सीता राम शर्मा ” चेतन “
पिछले कुछ दिनों में आतंकवाद पर होती वैश्विक चर्चा में भारत ने आतंकवाद को लेकर ना सिर्फ चीन और पाकिस्तान की बदनीयति को एक बार फिर पूरी तरह से बेनकाब कर दिया है बल्कि इस पर अमेरिका के दोहरे चरित्र को भी उजागर किया है, रही बात इस विकराल होती वैश्विक समस्या पर विश्व के प्रमुख संगठन संयुक्त राष्ट्र की तो वह कल भी असहाय था और आज भी असहाय ही है । दुनिया के अधिकांश देशों के साथ संयुक्त राष्ट्र यह तो स्वीकार करता है कि आतंकवाद वर्तमान समय की सबसे बड़ी वैश्विक समस्या है जिस पर दुनियाभर के देशों को तत्काल पूरी गंभीरता एंव सक्रियता से सोचने समझने और बहुत कुछ करने की जरूरत है, पर खुद उसके विरुद्ध अपने हिस्से की गंभीरता और सक्रियता से वह अब भी कोसों दूर बना हुआ है ! वह ना तो पूरी ईमानदारी से आतंकवाद की समस्या से निजात पाने और दिलाने पर कोई विशेष सत्र बुलाने के अपने कर्तव्य के निर्वहन की कोई कोशिश करता है और ना ही आतंकवाद से जुड़े मुद्दों पर कभी किसी देश की गलत नीतियों की ही भर्त्सना करता है, जबकि वह अपनी तमाम कमियों और कमजोरियों के बावजूद ना सिर्फ आतंकवाद पर खुलकर अपना दृष्टिकोण दुनिया के सामने रख सकता है बल्कि इस समस्या की गंभीरता को जानते समझते हुए इस पर नियंत्रण के साथ इसके समूल विनाश की अपनी आवश्यक प्रभावी नीतियों और शक्तियों को अर्जित करने पर भी सदस्य देशों को बाध्य कर सकता है । अब सबसे बड़ा सवाल यह है कि यदि वह ऐसा करने का प्रयास तक नहीं कर रहा तो क्यों ? क्या संयुक्त राष्ट्र स्वंय ऐसा करने या कर पाने में असक्षम है या फिर उसके जिम्मेवार पद पर आसीन लोग ही बिकाऊ, भयभीत अथवा पक्षपात करने वाले हैं ? इस प्रश्न पर यदि संयुक्त राष्ट्र गंभीर नहीं है तो सदस्य देशों को गंभीर होना चाहिए । यूं तो संयुक्त राष्ट्र को लेकर अनगिनत सवाल हैं । शंकाएं हैं । जिसमें पहला सवाल तो इसके अस्तित्व की सार्थकता को लेकर ही है । इसके निर्माण के पिछे का मुख्य कारण वैश्विक शांति और सुरक्षा बनाए रखना था । जिसमें यह अब तक पूरी तरह असफल रहा है । पिछले कुछ दशकों में जितने भी युद्ध हुए हैं, उसमें इसकी भूमिका एक असहाय दर्शक भर की रही है जो पूरी तरह लाचार हुआ दबी जुबान से सिर्फ रुको-रुको, मत लड़ो की आवाज निकालता गिड़गिड़ाता रहा है ! क्या किसी देश या फिर दुनिया के लिए ऐसे संयुक्त राष्ट्र की कोई जरूरत या प्रासंगिकता है ? जवाब बहुत सरल और स्पष्ट है – नहीं ।
आज दुनिया के हर देश को संयुक्त राष्ट्र के मुखिया से कुछ जरुरी ऐसे सवाल पूछने चाहिए – क्या एक परिवार का वह अभिभावक जिसकी बात परिवार का कोई सदस्य नहीं मानता हो, उसकी कोई उपयोगिता है ? क्या एक परिवार, जिसमें एक दादा-दादी, उनकी चार संतान, उन चार संतानों की कुल दस संतान हो, उनमें से किसी भी संतान को उस परिवार का अस्थाई सदस्य कहा जा सकता है ? इन महत्वपूर्ण सवालों का जवाब स्पष्ट है – नहीं । तो फिर संयुक्त राष्ट्र की जरूरत क्या है ? इसमें स्थाई और अस्थाई सदस्यता का नियम क्यों ? गौरतलब है कि पूरी मानवीय दुनिया सच्चे मायने में एक परिवार है । सभी एक ईश्वर की संतान हैं । जिनमें समय, स्थान, जलवायु और विकास काल में मिली शिक्षा सभ्यता की भिन्नता के कारण रंग-रूप, रहन-सहन, खान-पान और चारित्रिक आचरण की कुछ भिन्नताएं हैं, पर हैं तो सभी मनुष्य ही । एक मानवीय कुटुम्ब ही । अतः किसी के भी साथ मतभेद नहीं किया जा सकता । किसी के द्वारा किसी का शोषण तो कदापि नहीं किया जा सकता । हां, संसाधनों और व्यवस्था के देखभाल की जिम्मेवारी श्रेष्ठ को दी जानी चाहिए, जिसका मापदंड भी सिर्फ और सिर्फ बौद्धिक और चारित्रिक विशिष्टता ही हो । आशय यह कि संयुक्त राष्ट्र की सदस्यता में स्थाई और अस्थाई जैसे नियम या शब्द के लिए कोई स्थान नहीं होना चाहिए । ना ही विकसित और अविकसित के आधार पर किसी से कोई भेदभाव होना चाहिए । हां अविकसित के विकास के लिए उसे प्राथमिकता और हर संभव सहयोग अवश्य दिया जाना चाहिए । दुर्भाग्य से संयुक्त राष्ट्र में ऐसे नियम और चरित्र का घोर अभाव है । जिसमें यथाशीघ्र सुधार की जरूरत है ।
अंत में बात एक बार फिर वर्तमान.विश्व की सबसे बड़ी समस्या आतंकवाद पर संयुक्त राष्ट्र की, तो पिछले दिनों उसके महासचिव गुतारेस ने अपनी भारत यात्रा के दौरान भी आतंकवाद को वर्तमान समय की सबसे बड़ी समस्या बताते हुए उसके विरुद्ध पूरी दुनिया को एकजुट होने की बात कही थी और अब मुंबई के होटल ताज में हुई युएनएससी की विशेष बैठक में भी, जो 26 नवंबर 2008 को हुई आतंकवादी घटना का स्थान है, आतंकवाद पर गंभीर चर्चा करते हुए उससे मुक्ति के लिए सार्थक प्रयास करने की बात कही गई है । इसमें भारतीय विदेश मंत्री ने आतंकवाद को लेकर कुछ देशों के दोहरे, अमानवीय और षड्यंत्रकारी चरित्र का पर्दाफाश करते हुए साफ शब्दों में अपनी चिंता और नाराजगी व्यक्त की । अब देखना यह होगा कि आतंकवाद की इस वैश्विक समस्या से मुक्ति के लिए संयुक्त राष्ट्र समय रहते अपनी नीतियों, नीयत और ढांचे में क्या सचमुच कुछ बड़ा और ठोस बदलाव लाएगा या फिर हमेशा की तरह नैतिक लफ्फाजी और बतौलेबाजी ही करता रहेगा ! बेहतर होगा कि अब वह समय के हिसाब से अपने पूरे ढांचे और काम करने के ढंग में हर जरुरी बदलाव लाए । संभावनाएं शून्य है जिसे सौ में बदलने का भारतीय जीवट प्रयास जारी है – – –