भारत में नशे का कारोबार तेजी से फैलता ही चला जा रहा है। इसकी चपेट में बड़ी तादाद में नौजवान आ रहे हैं। स्थिति विकट होती जा रही है। कैसे देश नशे के खिलाफ जंग जीतेगा ?
आर.के. सिन्हा
भारत में सिगरेट और बीड़ी पीने का सिलसिला न जाने कब से चल रहा है। इनके पैकटों पर वैधानिक चेतावनी देने का भी कोई असर नहीं हुआ। अब सूखा नशा लोगों को अपनी चपेट में ले रहा है। यह एक ऐसी बुराई है जो व्यक्ति की मानसिक और शारीरिक स्थिति को पूरी तरह से बिगाड़ देती है। यह आदतें न केवल व्यक्ति के स्वास्थ्य को नुकसान पहुंचाती हैं, बल्कि समाज के ताने बाने पर भी प्रतिकूल प्रभाव डालती हैं। विभिन्न स्रोतों और सर्वे के नतीजे बताते हैं कि राजधानी दिल्ली में ही कम से कम 10 से 20 फीसदी युवा नशे की चीजों के आदी हो चुके हैं। सार्वजनिक स्थानों पर प्रतिबंध के बावजूद इसको रोकने के लिए अभी तक की गई कोशिशें नाकाम साबित हुई हैं।
नशे की गिरफ्त में आकर लोग अक्सर अपनी जिम्मेदारियों को लापरवाही पूर्वक नजरअंदाज कर देते हैं। इसके प्रभाव से बचने के लिए उचित शिक्षा और सक्रिय जागरूकता की परम आवश्यकता है। साथ ही नशे के खिलाफ ठोस आन्दोलन प्रयास करने की भी जरूरत है। केवल व्यक्तिगत और सामूहिक प्रयास ही इस समस्या को समाप्त कर सकते हैं। अकेले, सरकार के बस का तो यह होने से रहा। आपको देश का शायद ही कोई शहर मिले, जहां के अत्यधिक सुरक्षित क्षेत्रों, हाई प्रोफाइल इलाकों और एलीट जोनों, बड़े मार्केटों में नशा उपलब्ध न हो। नशे पर पूरी तरह से बैन ही नहीं लग पा रहा है। राजधानी दिल्ली तो नशे के कारोबार का बड़ा केंद्र बनता जा रहा है। इसके पीछे नशीले पदार्थों की आसान उपलब्धता तथा गरीबी, बेरोजगारी और सामाजिक तनाव के चलते हो रहे डिप्रेशन को कम करने में मदद मिलने जैसी बड़ी वजह भी है। इसके साथ ही मौजूदा पारिवारिक ढांचा और शिक्षा की कमी से हो रहे भटकाव तथा अज्ञानता भी नशे को बढ़ावा देने में मददगार बन रहा है। इसका सबसे बुरा असर हमारे कम उम्र के स्कूल और कॉलेज जाने वाले लड़के-लड़कियों पर भी बुरी तरह पड़ रहा है। थोड़ी सी मस्ती, अति उत्साह और सामाजिक आचार-विचार के प्रति बेरुखी के चलते खुद को बिंदास, बेपरवाह दिखाने के लिए ड्रिंक्स, स्मोकिंग, च्युइंग एडिक्शन जैसी आदतें अपनाने को वह अपने को आधुनिक और प्रगतिशील सिद्ध करने के लिये जरूरी मान बैठे हैं।
दिल्ली और देश के शेष भागों में सूखे नशे में केवल तंबाकू या गुटखा ही नहीं इस्तेमाल हो रहा है। तस्करी चोरी के जरिए बड़े पैमाने पर गांजा, हेरोइन, स्मैक, चरस, कोकेन, मिथाइलीनडाइऑक्सी मेथाम्फेटामाइन (एमडीएमए), एक्स्टसी सिंथेटिक टैबलेट और पाउडर, मेफेड्रोन पाउडर और कैप्सूल तथा कोडीन मिला हुआ कफ सिरप को भी लाकर भी बेचा जा रहा है। एमडीएमए एक तरह का सिंथेटिक ड्रग है, जो उत्तेजक और बुद्धिभ्रष्ट कारक है। इस ड्रग के इस्तेमाल मात्र से शरीर पर बदलाव आने लग जाते हैं। सिंथेटिक ड्रग्स का उदय एक महामारी के रूप में हो रहा है जो कई लोगों के जीवन को प्रभावित कर रही है, खासकर युवा लोगों को।नए जमाने में सुरक्षा के नाम पर ई-सिगरेट का भी प्रचलन भी बढ़ता जा रहा है। इसमें धुआं भले ही न हो, लेकिन निकोटीन होने से स्वास्थ्य के लिए नुकसान में जरा सी भी कमी नहीं है।
