राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भाजपा के संबंधों में कथित खटास की चर्च कितना सही कितना गलत?

How right or wrong is the alleged sourness in the relations between Rashtriya Swayamsevak Sangh and BJP?

गोपेंद्र नाथ भट्ट

दक्षिण भारत में अपने पैर जमाने की कौशिश में लगी भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ (आरएसएस ) के रिश्तों को लेकर इन दिनों देशभर में चल रही गंभीर चर्चा के मध्य केरल के पलक्कड़ में 31 अगस्त से 2 सितंबर के दौरान होने वाली संघ और अनुनायियों की समन्वय बैठक पर सभी की नजरे टिकी हुई है। बताया जा रहा है कि इस बैठक में भाजपा और आरएसएस के गिले शिकवे काफी हद तक दूर होंगे। राजनीतिक जानकारों का मानना है कि आरएसएस किसी भी सूरत में भाजपा पर अपनी पकड़ कमजोर नहीं होने देना चाहता है, लेकिन उसे यह भी मालूम है कि भाजपा नेतृत्व से ज्यादा अनबन की खबरों से दोनों संगठनों का नुकसान होगा लिहाजा माना जा रहा है। इसलिए बताया जा रहा है कि भविष्य में दोनों के मध्य आपसी बातचीत और समन्वय का रास्ता ज्यादा मजबूत किया जाएगा।

भाजपा भी अच्छी तरह जानती है कि आरएसएस उनका मातृ संगठन है या यूं कहे कि उसकी रीढ़ की हड्डी है तो कोई अतिश्योक्ति नहीं। यदि आज भाजपा विश्व की सबसे बड़ी पार्टी है तो उसके पीछे आरएसएस संगठन की ताकत है। आरएसएस के कार्यकर्ता जब कभी चुनावों में मजबूती के साथ भाजपा के पीछे खड़े हुए है तब तब भाजपा को अभूतपूर्व विजय मिली है। इस बार लोकसभा आम चुनाव 2024 में भाजपा को 2014 और 2019 के आम चुनावों के मुकाबले वह विजय नहीं मिल पाई है जिसका अनुमान लगाया गया था। चुनाव पूर्व अबकी बार 400 का पार का नारा दिया गया था। इस बार लोकसभा चुनाव में भाजपा को अपने बलबूते पर बहुमत नहीं मिल पाना और एनडीए के सहयोगी दलों की मदद से मोदी 3.0 की सरकार का गठन करने को मजबूर होने का प्रमुख कारण भाजपा और आरएसएस के मध्य संबंधों में खटास आना माना जा रहा है। लोकसभा चुनाव में इस बार आरएसएस के कार्यकर्ता पूरे मनोयोग से चुनाव में नहीं लगे, इसलिए भाजपा की प्रयोगशाला उत्तरप्रदेश में भी उसे पहले की तुलना में काफी कम सीटे मिल पाई है। चुनावों से पूर्व एवं पश्चात आरएसएस के शीर्ष नेताओं के बयान यह इशारा कर रहे है कि भाजपा और आरएसएस में इन दिनों सब कुछ ठीक नहीं चल रहा।

बताया जा रहा ही कि संघ को ये बात सालों से सालती रही है कि केंद्र सरकार और बीजेपी संगठन एक ही पटरी पर चल रहे हैं, जहां चेक्स एंड बैलेंस की कमी प्रतीत होती है। वहीं यह भी नैरेटिव बनने लगा है कि अपने ही आनुवांशिक संगठन बीजेपी के सामने धीरे धीरे मातृ संगठन संघ का कद घट रहा है।

आर एस एस के सरसंघचालक मोहन भागवत के लोकसभा चुनाव में बीजेपी को पूर्ण बहुमत नहीं मिलने और संघ के स्वयंसेवकों और अधिकारियों का चुनावी कार्यक्रमों में उदासीन रवैए की चर्चा के बाद उनके कथित बयान को लेकर बवंडर मचा हुआ है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और बीजेपी के संबंधों में कथित दुराव को इस बात से समझा जा सकता है कि संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत ने नागपुर में संघ शिक्षा वर्ग के समापन समारोह में हालिया एक बयान दिया। इस बयान के आधार पर कहा जाने लगा है कि संघ प्रमुख ने केंद्र सरकार और बीजेपी पर अपनी नाराजगी व्यक्त कर दी है।

