ललित गर्ग
प्रखर राष्ट्रवादी एवं हिन्दूवादी नेता वीर दामोदर सावरकर इस संसार के एकमात्र ऐसे रचनाकार हैं जिनकी पुस्तक ’1857 का स्वातंत्र्य समर’ को अंग्रेजों ने प्रकाशन से पहले ही प्रतिबंधित कर दिया था। यह वह पुस्तक है जिसके माध्यम से सावरकर ने सिद्ध कर दिया था कि 1857 की जिस क्रांति को अंग्रेज मात्र एक सिपाही विद्रोह मानते हैं, जबकि वही भारत का ‘प्रथम स्वतंत्रता संग्राम’ था। वीर सावरकर ऐसे महान् भारतीय क्रांतिवीर हैं जिन्हें अंग्रेज-सरकार ने क्रांति के अपराध में एक ही जीवन में दो बार आजीवन कारावास की सजा सुनाई गयी थी। दो बार की काले पानी की कठोर सजा के दौरान सावरकर को अनेक यातनाएं दी गयी। अंडमान जेल में उन्हें छः महिने तक अंधेरी कोठरी में रखा गया। एक-एक महिने के लिए तीन बार एकांतवास की सजा सुनाई गयी। सात-सात दिन तक दो बार हथकड़ियां पहनाकर दीवारों के साथ लटकाया गया। इतना ही नहीं सावरकर को चार महिनों तक जंजीरों से बांध कर रखा गया। इतनी कठोर यातनाएं सहने के बाद भी सावरकर ने अंग्रेजों के सामने झुकना स्वीकार नहीं किया। जबकि तब से हमारे देश के कुछ बुद्धिजीवी, कुछ राजनीतिक दल कांग्रेस, आम आदमी पार्टी एवं वामपंथी उनके कृतित्व एवं आजादी के लिये प्रदत्त बलिदानों को भूलकर उन पर अंग्रेज़ों से माफ़ी मांगने का आरोप लगाते हुए उनके अविस्मरणीय बलिदानों को धुंधलाने की कोशिशें की जा रही है। सावरकर को गाली देने वाले इस बात को समझ लें कि भारत की आजादी में उनका कद अगर महात्मा गांधी से ज्यादा नहीं तो कम भी नहीं है।
वीर सावरकर ने कहा था ‘‘कष्ट ही तो वह चाक शक्ति है जो मनुष्य को कसौटी पर परखती है और उसे आगे बढ़ाती है।’’ सावरकर के बलिदानों की असलियत और सच्चाई जाने बिना, उनकी कोशिशां की गहराई को समझे बिना और उन पर तटस्थ अध्ययन किए बिना, कोई भी कांग्रेसी व विपक्षी उनके ऊपर झूठे आरोप लगाते चले आए हैं। अर्से से उनको अपमानित किया जाता रहा है। हाल ही में कांग्रेस के नेता राहुल गांधी ने उनका एक चिट्ठी का हवाला देकर अनादर किया, वहीं कुछ समय पूर्व अरविंद केजरीवाल ने एक रैली में भाजपाइयों को सावरकर की औलादें कहकर अपनी मंशा प्रकट की थी। आखिर यह कब तक चलेगा? अब तो इस पर रोक लगनी चाहिए क्योंकि ऐसे व्यक्ति को जिसका पूर्ण जीवन भारत की आजादी के लिए दी गई कुर्बानियों की सच्ची मिसाल है। ऐसा व्यक्ति जिसको जहरीला भोजन और पानी देकर उसे कांटे की तरह सूखा दिया गया हो, जब उस पर झूठा लांछन लगाया जाता है तो किसी भी सच्चे भारतीय का मन विचलित, मस्तिष्क दुखी और आत्मा तड़ जाती है। सावरकर का कथन है कि ‘‘कर्तव्य की निष्ठा संकटों को झेलने में, दुख उठाने में और जीवन भर संघर्ष करने में ही समाविष्ट है, यश-अपयश तो योगापयोग की बाते हैं।’
