शेख हसीना का अचानक इस्तीफा बांग्लादेश के इतिहास का एक दुखद अध्याय के रूप में याद किया जाएगा। उतनी ही दुखद वह तमाम छवियां है, जिन्हें सारी दुनिया देख रही है। इनमें सैकड़ों लोग बांग्लादेश के संस्थापक और शेख हसीना के पिता बंगबंधु शेख मुजीबउर रहमान की विशालकाय मूरत को तोड़ रहे हैं।आखिर कब तक बांग्लादेश करेगा अपने संस्थापक का इस तरह से अपमान?
आर.के. सिन्हा
शेख हसीना का इस्तीफा बांग्लादेश के लिए एक दुखद अध्याय के रूप में याद किया जाएगा। उतनी ही दुखद वे तमाम छवियां है, जिन्हें आज सारी दुनिया टेलीविजन पर देख रही है। इनमें सैकड़ों लोग बांग्लादेश के संस्थापक और शेख हसीना के पिता बंगबंधु शेख मुजीब उर रहमान की मूरत पर चढ़कर उसे हथौड़े मारकर तोड़ रहे हैं। जिस बंगबंधु की कुर्बानियों के चलते बांग्लादेश का 1971 में स्वतंत्रता संग्राम के बाद जन्म हुआ था, उनकी तस्वीरों और मूरत को तोड़ा और फाड़ा जा रहा है। और पूरी दुनिया ने इसे देख रही है। मैं तो उन चन्द युद्ध संवाददाताओं में एक था जिसने बांग्लादेश के “राष्ट्रपिता” कहे जाने वाले स्वतंत्रता संग्राम के नेता शेख़ मुजीब के पराक्रम, चमत्कार और करिश्माई नेतृत्व को मुक्ति वाहिनी के संघर्ष से लेकर भारत- पाक के युद्ध के बाद बॉंग्लादेश की स्वतंत्रता तक नज़दीकी से देखा है। फिर यह भी देखा है कि 1975 में किस तरह उनके परिवार के अधिकांश सदस्यों (विदेश में रह रही हसीना बच गई थीं) की क्रूरतापूर्वक हत्या कर दी गई थी। अब उनकी बेटी और बांग्लादेश को प्रगति के रास्ते पर लेकर जाने वाली शेख हसीना को भी निर्वाचित प्रधानमंत्री पद छोड़ने के लिए भी मजबूर होना पड़ा। उन्हें देश छोड़ने के लिये मात्र 45 मिनट का अल्टीमेटम दिया गया था, जिसके बाद देश फिर से सेना के पूर्ण नियंत्रण में आ गया है। सेना प्रमुख, जनरल वाकर-उज-जमान, जो इस साल 23 जून से पद पर हैं, ने एक “अंतरिम सरकार” का वादा किया है। लेकिन , इसमें कोई संदेह नहीं होना चाहिए कि आदेश कौन देगा। उन्होंने विपक्षी दलों से बात की है। उन्होंने शेख हसीना की राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी, पूर्व प्रधानमंत्री बेगम खालिदा जिया को रिहा कर दिया है। खालिदा जिया के प्रधानमंत्रित्व काल में बांग्लादेश इस्लामी आतंकवाद का केंद्र बन गया था। खालिदा जिया घनघोर भारत विरोधी रहीं हैं । खालिदा जिया की रिहाई से भारत की विदेश नीति को तय करने वाले चिंतित जरूर होंगे। खालिदा जिया जब अपने देश की प्रधानमंत्री थीं तब वहां टाटा ग्रुप की इनवेस्टमेंट करने की योजना का कसकर विरोध हुआ था। उसे हवा खालिदा की बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी( बीएनपी) ही दे रही थी। टाटा ग्रुप की तुलना ईस्ट इंडिया कंपनी से की जा रही थी। टाटा ग्रुप को ईस्ट इंडिया कंपनी जैसा बताने वाले भूल गए थे कि टाटा ग्रुप भारत से बाहर दर्जनों देशों में स्वच्छ, स्वस्थ और पारदर्शिता पूर्ण कारोबार करता है। वहां पर तो उस पर कभी कोई आरोप नहीं लगाता।
शेख हसीना सरकार का तख्ता पलटने के साथ ही वहां जमाते ए इस्लामी और भारत विरोधी ताकतें हिन्दुओं और प्राचीन हिन्दू मंदिरों पर हमला करने लगी हैं। बांग्लादेश में हिन्दुओं पर हमले शेख हसीना के दौर में कमोबेश खत्म हो गए थे। वहां पर अब तो धर्मनिरपेक्ष ताकतों के लिए स्पेस जीवन के सभी क्षेत्रों में घट रहा है। बांग्लादेश में कठमुल्ले कट्टर इस्लामिक हिन्दुओं की जान के पीछे पड़े हुए हैं। उन्हें तो बस मौके भर की तलाश होती है। यह अफसोसजनक बात है कि बांग्लादेश में हिन्दू कतई सुरक्षित नहीं हैं। जबकि बांग्लादेश में सदियों से बसे हिन्दुओं ने बंग बंधु के नेतृत्व में बांग्लादेश की आजादी की लड़ाई में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया था ।
