गोविन्द ठाकुर
कहा जाता है कि मजबूरी की दोस्ती का कोई निशान नहीं होता, हां एक पड़ाव जरुर होता है जो स्वार्थ के आगे मिट जाता है । 18 जुलाई को बैंगलूरु में कांग्रेस और आप (केजरीवाल) के बीच भी ठीक इसी तरह की दोस्ती हुई है। यह दोस्ती किसी के गले नहीं उतर रही है, चाहे वह देश के आम नागरिक हो, विपक्ष हो या फिर कांग्रेस के ही नेता कार्यकर्ता हो, सभी का एक ही सवाल है, यह कब तक चलेगा..?.। लोग तो यहां तक कहने लगे हैं कि जैसे ही सीटों के बंटबारे होंगे तभी केजरीवाल कांग्रेस पर दोषारोपण करते हुए गठबंधन से बाहर हो जायेंगे, जो कांग्रेस के लिए कठिन परिस्थिति पैदा करने वाली होगी । लोग या फिर कांग्रेसी का भी कहना है कि केजरीवाल मौके की राजनीति करते हैं । पटना की बैठक में वह बीजेपी विरोधी खेमे में शामिल होने नहीं गये थे बल्कि वहां भी कांग्रेस को बदनाम करने और गठबंघन को तितर बितर करने के लिए ही गये थे। जिसमें केजरीवाल ने केन्द्र सरकार के दिल्ली को लेकर लाये अध्यादेश का मुद्दा उठाया था औरबीच में ही बैठक छोड़कर लौट आये थे। फिर यह दोस्ती कैसे कसौटी पर खरे उतरेगी..एक बड़ा सवाल तो है।
याद कीजिए, वह अन्ना आंदोलन जिसके कारण कांग्रेस को दिल्ली की सत्ता गंवानी पड़ी थी। वहीं केजरीवाल अपनी शर्तों पर कांग्रेस को एकबार फिर से झुका रही है क्यों..? । केजरीवाल को मालूम है कि बंगाल की चीफ मिनिस्टर ममता बनर्जी और बिहार के सीएम नीतीश कुमार का कांग्रेस पर भारी दवाब है कि केजरीवाल को गठबंधन में लिया जाए, और यह सही भी है । खासकर ममता बनर्जी अपनी च्वाईश के केजरीवाल को किसी भी हाल में गठबंधन लेना चाह रही थी। ममता की भी राजनीति है, वह केजरीवाल के कंधे से कांग्रेस को साध रही है। खैर, कांग्रेस की मजबूरी रही कि मोदी के खातिर केजरीवाल को सहन करना ही पड़ा है। मगर कितने दिन, यह गठबंधन तो लोक सभा के लिए हो रही है लेकिन उससे पहले पांच राज्यों का चुनाव आ रहा है जो चंद महीने बाद होने हैं।
राजस्थान, मध्यप्रदेश, छतिशगढ, तेलंगाना और मिजोरम। तेलंगाना और मिजोरम में कांग्रेस की सीधी लड़ाई बीजेपी के साथ नहीं है तो आप केजरीवाल वहां नहीं जा रहे हैं। मतलब, यहां कांग्रेस ना ही सीधी जीत में है और ना ही सीधी हार में फिर वहां क्यों जाना। अब बचे तीन राज्य राजस्थान, मध्यप्रदेश और छतिशगढ, यहां कांग्रेस बीजेपी को सीधी टक्कर दे रही है। कांग्रेस को जहां मध्यप्रदेश में सत्ता हासिल करनी है तो राजस्थान और छतिशगढ में सत्ता को बचानी है। मगर यहां केजरीवाल पूरे जोश के साथ कांग्रेस के वोट को बांटने पर उतारु है, क्यों..आप प्रवक्ता सौरभ भारद्वाज ने कहा भी था कि कांग्रेस दिल्ली और पंजाब में चुनाव नहीं लड़े तो वह भी इन जगहों पर चुनाव नहीं लड़ेंगे…इसका क्या मतलब हुआ। मतलब साफ है कि लोकसभा तो दूर विधानसभा के चुनाव में ही केजरी कांग्रेस से बाहर हो सकते हैं। आखिर उनकी भी महत्वाकांक्षा है देश के पीएम बनने के। फिर तो कांग्रेस को हराना ही होगा।
अब कांग्रेस के नेताओं के भी सूने– कांग्रेस के दिल्ली इकाई ने केजरीवाल को लेकर लगभग खिलाफत ही कर दिया है। उनका कहना है कि वह किसी भी हाल में केजरीवाल को बरदास्त नहीं कर सकते हैं। ऐसा ही कुछ हाल पंजाब कांग्रेस का है, पंजाब कांग्रेस का कहना है कि वह समझौते छोड़िए हम केजरीवाल के चेहरा तक देखना नहीं चाहते हैं। पिछले दिनों दिल्ली में हुई बैठक में दोनों राज्य के नेताओं नें अपनी नाराजगी दाखिल कर दी है, मगर उसके बाद भी आप को इंडिया टीम में शामिल कर लिया गया है इस शर्त पर कि संसद में कांग्रेस अध्यादेश के खिलाफ खरी रहेगी।
अन्ना आंदोलन के बाद कांग्रेस ने 2013 के दिल्ली विधानसभा चुनाव में आप के हाथों ही हारी । मगर सरकार बनाने के लिए केजरीवाल को कांग्रेस के समर्थन की जरुरत थी। हार के बदले भी कांग्रेस ने बीजेपी को रोकने के लिए अपने 8 विधायकों का समर्थन आप को दे दिया । लिहाजा केजरीवाल मुख्यमंत्री बन गये। मगर घाघ केजरीवाल ने राजनीति की नज़ाकत को समझते हुए दुवारा चुनाव कराकर कांग्रेस की सुपरा साफ कर दिया। आप को 70 में से 67 विधायक चुनकर आये और आज तक कांग्रेस को लगभग खाता नहीं खोलने दिया। पंजाब में भी कांग्रेस ने बीजेपी अकाली से लड़ते हुए आप को सत्ता थमा दे गई। पिछले कई राज्यों कांग्रेस के हाथ आ रही सत्ता को केजरीवाल ने वोट काट कर बीजेपी को कब्जा करा दिया। मगर फिर भी राजनीति की मांग है या फिर कहें कांग्रेस की मजबूरी है कि एकबार फिर से कांग्रेस केजरीवाल के फांस में फंस चुकी है।
हो सकता हो, कांग्रेस कहीं इससे दूर की सोच रख रही हो मगर जो खुद के नेता और लोगों की सोच है वह यही है कि ये दोस्ती हम जरुर तोड़ेंगे…तोड़ेगे हर कदम तेरा रास्ता भी रोकेगे…।