अखण्ड भारत का स्वप्न देखने एवं उसे आकार देने वालों में प्रखर राष्ट्रवादी नेता विनायक सावरकर का योगदान अनूठा एवं अविस्मरणीय है। आज नया भारत बनाने, भारत को नये सन्दर्भों के साथ संगठित करने, राष्ट्रीय एकता को बल देने की चर्चाओं के बीच भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के प्रखर सेनानी, महान देशभक्त, ओजस्वी वक्ता, दूरदर्शी राजनेता, इतिहासकार, एक बहुत निराले साहित्यकार- राष्ट्रवादी कवि और सशक्त हिन्दुत्व के पुरोधा श्री सावरकर के निर्वाण दिवस पर उनकी पावन स्मृति और उनका जीवन-दर्शन आधार-स्तंभ एवं प्रकाश-किरण है। अग्रिम पंक्ति के स्वतंत्रता सेनानी सावरकरजी प्रेरणाएं एवं शिक्षाएं इसलिये प्रकाश-स्तंभ हैं कि उनमें नये भारत को निर्मित करने की क्षमता है। उन्होंने अनेक विपरीत एवं संघर्षपूर्ण स्थितियों के बीच एक भारत और मजबूत भारत की कल्पना की थी, जिसे साकार करने का संकल्प आज हर भारतीय के मन में है।
कहते हैं कि पूत के पांव पालने में ही दिख जाते हैं। अर्थात् व्यक्ति का भविष्य छुटपन में ही उसके व्यवहार से दिखने लगता है। वीर सावरकर की बचपन की गतिविधियां बता रही थीं कि यह बालक आगे चलकर भारतमाता का साहसी बेटा बनेगा, जिसे लोग ‘स्वातंत्र्यवीर सावरकर’ के नाम से पहचानेंगे। वे केवल आठ-दस वर्ष की उम्र से ही कविताएं लिखने लगे थे। उनके जीवन पर छत्रपति शिवाजी का बहुत गहरा प्रभाव था। शिवाजी की विजय गाथाएं, वीर सावरकर स्वयं तो बड़े चाव से पढ़ते ही थे, अपने मित्रों को भी गर्व के साथ सुनाया करते थे। इससे उनके मन में भी देशभक्ति, बलिदान, त्याग, समर्पण और देशसेवा की भावनाएं जोर मारने लगी थीं। युवा अवस्था में पहुँचते-पहुँचते सावरकर ने अपनी क्रांतिकारी सोच एवं गतिविधियों को और गति दे दी। उन्होंने ‘अभिनव भारत’ नाम की एक और संस्था की स्थापना भी की। सबसे पहले विदेशी कपड़ों की होली जलाकर अंग्रेजों को चुनौती देने का काम सावरकर ने किया। अंग्रेजों के घर ‘लंदन’ में घुसकर क्रांतिकारी गतिविधियां करने का साहस भी उन्होंने दिखाया। उनके ही प्रयास से लंदन में 1857 के स्वतंत्रता संग्राम की स्वर्ण जयंती मनाई गई। जहाज से बीच समुद्र में छलांग लगाकर तो विनायक साहस के पर्याय ही बन गए। भारत के क्रांतिकारियों में वे ‘पूज्य’ हो गए थे। सरदार भगत सिंह ने अपने एक लेख में विनायक दामोदर सावरकर के लिए ‘वीर’ और ‘पूजनीय’ जैसे आदरसूचक विशेषणों का उपयोग किया हैं। उनकी क्रांतिकारी गतिविधियों, विचारों एवं संगठन क्षमता से अंग्रेज भयभीत हो गए थे। आजादी के लिए काम करने के लिए उन्होंने एक गुप्त सोसायटी बनाई थी, जो ‘मित्र मेला’ के नाम से जानी गई। 1905 के बंग-भंग के बाद उन्होंने पुणे में विदेशी वस्त्रों की होली जलाई।
वीर सावरकर जैसे बहुत कम क्रांतिकारी एवं देशभक्त होते हैं जिनके तन में जितनी ज्वाला हो उतना ही उफान मन में भी हो। उनकी कलम में चिंगारी थी, उसके कार्यों में भी क्रांति की अग्नि धधकती थी। वीर सावरकर ऐसे महान सपूत थे जिनकी कविताएं एवं विचार भी क्रांति मचाते थे और वह स्वयं भी महान् क्रांतिकारी थे। उनमें तेज भी था, तप भी था और त्याग भी था। वीर सावरकर हमेशा से जात-पात से मुक्त होकर कार्य करते थे। राष्ट्रीय एकता और समरसता उनमें कूट कूट कर भरी हुई थी। रत्नागिरी आंदोलन के समय उन्होंने जातिगत भेदभाव मिटाने का जो कार्य किया वह अनुकरणीय था। वहां उन्होंने दलितों को मंदिरों में प्रवेश के लिए सराहनीय अभियान चलाया। महात्मा गांधी ने तब खुले मंच से सावरकर की इस मुहिम की प्रशंसा की थी, भले ही आजादी के माध्यमों के बारे में गांधीजी और सावरकर का नजरिया अलग-अलग था।
