दद्दा ध्यानचंद को आज भी भारत रत्न दिया जाए तो पूरे भारतीय खेल समुदाय के गर्व की बात होगी : हरबिंदर

If Dadda Dhyanchand is given Bharat Ratna even today, it will be a matter of pride for the entire Indian sports community: Harbinder

  • ध्यानचंद के जन्मदिन 29 अगस्त पर हरबिंदर जी से खास बात
  • दद्दा का रफ्तार के साथ गेंद को शरीर से आगे रखने का मंत्र मेरे बहुत काम आया
  • ध्यानचंद इतने प्यार से बात करते कि हर कोई उनकी सादगी का कायल हो जाता
  • भारत ने ऐसे ही मेहनत जारी रखी तो लॉस एंजेल्स ओलंपिक में जीत सकती है स्वर्ण
  • बदले नियमों से आज की हॉकी बहुत आसान हो गई है

सत्येन्द्र पाल सिंह

नई दिल्ली : अपने जमाने के बेहतरीन सेंटर फॉरवर्ड रहे 81 बरस के हरबिंदर सिंह भारत के सबसे उम्रदराज हॉकी खिलाड़ियों से एक हैं । वह भारत की ओलंपिक में 1964 में स्वर्ण पदक जीतने वाली,1968 में मैक्सिको और 1972 में म्युनिख में लगातार कांसा जीतने वाली तथा एशियाई खेलों में बैंकॉक में 1966 में स्वर्ण तथा 1970 में रजत पदक जीतने वाली टीमों के सदस्य रहे। हरबिंदर के नाम रेलवे के लिए 100 मीटर की फर्राटा दौड़ 10.8 सेकंड में पूरी करने का रिकॉर्ड है और वह रेलवे की 1959 में राष्ट्रीय एथलेटिक्स में 4×100 मीटर रिले में स्वर्ण पदक जीतने वाली चौकड़ी के भी सदस्य रहे। हरबिंदर जी खुद बताते हैं हॉकी में गेंद को अपने शरीर से आगे रख उस पर पूरे नियंत्रण से प्रतिद्वंद्वी टीम के गोल पर हमला बोलने का गुरुमंत्र उन्होंने हॉकी के जादूगर ध्यानचंद से पटियाला में राष्ट्रीय हॉकी शिविर में सीखा। एनआईएस में दद्दा ध्यानचंद तब कोच थे। 29अगस्त,1905 में इलाहाबाद में जन्में चंद के जन्मदिन को खेल दिवस के रूप में मनाया जाता है। प्रस्तुत है दद्दा ध्यानचंद की 119 वीं जयंती पर ओलंपियन हरबिंदर सिंह से खास बातचीत है।

