राहुल-अखिलेश कब तक साथ-साथ?

How long will Rahul-Akhilesh be together?

संजय सक्सेना

लोकसभा चुनाव के नतीजे आने के बाद दिल्ली से लेकर यूपी तक की राजनीति में बड़ा बदलाव देखने को मिल रहा है। आम चुनाव में उत्तर प्रदेश से जो नतीजे आये उससे एनडीए गठबधन का खेल मुश्किल हो गया,वहीं इंडी गठबंधन को बड़ी सफलता मिली है। इसके चर्चे भी खूब हो रहे हैं। इससे पहले 2017 के यूपी विधान सभा चुनाव में राहुल-अखिलेश का साथ आना और 2019 के लोकसभा चुनाव के समय मायावती-अखिलेश के एकजुट होने की नाकामयाब पटकथा लिखी जा चुकी थी, इस लिए इस बार भी राहुल-अखिलेश की जोड़ी से किसी को ज्यादा उम्मीद नहीं थी,लेकिन इस बार तो राहुल-अखिलेश की जोड़ी ने चमत्कार दिखाते हुए बीजेपी से आगे-पीछे का सारा हिसाब एक ही बार में बराबर कर लिया। इसके मुख्य किरदार सपा प्रमुख अखिलेश यादव है,जिन्होंने न केवल समाजवादी पार्टी को शानदार जीत दिलाई बल्कि कांग्रेस को भी यूपी में एक बार फिर से उभरने का मौका दिया, जिसकी वजह से नवगठित मोदी सरकार की स्थिति पहले जैसी मजबूत नहीं लग रही है। परंतु सबसे बड़ा सवाल यही है कि इस गठबंधन का भविष्य कितना लम्बा है। ऐसा इसलिये पूछा जा रहा है क्योंकि चुनाव नतीजे आये कुछ ही दिन नहीं हुए हैं और गांधी परिवार और कांग्रेस यूपी को लेकर नई रणनीति बनाने लगी है। ऐसे में समाजवादी पार्टी की साइकिल पर चढ़कर उत्तर प्रदेश में शानदार प्रदर्शन करने वाली कांग्रेस यदि जल्द सपा की साइकिल से उतर कर अपने बल पर यूपी की राजनीति में अपना पुराना मुकाम हासिल करने की कोशिश करें तो किसी को आश्चर्यचकित नहीं होना चाहिए।इस बात के संकेत भी मिलने लगे हैं।

उधर,राजनीतिक जानकारों का भी दावा है कि अगर कांग्रेस को यूपी विधानसभा चुनाव 2027 में लड़ाई लड़नी है तो राहुल को वायनाड की जगह रायबरेली ही चुनना होगा। साल 2009 के बाद यूपी में सबसे ज्यादा 6 सांसद जीतने वाली कांग्रेस के लिए यूपी में अपनी जड़ें दोबारा स्थापित करने के लिए यह अच्छा मौका माना जा रहा है। ऐसे में राहुल का फैसला बहुत हद तक पार्टी कार्यकर्ताओं के लिए भी अहम होगा।गौरतलब हो, केंद्र की सियासत के लिए भी उत्तर प्रदेश को सत्ता की कुंजी माना जाता है। 2024 के चुनाव नतीजों में कांग्रेस-सपा गठबंधन के शानदार प्रदर्शन ने इसकी झलक दिखा दी है। ऐसे में राहुल गांधी के पास रायबरेली को ही अपनी पसंद बनाने के अलावा कोई विकल्प भी नहीं है। जैसा कि स्वयं राहुल ने कहा भी कि नियमों का तकाजा है कि वे एक ही सीट से सांसद रह सकते हैं। उनके वश में होता तो रायबरेली व वायनाड दोनों का प्रतिनिधित्व करते।

रायबरेली सीट का दो दशक तक प्रतिनिधित्व करने के बाद सोनिया गांधी ने इस बार चुनाव न लड़ने का फैसला किया और राहुल को अपनी सियासी कर्मभूमि की यह विरासत सौंपी।

कांग्रेस की यही महत्वाकांक्षा भविष्य में समाजवादी पार्टी और कांग्रेस के बीच दूरियां बढ़ने का सबब बन सकती है। क्योंकि तब एक दूसरे के वोट बैंक में सेंधमारी की कोशिश होगी। जहां से दोनों दलों के बीच सियासी तलवार खिचना निश्चित है। यह सब कब शुरू होगा और कब खत्म होगा यह तो निश्चित तौर पर नहीं कहा जा सकता है,लेकिन कांग्रेस के कुछ नेताओं के बयानों से इसकी सुगबुगाहट जरूर शुरू हो गई है।ऐसे में धीरे-धीरे दोनों दलों के बीच दूरियां बढ़ाना शुरू हो सकती है, जो अंत में बिखराव का रूप धारण कर सकते हैं। ऐसा इसलिए होता दिख रहा है क्योंकि आज जो समाजवादी पार्टी का वोट बैंक है, वह कभी कांग्रेस का मजबूत आधार हुआ करता था। कांग्रेस इसे फिर से हासिल करना चाहती है। इस बात के संकेत के तौर पर कहां जा रहा है की यूपी में कांग्रेस को पुरानी प्रतिष्ठा लौटाने के लिए राहुल गांधी, मां सोनिया गांधी के समझाने पर रायबरेली से ही सांसद बने रहने को तैयार हो गए हैं ताकि यूपी में कांग्रेस का विस्तार किया जा सके। लोकसभा चुनाव के नतीजे आने के बाद कांग्रेस की पहली बैठक और परिवार के साथ रायशुमारी के बाद उन्होंने यह फैसला किया। पार्टी सूत्रों के मुताबिक, राहुल दोनों सीटों में से कौन सी सीट चुनें,उनकी इस दुविधा को सोनिया गांधी ने दूर कर दिया है। सोनिया ने राहुल को समझाया कि यूपी कांग्रेस के लिए बेहद जरूरी है। इसलिए उन्हें रायबरेली अपने पास रखना चाहिए। यह भी कहा जा रहा है कि प्रियंका दोबारा यूपी प्रदेश प्रभारी की जिम्मेदारी संभाल सकती हैं। 2022 के यूपी विधानसभा चुनाव में हार के बाद उन्होंने इस पद को छोड़ दिया था। राहुल के सीट छोड़ने पर प्रियंका वायनाड से उपचुनाव लड़ सकती हैं। गांधी परिवार इसके जरिए उत्तर के साथ दक्षिण में पकड़ मजबूत रखना चाहता है।