अप्रतिम प्रतिभा सम्पन्न सावरकरजी कुशल मानवशिल्पी के साथ राष्ट्र-शिल्पी थे। उनकी वाणी तीक्ष्ण, तेजधार होने के साथ-साथ सीधी, सरल एवं हृदय को छूने एवं प्रभावकारी परिणाम करने वाली थी। अपनी पारखी दृष्टि से व्यक्ति की क्षमताओं को पहचान कर न केवल उसका विकास करते थे अपितु उसे देश, समाज एवं राष्ट्र हित में नियोजित भी करते थे। राष्ट्रोत्थान की भावना जगाने में उनका कौशल अद्भुत था। एक सामाजिक-सांस्कृतिक-राष्ट्रीय व्यक्तित्व होते हुए भी वीर सावरकर ने भारतीय राजनीति की दिशा को राष्ट्रीयता की ओर कैसे परिवर्तित किया है, यह समझने के लिए भी उनके जीवन-दर्शन को पढ़ना आवश्यक है। भारत की हिंदू अस्मिता, हिंदू समाज की उत्पत्ति व संघटन, विवाह, माता-पिता द्वारा संतान का पालन-पोषण, आपसी सौहार्द, सामाजिकता, आध्यात्मिकता, धार्मिकता, आर्थिक स्थितियां, कृषि, जीवनशैली तथा ऐसे ही अन्य अनेक विषयों पर उनके जीवन-दर्शन से मार्ग प्रशस्त होता है। सावरकर जेल में रहते हुए भी स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रिय रहे।
यह भी अजीब विडंबना है कि इतनी कठोर यातना सहने वाले राष्ट्र-योद्धा के साथ तथाकथित इतिहासकारों ने न्याय नहीं किया, उनके विराट व्यक्तित्व एवं राष्ट्र-विचारों को धूमिल किया। किसी ने कुछ लिखा भी तो उसे तोड़ मरोड़ कर पेश किया। राष्ट्रोत्थान की मूल भावना के अभिप्रेरित वीर सावरकर भले ही आज हमारे बीच में नहीं है लेकिन उनकी प्रखर राष्ट्रवादी सोच हमेशा राष्ट्र एवं राष्ट्र के लोगों के दिलो में जिन्दा रहेगी ऐसे भारत के वीर सपूत वीर सावरकर को हम सभी भारतीयों को हमेशा गर्व रहेगा। क्योंकि उनके जीवन का उद्देश्य रहा है- निज संस्कृति को बल देना, उज्ज्वल आचरण, सात्विक वृत्ति एवं स्व-पहचान। भारतीय जनता के बड़े भाग में राष्ट्रीयता एवं स्व-संस्कृति की कमी को दूर करना ही सावरकरजी के जन्म एवं जीवन का ध्येय था, वे अखण्ड भारत के पक्षधर थे। वे विश्वभर के क्रांतिकारियों में अद्वितीय थे। उनका नाम ही भारतीय क्रांतिकारियों के लिए उनका संदेश था। उनकी पुस्तकें क्रांतिकारियों के लिए गीता के समान थीं। नया भारत निर्मित करते हुए उसके इतिहास में सच्चाई के प्रतिबिम्बों को उभारने पर बल देना ही वीर सावरकर के निर्वाण दिवस मनाने का वास्तविक उद्देश्य होना चाहिए, क्योंकि भारत के इतिहास को धूमिल किया गया, धुंधलाया गया है, वीर सावरकर जैसे सच्चे देश को भारत रत्न देकर असंख्य भारतीयों के दिलों पर किये गये घावों को पर मरहम लगाने का प्रयास किया जाना चाहिए।