राजधानी के प्रतिष्ठित गंगा राम अस्पताल दिल्ली में वरिष्ठ चिकित्सक, मेडिसिन डॉ. मोहसिन वली कहते हैं, “भारत में तंबाकू सेवन करने वालों, विशेष रूप से धूम्रपान करने वालों की बढ़ती संख्या के चलते इस पर नियंत्रण के लिए बनाई गई नीतियों की तुरंत समीक्षा की जरूरत है। निकोटीन रिप्लेसमेंट थेरेपी (एनआरटी), गर्म तम्बाकू उत्पाद (एचटीपी) और स्नस (धुआं रहित तंबाकू) जैसे वैज्ञानिक रूप से सुरक्षित विकल्पों के इस्तेमाल से नशे पर रोक लगाने में महत्वपूर्ण कामयाबी मिली है। हालांकि एनआरटी को मेडिकल स्टोर पर केवल डॉक्टरों के प्रिस्क्रिप्शन पर ही लिया जा सकता है, जिसके कारण इसकी सरल उपलब्धता अब मुश्किल हो गई है। अब इसे सीधे कोई आसानी नहीं ले सकता है।” जानकारों का कहना है कि अधिकांश लोग एनआरटी का उपयोग तब बंद कर देते हैं, जब उन्हें लगता है कि अब उन्हें इसकी आवश्यकता नहीं है। एनआरटी में निकोटीन की मात्रा सिगरेट की तुलना में वैसे तो कम होती है। निकोटीन को मस्तिष्क तक पहुँचने और इंसान को निकोटीन का प्रभाव देने में भी काफी समय लगता है। इसका मतलब यह है कि धूम्रपान छोड़ने की तुलना में एनआरटी का उपयोग बंद करना बहुत आसान है। सबसे बेहतर बात ये है कि एनआरटीके साइड इफेक्ट भी ज्यादा खतरनाक नहीं हैं।
इसके साथ ही अब गुटखा को खाने वालों की तादाद चक्रवद्धि ब्याज की रफ्तार से बढ़ती ही चली जा रही है। इसमें तंबाकू की कितनी मात्रा हो, इसको लेकर कोई गाइडलाइंस नहीं है। इसको खाना अगर जरूरी ही है तो बिना तंबाकू वाले इसके इलायची आदि के स्वादिष्ट फ्लेवर क्यों नहीं बनाए जा रहे हैं, जिससे इसको खाने का मजा तो आए, लेकिन स्वास्थ्य पर कोई बुरा असर नहीं पड़े।
कुछ समय पहले राजधानी के बीएलके-मैक्स सुपर स्पेशियलिटी हॉस्पिटल के सीनियर कंसल्टेंट, पल्मोनरी मेडिसिन डॉ. पवन गुप्ता कह रहे थे-, ” सबसे गंभीर बात यह है कि आम लोगों में तंबाकू का प्रचलन बढ़ रहा हैं, क्योंकि देश भर में सड़क के आसपास बनी दुकानों में तंबाकू आसानी से उपलब्ध है। मौजूदा सरकारी नीतियां तंबाकू के बढ़ती लत को रूकवाने में विफल रही हैं। अब इस मसले को रोकने के लिए विकसित देशों में अपनाए गये वैज्ञानिक रूप से सुरक्षित विकल्पों पर विचार करना जरूरी है। इससे तंबाकू के सेवन पर रोक लगाने में कारगर सफलता मिल सकती है।”
आज भारत बुरी तरह से नशे की समस्या से जूझ रहा है। यह बेहद जटिल और बहुआयामी मुद्दा है जो देश के सार्वजनिक स्वास्थ्य और सामाजिक ताने बाने को क्षति पहुँचा रहा है। नशीली दवाओं की लत लगातार बढ़ने से निजी जीवन में अवसाद, पारिवारिक कलह, पेशेवर अकुशलता और सामाजिक सह-अस्तित्व की आपसी समझ में कमी की समस्याएं सामने आ रही हैं। मुझे लगातार इस तरह के परिवारों के बारे में पता चलता है जो अपने किसी सदस्य के नशे का दास बनने से परेशान है। हमारे युवा नशे की लत के ज्यादा शिकार हो रहे हैं। युवावस्था में करियर को लेकर एक किस्म का दबाव और तनाव रहता है। ऐसे में युवा इन समस्याओं से निपटने के लिए नशीली दवाओं का सहारा लेता है और अंततः नशे के कुचक्र में फंस जाता है। इसके साथ ही युवा एक गलत पूर्वधारणा का भी शिकार होते हैं। उन्हें सार्वजनिक स्थानों पर धुएँ के छल्ले उड़ाना और महँगी पार्टीज में शराब के सेवन करना उच्च सामाजिक स्थिति का प्रतीक भी जान पड़ता है। दरअसल नशे के बढ़ने के कई आयाम हैं। इसके खिलाफ सारे देश को मिलकर लड़ना होगा। वर्ना तो नशे की लत का विस्तार जारी ही रहेगा।
(लेखक वरिष्ठ संपादक, स्तंभकार और पूर्व सांसद हैं)