राजधानी दिल्ली में निर्वासित जीवन जी रही तस्लीमा नसरीन ने अपने उपन्यास “लज्जा” में बांग्लादेश में अल्पसंख्यकों की दर्दनाक स्थिति पर विस्तार से लिखा है । इसलिए ही उनकी जान के भी दुश्मन हो गए थे कठमुल्ले। मुझसे एक- दो बार तस्लीमा मिलने क्या आ गईं कि मुझे भी सलाहपूर्ण धमकियों भरे कॉल आने लगे थे।उसी विरोध के कारण तसलीमा को भी अंततः अपनी मातृभूमि बांग्लादेश सदा के लिये छोड़ना पड़ा था। तस्लीमा नसरीन का उपन्यास ‘लज्जा’1993 में पहली बार प्रकाशित हुआ था। वह लज्जा में साम्प्रदायिक उन्माद के नृशंस रूप को सामने लाती है। लज्जा के आने के बाद कट्टरपंथियों ने उनके खिलाफ फतवा जारी किया था। जिस कारण से वह अमेरिका चली गईं थीं। अपनी जान बचाने की गरज से तस्लीमा लम्बे अरसे तक स्वीडन, जर्मनी, फ्रांस और अमेरिका में भी रहीं । वह 2004 में कोलकाता आ गईं थीं। उन पर 2007 में हैदराबाद में भारत के कठमुल्लों ने हमला भी किया पर वे बाल बाल बच गईं।
बांग्लादेश में जेसोर, देबीगंज, राजशाही, शांतिपुर, प्रोधनपारा और आलमनगर में हिन्दुओं पर सर्वाधिक जुल्मों-सितम होते रहे हैं। जब 1947 में भारत का बंटवारा हुआ था, उस समय पूर्वी पाकिस्तान (वर्तमान बांग्लादेश) में हिन्दू वहां की आबादी के 30 से 35 फीसदी के बीच थे। पर 2011 की जनगणना के बाद वहां हिन्दू देश की कुल आबादी का मात्र 8 फीसदी ही रह गए हैं। शेख हसीना के दौर से पहले बांग्लादेश में शायद ही ऐसा कोई दिन बीतता हो, जब किसी हिन्दू महिला के साथ कट्टरवादी बदतमीजी न करते हों। कोई महिला कट्टरवादियों का विरोध करती , तो उसे निर्ममता पूर्वक मौत के घाट उतार दिया जाता ।
बांग्लादेश में हिन्दू महिलाएं हमेशा ही कट्टरपंथियों के निशाने पर रही हैं। राह चलती किसी लड़की को सरेआम उठाकर कहा जाता है कि उसने इस्लाम कबूल कर लिया है और उसका जबरन निकाह किसी मुस्लिम से कर दिया जाता है। इसलिए दोनों देशों के हिन्दू भारत आना चाहते हैं। यही वजह है कि कुछ लोग सवाल उठाने लगे हैं कि क्या कुछ साल बाद पाकिस्तान और बांग्लादेश हिन्दू-विहीन हो जाएंगे?
क्या बांग्लादेश में हिन्दुओं के उत्पीड़न की खबरें उन भारतीय सेकुलरवादियों तक नहीं पहुंचती हैं, जो हमास के किसी आतंकी को मारे जाने पर इजराईल को पानी पी-पीकर कोसते हैं?
बहरहाल, एक बात तो माननी ही होगी कि शेख हसीना ने भारत के पूर्वोत्तर को सुरक्षित बनाने में बहुत योगदान दिया था। उन्होंने अपने देश के कठमुल्लों को कभी भारत के पूर्वोत्तर भागों में अपना खेल खेलने की इजाजत नहीं दी। क्या अब यह क्षेत्र फिर से आतंकवादियों का केंद्र बन जाएगा? शेख हसीना, जो 2009 से सत्ता में थीं और दुनिया की सबसे लंबे समय तक शासन करने वाली नेता रहीं। लेकिन, वे भी कई कमियों की शिकार रहीं। वह उन चेतावनियों को पढ़ने में विफल रहीं जो एक सामाजिक-आर्थिक और संभावित रूप से भावनात्मक मुद्दे पर विरोध प्रदर्शनों के साथ आई थीं। हाल के आंदोलन के दौरान प्रदर्शनकारियों की मुख्य मांग 1971 के स्वतंत्रता संग्राम के स्वतंत्रता सेनानियों के लिए आरक्षित नौकरी कोटे को समाप्त करने की थी, जिसे उनके बच्चों और यहां तक कि पोते-पोतियों तक बढ़ा दिया गया था। नौकरी कोटा उन लोगों को नुकसान पहुंचा रहा था , जिन्हें इसका लाभ नहीं हुआ था और आर्थिक संकट के बीच शेख हसीना के विरोधियों के लिए यह काम आया।
शेख हसीना ने पहले उन्हें ‘रजाकार’ (स्वतंत्रता संग्राम के पाकिस्तान समर्थक विरोधी) कहा, और फिर उन्हें ‘आतंकवादी’ कहा। सर्वोच्च न्यायालय ने अपने फैसले में कोटे को न्यूनतम तक कम कर दिया था। इससे यह उम्मीद बनी थी कि अब बंगलादेश फिर से अमन की तरफ लौट जाएगा।लेकिन , यह उम्मीद गलत साबित हुई। पांच हफ्तों के विरोध प्रदर्शनों के दौरान बल के प्रयोग, ने जनता के गुस्से को और बढ़ा दिया था। खैर, बांग्लादेश अब तो एक गहरे संकट में जा चुका है। अब इस बात की उम्मीद कम ही है कि वहां पर जिंदगी निकट भविष्य में पटरी पर लौट जाएगी। जो देश अपने संस्थापक का अपमान करता हो, उससे क्या उम्मीद की जा सकती है।
(लेखक वरिष्ठ संपादक, स्तंभकार और पूर्व सांसद हैं)