ऋतुपर्ण दवे
क्या काँग्रेस एक बार फिर और कमजोर हो गई? ऐसे सवाल राजनीतिक गलियारों में अब नए नहीं है और न ही कोई सनसनी फैलाते हैं। काँग्रेस छोड़ने वाले हालिया नेताओं में से लगभग 90 प्रतिशत बल्कि उससे भी ज्यादा ने राहुल गाँधी की लीडरशिप पर सवाल उठाया है। गुलाम नबी आजाद के आरोप हैरान नहीं करते हैं। पहले भी काँग्रेस से अलग होते वक्त या होकर कई और नेताओं ने तब की लीडरशिप पर सवाल उठाए थे। ऐसे में ये सवाल बेमानी सा लगता है कि क्या वाकई राहुल अनुभवहीन हैं या वजह कुछ और है? थोड़ा पीछे भी देखना होगा। 1967 के 5वें आमचुनाव में ही काँग्रेस को पहली बार जबरदस्त चुनौती मिली थी जिसमें पार्टी 520 लोकसभा सीटों में 283 जीत सकी। काँग्रेस का यह तब तक का सबसे खराब प्रदर्शन था। लेकिन इंदिरा गाँधी प्रधानमंत्री रही आईं और कांग्रेस में अंर्तकलह शुरू हो गई। इसी कलह के चलते महज दो बरस यानी 1969 में कांग्रेस(ओ) यानी काँग्रेस ऑर्गेनाइजेशन टूट गई। मूल कांग्रेस की अगुवाई कामराज और मोरारजी देसाई कर रहे थे और इंदिरा गांधी ने कांग्रेस(आर) रेक्वेजिस्निस्ट्स यानी काँग्रेस(आवश्यक्तावादी) के नाम से नई पार्टी बनाई। इसमें अधिकतर सांसद इन्दिरा गाँधी के साथ थे। 1977 में कांग्रेस (ओ) जनता पार्टी में मिल गई तो 1978 में इंदिरा गांधी की कांग्रेस (आई) बनी और 6 साल बाद चुनाव आयोग से 1984 में असली कांग्रेस के तौर पर मान्यता भी मिली। 1996 में काँग्रेस पार्टी के नाम से आई हटा और पार्टी इंडियन नेशनल कांग्रेस हो गई। लेकिन काँग्रेस से जाने वालों में कमीं नहीं आई। अगर कहें कि काँग्रेस पार्टी में बिखराव, टूटन, गुटबाजी या वर्चस्व की लड़ाई नई नहीं है तो बेजा नहीं होगा।
यूँ तो आजादी से पहले ही कांग्रेस दो बार टूट चुकी है। 1923 में सीआर दास और मोतीलाल नेहरू ने स्वराज पार्टी का गठन किया तो 1939 में सुभाषचंद्र बोस ने सार्दुल सिंह और शील भद्र के साथ मिलकर अखिल भारतीय फॉरवर्ड ब्लॉक बनाई। वहीं आजादी के बाद 1951 में भी काँग्रेस टूटी जब जेबी कृपलानी अलग हुए और किसान मजदूर प्रजा पार्टी बनाई। वहीं एनजी रंगा ने हैदराबाद स्टेट प्रजा पार्टी बनाई तो सौराष्ट्र खेदुत संघ भी तभी बना। 1956 में सी. राजगोपालाचारी ने इंडियन नेशनल डेमोक्रेटिक पार्टी बनाई।
इसके बाद 1959 में बिहार, राजस्थान, गुजरात और ओडिशा में कांग्रेस टूटी। यह सिलसिला लगातार जारी रहा। 1964 में केएम जॉर्ज ने केरल कांग्रेस बनाई। 1967 में चौधरी चरणसिंह ने काँग्रेस से अलग होकर भारतीय क्रांति दल बनाया बाद में इन्होंने ही लोकदल पार्टी बनाई। काँग्रेस से अलग होकर वजूद या पार्टी बनाने वाले कई दिग्गजों ने वापसी भी की तो कुछ ने नए दल के साथ पहचान बनाई। जैसे प्रणब मुखर्जी, अर्जुन सिंह, माधव राव सिंधिया, नारायणदत्त तिवारी, पी. चिदंबरम, तारिक अनवर ऐसे कुछ प्रमुख नाम हैं जो कांग्रेस छोड़कर तो गए लेकिन लौट भी आए। भले ही पीछे किन्तु-परन्तु कुछ भी हो। इनके उलट ममता बनर्जी, शरद पवार, जगन मोहन रेड्डी्, मुफ्ती मोहम्मद सईद, अजीत जोगी ऐसे नेता बने जिन्होंने कांग्रेस से बगावत कर अपनी पहचान और मजबूत की।