हरबिंदर सिंह बताते हैं,‘भारत को आजाद होने से पहले खेलों और हॉकी में ध्यानचंद के हॉकी कौशल और कलाकारी के लिए जाना गया। आजादी से पहले भारत को लगातार तीन ओलंपिक में मुश्किल हालात में 1928 से 1936 तक स्वर्ण पदक जिता कर दद्दा ने हॉकी में ही नहीं खेलों में देश को पहचान दिलाई। ध्यानचंद की कलाकारी के कारण ही ओलंपिक हॉकी में भारत का डंका बजा। ध्यानचंद गेंद पर गजब के नियंत्रण के कारण दुनिया में हॉकी के जादूगर कहलाए। ध्यानचंद हॉकी में ही नहीं भारतीय खिलाड़ियों के लिए खेलों में सबसे बड़े रोल मॉडल हैं। जब ध्यानचंद ने खासतौर पर ओलंपिक में सुनहरी कामयाबी दिलाई वह बेहद मु्श्किल दौर था। भारतीय टीम कई आर्थिक अभावों पर पाकर पानी के जहाज से महीनों यात्रा कर ओलंपिक में शिरकत करने पहुंची थी। ध्यानचंद का ऐसे में मुश्किल हालात में भारत का मान बढ़ाना हम सभी देशवासियों के लिए बेहद फख्र की बात है। मेरे लिए यह बेहद गर्व की बात है कि 1963 में भारत की एक टीम लियोन (फ्रांस) में हॉकी टूर्नामेंट में शिरकत करने गई थी। मैं भी इस टीम का सदस्य था और दद्दा ध्यानचंद हमारी भारतीय टीम के कोच थे और हम तब स्वर्ण पदक जीत कर लौटे थे। हमारा परिवार क्वेटा (अब पाकिस्तान) से बंटवारे के बाद भारत आया था। मेरे पिता बलबीर सिंह भी फौज में कोर ऑफ सिगनल्स की हॉकी टीम में थे। 1945 में सिलोन(अब श्रीलंका) में दद्दा ध्यानचंद की अगुआई में फौज की खेलने गई भारतीय टीम में गई थी और मेरे पिता बलबीर सिंह भी इस टीम के सदस्य थे। । मैं भी सेंटर फॉरवर्ड खेलता था और दद्दा ध्यानचंद भी सेंटर फारवर्ड खेलते थे। ध्यानचंद के भारत का कोच रहते जब मैं उनके मार्गदर्शन में खेला तो उन्होंने मुझे जो सीख दी वह मेरे अपनी हॉकी को निखारने मे बहुत काम आई। ध्यानचंद ने ही मेरी तेज रफ्तार को देख मुझे बुला कर कहा कि तुम्हें प्रतिद्वंद्वी टीम के किले को भेदना है तो रफ्तार के साथ गेंद को शरीर से आगे अपनी स्टिक पर आगे रखना होगा और उनकी यह सलाह मेरे बहुत काम आई और मैंने उनकी इस सलाह को गांठ बांध लिया। ध्यानचंद के गुरुमंत्र का कमाल था कि मैं दुनिया की तब अपनी चिर प्रतिद्वंद्वी पाकिस्तान, ऑस्ट्रेलिया और इंग्लैंड जैसी टीमों के खिलाफ अपने तेज फर्राटे से अकेले ही गेंद को ले गोल करने में सफल हो पाया। इनमें पाकिस्तान के खिलाफ हैम्बर्ग में टूर्नामेंट में मध्य रेखा से गेंद को लेकर मात्र 20 सेकंड के बाकी रहते गोल कर भारत को बराबरी दिलाना और किसी पाकिस्तान खिलाड़ी का इस पर हॉकी तक न लगा पाना आज भी मुझे याद है। इस पर पाकिस्तानी टीम के अधिकारी खुर्रम ने मैच के बाद मेरे पास आकर कहा था अ्ल्ला कसम यह तुम्हारे गोल का ही कमाल था कि पाकिस्तान की टीम 20 सेकंड अपनी बढ़त बरकरार नहीं रख पाया। प्री ओलंपिक में मैंने ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ अपनी रफ्तार और गेंद नियंत्रण से दो और जर्मनी के खिलाफ टॉप ऑफ द’ डी से दो गोल दागे।’