राहुल के रायबरेली में बने रहने की सहमति के पीछे मां सोनिया की वह भावुक अपील भी है, जिसमें उन्होंने कहा था,‘आपको बेटा सौंप रही हूं।’ राहुल ने भी चुनाव नतीजे आने के पहले ही दिन पहली प्रेस कॉन्फ्रेंस में इसका संकेत दिया था। उन्होंने यूपी को स्पेशल थैंक्यू बोला था।पार्टी के एक सीनियर लीडर ने बताया कि रायबरेली की जीत इस लिहाज से भी बड़ी है कि परिवार ने अमेठी की खोई सीट भी हासिल कर ली है। रायबरेली में राहुल को वायनाड से बड़ी जीत मिली। ऐसे में वह रायबरेली छोड़ेंगे तो यूपी में गलत राजनैतिक मैसेज जाएगा।नेहरू-गांधी परिवार का दशकों पुराना यूपी से रिश्ता भी कमजोर हो जायेगा। क्योंकि गांधी परिवार के मुखिया ने हमेशा यूपी से ही राजनीति की। पिता राजीव गांधी अमेठी और परदादा जवाहरलाल नेहरू इलाहाबाद से चुनाव लड़ते रहे हैं। रायबरेली सीट उनकी मां, दादी इंदिरा और दादा फिरोज गांधी की सीट है।

वैसे कुछ सूत्र यह भली बताते हैं कि प्रियंका गांधी के कुछ करीबी नेता चाहते थे कि राहुल वायनाड में ही रहें और प्रियंका रायबरेली से उपचुनाव लड़ें। दरअसल, नामांकन से ठीक एक दिन पहले ही गांधी परिवार ने फैसला लिया था कि राहुल रायबरेली से लड़ेंगे। ये फैसला आखिरी वक्त में इसलिए हुआ कि प्रियंका और रॉबर्ट दोनों चुनाव लड़ना चाहते थे। लेकिन पार्टी के सीनियर नेताओं ने प्रियंका को समझाया कि परिवारवाद के आरोप से कांग्रेस कमजोर होगी।वहीं सोनिया गांधी के उस वायदे को भी ठेस पहुंचती जो उन्होंने रायबरेली की जनता से की थी। गौरतलब हो,इस लोकसभा चुनाव की पहली रैली में जब सोनिया गांधी रायबरेली पहुंचीं थी तोउन्होंने मंच से कहा था ‘मैं आपको बेटा सौंप रही हूं। जैसे मुझे माना, वैसे ही मानकर रखना। राहुल आपको निराश नहीं करेंगे। राहुल ने 3.90 लाख वोटों से जीत दर्ज की, जबकि 2019 में सोनिया गांधी ने 1.67 लाख वोटों से जीत दर्ज की थी। इसके अलावा कांग्रेस को यूपी में इस बार 9.4 फीसदी वोट मिला। यह कांग्रेस के लिए संजीवनी की तरह है। 2019 में 6.36 फीसदी वोट शेयर और एक सीट ही मिली थी। 2022 यूपी विधानसभा चुनाव में 2.33 फीसदी वोट और दो सीटें मिली थीं। 2019 में यूपी में एक सीट पर सिमट गई कांग्रेस के लिये 2024 के नतीजे उम्मीद की नई किरण बन कर आये हैं। इस मौको को वह पूरी तरह से लपकने को तैयार हैं।आने वाले दिनों में राहुल-प्रियंका यूपी में अपनी एक्टिविटी और बढ़ा सकते हैं।

अमेठी में किशोरी लाल के साथ 4 अन्य सीट जीतने पर उनका कॉन्फिडेंस भी काफी बढ़ा है। दोनों की बॉडी लैंग्वेज भी बदल चुकी हैं। इसके अलावा उन्हें ये भी पता है कि यदि वह यूपी छोड़ देंगे, तो अखिलेश का उन्हें हमेशा सहारा लेना पड़ेगा और कांग्रेस कभी अपने दम पर यूपी में खड़ी नहीं हो पाएगी। इसी लिये कांग्रेस नेता समाजवादी पार्टी की साइकिल से उतर कर आगे बढ़ने की रणनीति बना रहे हैं।