अफगानिस्तान से टूटी उम्मीदें, पाकिस्तान की रणनीति उल्टी पड़ी

Hopes from Afghanistan dashed, Pakistan's strategy backfired

अजय कुमार

अफगानिस्तान और पाकिस्तान के संबंधों में हाल के महीनों में जो तनाव देखने को मिला है, उसने पूरे दक्षिण एशियाई क्षेत्र को अस्थिरता की ओर धकेल दिया है। एक समय था जब दोनों देशों के बीच धार्मिक और सामरिक नजदीकियों के कारण गहरी सहानुभूति हुआ करती थी, लेकिन अब हालात इस हद तक बिगड़ गए हैं कि सीमाओं पर गोलाबारी और सैन्य टकराव की स्थिति उत्पन्न हो चुकी है। अफगानिस्तान में तालिबान सरकार के तीन साल पूरे होने के बाद पाकिस्तान के साथ उसकी विचारधारा आधारित दोस्ती अब एक गंभीर विवाद में बदल गई है, जो भविष्य में पूर्ण युद्ध का रूप भी ले सकती है।

तालिबान जब अगस्त 2021 में अमेरिकी सेना की वापसी के बाद दोबारा सत्ता में आया, तो पाकिस्तान ने सबसे पहले उसे मान्यता और सहयोग देने का विश्वास जताया। इस्लामाबाद को उम्मीद थी कि तालिबान की स्थायी सरकार उसकी “रणनीतिक गहराई” की अवधारणा को मजबूत करेगी और भारत को अफगानिस्तान से बाहर रखेगी। लेकिन वास्तविकता इसके ठीक उलट रही। तालिबान सरकार के गठन के बाद पाकिस्तान को अफगानिस्तान से न केवल सुरक्षा बल्कि वैचारिक चुनौतियों का भी सामना करना पड़ा। दोनों देशों के बीच सबसे बड़ा विवाद ‘तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान’ यानी टीटीपी को लेकर बढ़ा। पाकिस्तान सालों से इस संगठन पर अफगान सीमा से आतंकी हमलों का आरोप लगाता रहा है, जबकि तालिबान शासन इस आरोप को सिरे से खारिज करता है। अफगानिस्तान में सत्तारूढ़ तालिबान का कहना है कि पाकिस्तान की सेना और सरकार अपने अंदरूनी असंतोष को छुपाने के लिए अफगानिस्तान को निशाना बना रही है। वहीं पाकिस्तान दावा करता है कि अफगानिस्तान की जमीन से टीटीपी के उग्रवादी पाकिस्तान में सुरक्षाबलों पर लगातार हमले कर रहे हैं। पिछले कुछ महीनों में खैबर पख्तूनख्वा और बलूचिस्तान में दर्जनों सुरक्षाकर्मियों की मौत इसी वजह से हुई है। पाकिस्तान ने इस पर प्रतिक्रिया स्वरूप सीमा पार हवाई हमले भी किए, जिससे दोनों देशों के बीच रिश्ते अत्यधिक खराब हो गए। हालात इतने तनावपूर्ण हैं कि अब दोनों देशों की सीमाओं पर सैनिकों की अतिरिक्त तैनाती कर दी गई है।

अफगानिस्तान की तालिबान सरकार का नेतृत्व हक्कानी नेटवर्क जैसे कठोर तत्वों के हाथ में है, जो पाकिस्तान की नीतियों से असंतुष्ट माने जाते हैं। उनका मानना है कि पाकिस्तान ने वर्षों तक अफगानिस्तान की राजनीति में कठपुतली की भूमिका निभाई और अफगान जनता को अपने हितों के लिए बलिदान बनाया। तालिबान के प्रवक्ताओं ने कई बार यह बयान दिया है कि अब अफगानिस्तान किसी भी अन्य देश का ‘आदेश मानने वाला’ राष्ट्र नहीं रहेगा। ये बयान पाकिस्तान की सत्ता और सैन्य नेतृत्व के लिए असहज करने वाले हैं, क्योंकि अतीत में तालिबान पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आईएसआई के प्रभाव में काम करता रहा था।दिलचस्प बात यह है कि अफगानिस्तान के तालिबान शासन और भारत के बीच संबंध अब अपेक्षाकृत बेहतर हुए हैं। भारत ने 2022 के बाद धीरे-धीरे काबुल में अपने मिशन को फिर से सक्रिय किया और मानवीय सहायता के साथ-साथ शिक्षा और स्वास्थ्य परियोजनाओं पर भी काम शुरू किया। तालिबान ने भारत के तकनीकी सहयोग का स्वागत किया और कश्मीर संबंधी किसी भी टिप्पणी से दूरी बनाए रखी। यही बात पाकिस्तान के लिए सबसे बड़ी चिंता का कारण बनी है। पाकिस्तान को महसूस हो रहा है कि अफगानिस्तान अब भारत के करीब जा रहा है और क्षेत्र में उसकी कूटनीतिक भूमिका कमजोर होती जा रही है।

