व के श्रेष्ठतम साहित्य को हिंदी में अनुवाद करने की नई क्रांति की आवश्यकता है। धर्मयुग साप्ताहिक हिंदुस्तान आलोचना साहित्य संदेश जैसी साहित्यिक पत्रिकाओं को पुनर्जीवित कर बच्चों के लिए पश्चिमी कॉमिक्स के स्थान पर भारतीय परिवेश के मौलिक और स्तरीय बाल साहित्य के सृजन की महती आवश्यकता है। कंप्यूटर शब्दावली तथा हिंदी का मानक की बोर्ड बनाना चाहिए। हिंदी हमारी अस्मिता की पहचान है और इसे उजागर करने में हमें गर्व का अनुभव होना चाहिए। वैचारिक और व्यवहारिक दृष्टि से उचित यही है कि उदार द्रष्टिकोण अपनाते हुए हम अन्य भारतीय भाषाओं का सम्मान करें। हिंदी के व्याकरण और उसके भाषिक मूल्यों की रक्षा करते हुए उनकी विशेषताओं को परस्पर विश्वास और सहयोग के आधार पर आत्मसात करें क्योंकि अन्य भारतीय भाषाओं का साहित्य भी किसी भी दृष्टि से हिंदी से कमतर नहीं है। हिंदी का आकर्षक आभामंडल और अपार वैभव ‘ एक भाषा एक देश’ के आव्हान पर हिंदी को भविष्य की विश्व भाषा बनाने की दिशा में अग्रसर है ताकि भारत भारती का भाल विश्व प्रांगण में गर्वोन्नत हो सके।
(लेखक मप्र के पूर्व आईएएस अधिकारी हैं)