हरबिंदर कहते हैं, ‘दद्दा ध्यानचंद को भारत ने बहुत मान दिया। ध्यानचंद के नाम अब देश का सबसे बड़ा खेल अवॉर्ड मेजर ध्यानचंद खेल रत्न अवॉर्ड है। उनके नाम पर मेजर ध्यानचंद लाइफटाइम अचीवमेंट अवॉर्ड है।दद्दा ध्यानचंद के जन्म दिन 29 अगस्त को भारत राष्ट्रीय खेल दिवस के रूप में मनाता है। दद्दा ध्यानचंद बहुत पहले भारत रत्न के हकदार थे लेकिन उन्हें अभी इसका इंतजार है। ध्यानचंद को अब भी भारत रत्न दिया जाए तो यह पूरे भारतीय खेल समुदाय के लिए बड़े गर्व की बात होगी। इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि हॉकी में दद्दा ध्यानचंद की भारत को लगातार तीन ओलंपिक में हॉकी में स्वर्ण पदक जिताने की बेमिसाल उपलब्धि हासिल है। सच तो भारत को ओलंपिक में आजादी से पहले ही नहीं आजादी मिलने के बाद भी बहुत समय बाद भी खेलों में पहचान हॉकी में उसके सुनहरे प्रदर्शन से ही मिली। भारतीय हॉकी टीम के अब लगातार दो ओलंपिक में कांसा जीतने की बाबत मैं यह कहूंगा कि हमारी भारतीय हॉकी टीम का ग्राफ जरूर उपर बढ़ा है और जरा और चौकस रहे होते तो पेरिस ओलंपिक में जीते कांसे से भी हमारे पदक का रंग और चमकदार होता। हमारी टीम ने अपनी इसी तरह सही प्रैक्टिस और मेहनत जारी रखी और अपने मौजूदा कोच को बरकरार रखा तो बेशक अब अगले 2028 के लॉस एंजेल्स में ओलंपिक में अपने पदक का रंग और चमकदार कर ध्यानचंद की टीम की तरह स्वर्ण पदक भी जीत सकती है। मौजूदा चीफ हॉकी कोच को बनाए रखने से वह भारतीय हॉकी टीम के लिए सही योजना बना सकते हैं। ऐसे मनोवैज्ञानिक रूप से तब हमारी भारतीय टीम का आत्मिवश्वास भी बना रहेगा। हमारे अनुभवी और मुस्तैद गोलरक्षक पीआर श्रीजेश अब अपनी अंतर्राष्ट्रीय हॉकी को अलविदा कह चुके हैं और आगे हमें कोर ग्रुप को बनाए रख कर सीनियर और जूनियर खिलाड़ियों के बीच तालमेल बनाए रखने की जरूरत है। मैं भी ध्यानचंद जी की तरह भारत के लिए सेंटर फॉरवर्ड के रूप में ही खेला। ध्यानचंद की इस सीख को हमने गांठ बांध लिया था कि सेंटर फॉरवर्ड की डी के भीतर मिले पास पर ट्रेपिंग एकदम सटीक होनी चाहिए क्योंकि जरा सी चूक से गोल करने का मौका हाथ से फिसल जाता है। आखिरी क्षणों में जो भी खिलाड़ी या टीम जेहनी मजबूती दिखा इस तरह के मौकों को भुनाती है उसकी जीत के मौके बढ़ जाते हैं। पेरिस ओलंपिक में जर्मनी के खिलाफ सेमीफाइनल में आखिरी 25 सेकंड में दबाव में शमशेर खाली गोल में गेंद को गोल में डालने से चूक थे और यह गोल हो जाता तो हम शूटआउट में जीत सकते थे कि क्योंकि हमारे पास बतौर गोलरक्षक पीआर श्रीजेश थे।’

वह बताते हैं, ‘ध्यानचंद एनआईएच में हॉकी कोच भी रहे? तब 1960 1966 1970 में भारत की हॉकी टीमों के बहुत कैंप एनआईएस में लगे। ध्यानचंद दुनिया के सर्वकालीन महानतम हॉकी खिलाड़ी हैं। ध्यानचंद इतने बड़े खिलाड़ी होने के बावजूद हर खिलाड़ी से इतने प्यार से बात करते थे वह हर कोई उनकी सादगी का कायल हो जाता है। सच तो यह है कि बदले नियमों से आज की हॉकी बहुत आसान हो गई है। घास के असमतल मैदान पर गेंद को रोकना ज्यादा मुश्किल होता था आज हॉकी के नियम और एस्ट्रो टर्फ पर गेंद रोकना आसान हो गया है। आफ साइड का नियम खत्म हो गया। आज हॉकी मैदान में जमीन की बजाय हवा में ज्यादा खेली जानी लगी है। हॉकी में अब दो हाफ बजाय चार क्वॉर्टर हैं। रोलिंग सब्सिटयूशन है । जब चाहे खिलाड़ी बदल लें। रिकवरी का बहुत समय है। नए नियमों से अब हॉकी पहले से बहुत आसान हो गई है। 1966 के एशियाई खेलो के फाइनल में बलबीर सिंह के शुरू के पांच मिनट में ही चोट लग गई और हमने पूरा मैच 10 खिलाड़ियों से खेले क्योंकि तब सब्सिटयूट का नियम नहीं था। बलबीर अतिरिक्त समय में आखिरी पांच मिनट में लौट और उनके गोल से हमने फाइनल जीता।’