वैचारिक दृष्टि से भी तालिबान और पाकिस्तान के बीच मतभेद अब खुलकर सामने आ चुके हैं। तालिबान शरीयत शासन के भीतर अफगान राष्ट्रवाद का समर्थन करता है, जबकि पाकिस्तान उसे अपने नियंत्रण में रखना चाहता है। तालिबान के कई वरिष्ठ नेताओं ने खुले तौर पर दावा किया है कि अफगानिस्तान की नीतियां अब इस्लामाबाद नहीं, बल्कि काबुल तय करेगा। इस बीच पाकिस्तान ने सीमा पार अवैध व्यापार, शरणार्थी प्रवाह, और अफगानों के वीजा प्रतिबंध जैसे कदम उठाए हैं। पाकिस्तान के इस रवैये से नाराज होकर तालिबान ने भी अपनी सीमाओं पर पाक नागरिकों की आवाजाही सीमित कर दी है। अफगान जनता में यह धारणा मजबूत हो रही है कि पाकिस्तान ने हमेशा अफगानिस्तान का इस्तेमाल किया, लेकिन विकास में कभी मदद नहीं की। सीमा विवाद भी इस तनाव को और बढ़ा रहा है। दोनों देशों के बीच ड्यूरंड लाइन सदियों से विवाद का विषय रही है। तालिबान सरकार इस सीमा को मान्यता देने से इनकार करती है, जबकि पाकिस्तान इसे अंतरराष्ट्रीय सीमा के रूप में स्वीकार करता है। हाल में अफगान बलों द्वारा ड्यूरंड लाइन पर बाड़ तोड़ने की घटनाएं सामने आई हैं, जिसके बाद गोलाबारी की स्थिति बनी। पाकिस्तान ने कड़े शब्दों में चेतावनी दी कि अफगानिस्तान को सीमा उल्लंघन की कीमत चुकानी पड़ेगी, वहीं तालिबान ने कहा कि वह अपनी भूमि की रक्षा के लिए तैयार है।

इन तनावपूर्ण हालातों के बीच आम जनता पर असर गहरा रहा है। दोनों तरफ रहने वाले पश्तून समुदाय के लोग परिवारों से कट गए हैं। व्यापारिक रास्ते बंद हो रहे हैं और आर्थिक संकट और गंभीर होता जा रहा है। पाकिस्तान पहले से ही आर्थिक मंदी के दौर से गुजर रहा है, वहीं अफगानिस्तान पर अंतरराष्ट्रीय प्रतिबंध पहले से लगे हैं। इन दोनों देशों के बीच यदि सैन्य संघर्ष खुलकर होता है, तो न केवल दक्षिण एशिया की स्थिरता खतरे में पड़ेगी बल्कि चीन, रूस और ईरान जैसे देशों की रणनीतिक योजनाओं पर भी असर पड़ेगा। भारत की ओर से अब तक इस पूरे विवाद में किसी पक्ष का समर्थन नहीं किया गया है। भारत ने अपने कूटनीतिक वक्तव्यों में केवल क्षेत्रीय शांति और पारस्परिक सम्मान की बात कही है। फिर भी, भारत के लिए यह स्थिति रणनीतिक दृष्टि से फायदेमंद मानी जा रही है। क्योंकि पाकिस्तान की सीमा पर दो मोर्चों के खुलने से उसकी सुरक्षा-नीति पर दबाव बढ़ेगा और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत की भूमिका एक स्थिर शक्ति के रूप में उभरेगी।

विशेषज्ञों का मानना है कि पाकिस्तान की विदेश नीति लंबे समय तक “रणनीतिक संपत्ति” की अवधारणा पर आधारित रही, जिसमें तालिबान जैसे समूहों को उपकरण की तरह इस्तेमाल किया गया। लेकिन अब वही संगठन पाकिस्तान के खिलाफ खड़ा हो गया है। तालिबान, जिसे कभी पाकिस्तान ने पाला-पोसा, अब उसकी सीमाओं पर चुनौती बन चुका है। यह उस खेल का नतीजा है जिसमें आतंकवाद और धर्म के सहारे राजनीति करने की कोशिश की गई। वर्तमान समय में तालिबान अपने शासन को अफगान राष्ट्रवाद की भावना से जोड़कर अंतरराष्ट्रीय मान्यता प्राप्त करने की कोशिश कर रहा है, जबकि पाकिस्तान की छवि घरेलू राजनीतिक अस्थिरता और आर्थिक संकट के कारण कमजोर पड़ी है। नतीजतन, दोनों देशों के संबंध तर्कसंगत संवाद की जगह परस्पर अविश्वास में बदल चुके हैं। अगर यह स्थिति जल्द नहीं सुधरी, तो यह केवल सीमा-पार संघर्ष नहीं रहेगा बल्कि समूचे दक्षिण एशिया के लिए एक नया संकट बन जाएगा।