मोहन भागवत ने अपने बयान में कहा था कि जो वास्तविक सेवक होता है वह यह कभी नहीं कहता कि यह काम मैंने किया! सच्चा सेवक अहंकारी नहीं होता! उन्होंने यह भी कहा कि संसद में विरोधी दलों को विरोधी नहीं प्रतिपक्ष कहना चाहिए ! उन्होंने यह भी कहा कि चुनावों में मुकाबला ज़रूरी होता है पर यह झूठ आधारित नहीं होना चाहिए। इस बार चुनावों में मर्यादा का पालन नहीं हुआ! भागवत ने कहा कि मणिपुर एक साल से शांति की राह देख रहा है!

करीब आधे घंटे के अपने भाषण में ये चारों बातें अलग अलग जगहों पर सरसंघचालक मोहन भागवत ने कही। हालांकि विगत वर्षों में सरसंघचालक भागवत इस तरह के बयान कई मौकों पर देते रहे हैं। सेवक और अहंकार, विरोधी नहीं प्रतिपक्ष, चुनावों में मर्यादा और मणिपुर में शांति ऐसे विषय हैं जिसको लेकर सवाल खड़े हुए कि क्या मोहन भागवत ने ये बयान अपने ही लोगों के लिए दिए? हालांकि अहंकार और मणिपुर पर सरसंघचालक अपने पूर्व के भाषणों में भी बोल चुके हैं, लेकिन हालिया लोकसभा चुनाव में बीजेपी को पूर्ण बहुमत नहीं मिलने और संघ के स्वयंसेवकों और अधिकारियों का चुनावी कार्यक्रमों में उदासीन रवैए की चर्चा के बाद मोहन भागवत के बयान को लेकर बवंडर मचा हुआ है।

बीजेपी और संघ के रिश्तों में कड़वाहट की बात को पुख्ता आधार देने में मोहन भागवत के बयान के बाद संघ के मुखपत्र स्वरूप ऑर्गेनाइजर में एक स्वतंत्र लेखक के लेख का लिखा जाना भी चर्चा में है जिसमें सरकार के नीति निर्धारकों और बीजेपी की कार्यशैली पर प्रश्न खड़ा किया जाना लोगों की शंका को और पुख्ता करने लगा है। रही सही कसर तब पूरी हो गई जब आरएसएस के कार्यकारिणी सदस्य और वरिष्ठ स्वयंसेवक इंद्रेश कुमार ने जयपुर में यह बयान दे दिया कि अहंकार की वजह से राम काज करने बाद भी लोकसभा आम चुनाव में बीजेपी 240 पर रुक गई और भाजपा को पूर्ण बहुमत नहीं मिल सका ।

मौजूदा माहौल में सरसंघ चालक मोहन भागवत का उत्तर प्रदेश के गोरखपुर का दौरा से एक और अध्याय जुड़ा है। चूंकि गोरखपुर यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का गृह शहर है तो जाहिर तौर पर भागवत से योगी मुलाकात की खबर ने इस विवाद को और बल दिया है। हालांकि इस मुलाकात की अभी पुष्टि नहीं हुई है। संघ प्रमुख से संघ शिक्षा वर्ग कार्यक्रम के दौरान स्थानीय बीजेपी नेताओं का मिलना सामान्य बात है, लेकिन चूंकि माहौल पहले से गर्म है इसलिए इस मुलाकात को अधिक तूल दिया जा रहा है।वैसे सर संघचालक का प्रवास का कार्यक्रम अचानक नहीं बनता और ना ही बना, लेकिन मौजूदा माहौल में इसे भी हवा दी जा रही है।

