हिंसक घटनाओं का दंश कब तक झेलेंगे नागरिक?

-ओम प्रकाश उनियाल

धर्म, समुदाय, जाति के अलावा अन्य फिजूल के छोटे-छोटे मुद्दों को लेकर हिंसा का वातावरण पैदा करना आम बात हो गयी है। न किसी को कानून का डर है ना ही अपनी व दूसरों की जान-माल की क्षति का। बेखौफ हो चुका है इंसान। ऐसे में कई सवाल खड़े होना स्वाभाविक है। जब भी कहीं हिंसक घटनाएं घटती है तो सबसे पहले उंगली कानून-व्यवस्था व सरकारों पर ही उठती है। वास्तव में हमारे देश में कानून-व्यवस्था है भी तो काफी लचर। सूचना-तंत्र भी इतना कमजोर और शिथिल है कि हिंसक घटनाओं को तूल देने वाले व देश के भीतर नफरत की चिंगारी भड़काने वाले देशद्रोहियों की भनक एकदम नहीं लग पाती। अक्सर, घटना घट जाने के बाद ही समूचा तंत्र हरकत में आता है।

यदि भनक लगती भी है तो जिस तरह की सख्ती आरोपियों पर बरती जानी चाहिए वह सख्ती नहीं बरती जाती।

दूसरा अफवाहों पर लोग बहुत जल्दी विश्वास कर लेते हैं। सोचने-समझने का प्रयास कोई नहीं करता। यहां तक की समझाने-बुझाने के बावजूद भी कोई असर नहीं पड़ता। देखा गया है कि ऐसे में लोग भेड़ चाल चलने लगते हैं। हिंसक घटनाएं भड़काऊ बयानबाजी, भाषणबाजी के कारण भी घटती है। सियासती दल ऐसे में खूब खेल खेलते हैं। ताकि वे जनता की सहानुभूति बटोर सकें। हाल की हरियाणा के नूंह जिले, पूर्वोत्तर भारत के मणिपुर की हिंसक घटनाएं किसी से छिपी नहीं हैं।

आज यह स्थिति है कि कहां अचानक कब जरा-सी बात को लेकर हिंसक माहौल बन जाए कहा नहीं जा सकता। एक तरफ तो देश में एकजुट होकर रहने व सब धर्मों का सम्मान करने की रटी-रटायी बातें की जाती है दूसरी तरफ सियासी रंग खेलने की कोशिश जारी रहती है। आखिर कब तक इस दंश को देश का नागरिक झेलेगा?