यदि समग्रता में देखें तो इस विवाद की शुरुआत भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा द्वारा दिए एक साक्षात्कार से हुई है। लोकसभा चुनाव के उत्तरार्ध में 18 मई को बीजेपी अध्यक्ष ने एक साक्षात्कार में कहा था ‘आरएसएस एक वैचारिक संगठन है, शुरू में हम अक्षम होंगे, थोड़ा कम होंगे, आरएसएस की जरूरत थी। आज हम बढ़ गए हैं, सक्षम है… तो बीजेपी अपने आपको चलाती है। आज हम बड़े हो गए हैं और हम सक्षम हैं, बीजेपी खुद चलती है। यही अंतर है।’ जब यह साक्षात्कार हुआ था तब लोकसभा के तीन चरणों के 163 सीटों पर चुनाव होना बाकी थे। इस दौरान संघ और बीजेपी कार्यकर्ताओं को यह सोचने पर विवश होना पड़ा कि अचानक इस तरह के बयान को देने के पीछे किसकी क्या मंशा है?

राजनीतिक जानकारों के मुताबिक लोकसभा चुनाव बाद किए गए मंथन में संघ यह भी भांपने में सफल रहा है कि बीजेपी कार्यकर्ता इस बार के आम चुनाव में पूर्व के चुनावों से थोड़ा सुस्त रहा है, इसके पीछे कारण कार्यकर्ताओं पर अत्यधिक काम का दबाव और पार्टी में उचित सम्मान का अभाव माना जा रहा है। लिहाजा सर संघचालक जैसे शीर्ष व्यक्ति के मुख से बीजेपी और संघ के कार्यकर्ताओं के मनोकुल बातों को सुनने के बाद उनकी पीड़ा को स्वर मिलने के तौर पर देखा जा रहा है। कहा जा रहा है कि इससे एक पंथ दो काज हो रहा है। एक तरफ कार्यकर्ताओं के भावनाओं को स्वर मिल रहा और मन का मवाद बाहर निकल रहा है तो दूसरी तरफ मामले को तूल पकड़ने से पहले ही संभालने की कवायद भी की जा रही है। संघ के जानकर इसको सेफ्टी वाल्व थ्योरी के तौर पर भी देख रहे हैं । ऐसे में संघ के एक बड़े वर्ग को लगता है कि लोकसभा चुनाव के परिणाम के बाद यही समय है जब आरएसएस एक बार फिर बीजेपी की बागडोर स्वयं के हाथ में ले सकता है।

बताया जा रहा है कि संघ और बीजेपी के टॉप नेताओं के मध्य इस बात को लेकर रस्साकशी चल रही है कि बीजेपी का अगला राष्ट्रीय अध्यक्ष किसके बनाया जाय? बीजेपी अध्यक्ष संघ के मन के मुताबिक बनेगा या बीजेपी के शीर्ष नेतृत्व के मन के मुताबिक! संघ के अंदरूनी जानकारों का मानना है कि आरएसएस यह चाहता है कि केंद्र सरकार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को मिले मैंडेट के आधार पर बनी है, उसी आधार पर मंत्रिमंडल का गठन हुआ है और सरकार चल भी रही है, लेकिन बीजेपी संगठन के तौर पर आरएसएस की सोच के आधार पर काम करे और इसके लिए भाजपा का अगला अध्यक्ष आरएसएस के मन के मुताबिक बनना चाहिए। बहरहाल इन सब बातों के मध्य आरएसएस, बीजेपी के नए अध्यक्ष की नियुक्ति और नए अध्यक्ष की टीम निर्माण में अपनी महती भूमिका निभाने की तैयारी में है।

अब आगे यह देखना दिलचस्प ही गया है कि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और भाजपा के संबंधों में कथित खटास की चर्चा कितनी सही अथवा गलत है? जानकारों का मानना है कि भाजपा और आरएसएस के मध्य चल रही यह नूरा कुश्ती केवल ऊपरी तौर से दिखने वाली है और दोनों के मध्य कोई गंभीर मसला नहीं है। दोनों संगठन एक दूसरे के पूरक है अतःथोड़े बहुत गिले शिकवे के बादल भी शीघ्र ही छटने वाले है।