ये बातें अब सालों साल पुरानी हो गई हैं। अब काँग्रेस से अलग होकर सीधे प्रमुख प्रतिद्वन्दी भाजपा में शामिल होने जैसे नेताओं में होड़ सी लग गई है जिनमें तमाम दिग्गज काँग्रेसी बल्कि कहें अपने-अपने इलाके के स्तंभ भी शामिल हैं। ज्योतिरादित्य सिंधिया, जितिन प्रसाद, हार्दिक पटेल, सुनील जाखड़, चौधरी वीरेन्द्र सिंह, रीता बहुगुणा जोशी समेत कई नाम हैं। पंजाब में कैप्टेन अमरिन्दर ने भी अपनी उपेक्षा के चलते नई पार्टी पंजाब लोक कांग्रेस (पीएलसी) बना डाली। राजनीतिक गलियारों की चर्चा को सही मानें तो इसका भी विलय भाजपा में हो जाए तो चौंकाने वाला कुछ नहीं होगा। इसी तरह गुलाम नबी आजाद का भी नई पार्टी का ऐलान जम्मू-कश्मीर में खुद को मजबूत करने वाला कदम है। यहाँ वह शायद ही भाजपा के साथ चुनावी गठबन्धन करें क्योंकि चुनाव बाद की परिस्थियों को देख किंग मेकर की भूमिका में जरूर आएंगे। अभी से ऐसे कयास दूर की कौड़ी ही है। दलबदल के चलते भारत में सत्ता परिवर्तन अब आम बात हो गई है।
दलबदल का सबसे बड़ा उदाहरण 1980 में दिखा। जब 21 जनवरी की रात भजनलाल अपने समर्थक विधायकों के साथ इंदिरा गांधी के दिल्ली दरबार पहुँचे और उनके गुट को कांग्रेस में शामिल करने की मंजूरी मिल गई। सुबह हुई तो पता चला कि रात तक प्रदेश में जनता पार्टी सरकार थी जो सुबह काँग्रेस सरकार में तब्दील हो गई। इस तरह रातों-रात जनता पार्टी सरकार का वजूद ही खत्म हो गया। भारत के इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ कि किसी मुख्यमंत्री ने अपने मंत्रियों समेत ही पार्टी बदल ली। बस यही सिलसिला अब भी जारी है जिसमें वक्त के साथ तौर तरीकों में थोड़ा बदलाव जरूर आया है। हाँ, इस सच को कुबूलना ही होगा कि आजादी के बाद कांग्रेस से टूटकर करीब 70 से ज्यादा दल बन चुके हैं। कई खत्म हो गए तो कई कायम हैं। यही सिलसिला अब भी जारी है। सच तो यह है कि केवल काँग्रेस ही नहीं दूसरे राजनीतिक दलों में आयाराम-गयाराम का सिलसिला बेध़ड़क चल रहा है। इतना जरूर है कि देश के बड़े, पुराने और अहम राजनीतिक दलों में शुमार होने के चलते काँग्रेस में उठा-पटक होने पर थोड़ा ज्यादा हल्ला मचता है।
सच तो यह भी है कि काँग्रेस को लेकर जनमानस के मन में नकारात्मक भाव 1970 से ही आने शुरू हो गए और इसी कारण मजबूत विकल्प के रूप में भाजपा उभरनी शुरू हुई। काँग्रेस ने अपने खिसकते जनाधार पर ध्यान नहीं देकर हमेशा और हर जगह व्यक्तिवादी राजनीति बढ़ाई। चाहे देश का संदर्भ लें, प्रदेशों को देखें या जिले। यहाँ तक कि तहसील, ब्लॉक, शहर, नगर तक में पार्टी पर हमेशा और लंबे समय तक जनभावनाओं से इतर बस खास लोगों का गुट और वर्चस्व की राजनीति ही दिखी है फिर चाहे पार्टी सत्ता में हो या नहीं। इसी का फायदा भाजपा को भरपूर मिला और उसने लोगों से जुड़ने और जोड़ने का काम किया। कभी देश में महज दो लोकसभा सीट जीतने वाली भाजपा आज दुनिया का सबसे बड़ा राजनीतिक दल है। काँग्रेस ने देश के इसी मिजाज को समझ कर अनदेखी की जिसका खामियाजा सामने है।
इस साल के आखिर में गुजरात, हिमाचल प्रदेश तो 2023 में मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़, कर्नाटक, तेलंगाना, त्रिपुरा, मेघालय, नागालैंड और मिजोरम विधानसभा चुनाव हैं। इसके बाद 2024 के आमचुनाव होंगे। तेलंगाना छोड़ बांकी जगह कांग्रेस का सीधा मुकाबला भाजपा से है। गुजरात में कांग्रेस को दोहरी चुनौती है क्योंकि जीती नहीं तब भी दूसरे नंबर आना होगा जो आम आदमी पार्टी के चलते आसान नहीं दीखता। अभी से अगले आमचुनाव में 40-50 सीट और 20 प्रतिशत से भी कम वोट का खतरा मंडरा रहा है। 2014 और 2019 के नतीजों का विश्लेषण भी इशारा है और हकीकत भी। बेचैनी स्वाभाविक है क्योंकि ऐसा हुआ तो प्रमुख विपक्षी दल होने का दाँव भी हाथ से निकल जाएगा। भाजपा का काँग्रेस मुक्त भारत का दावा थोथा नहीं है। शायद यही वो कारण है जो राजनीति की नब्ज को पहचानने वाले अवसरवादी पहले ही खतरे को भाँप अपना नया ठौर चुनने या बनाने खातिर ठीकरा राहुल गाँधी पर फोड़ चलता हो रहे हों।
राहुल गांधी 7 सितंबर से कन्याकुमारी से भारत जोड़ो यात्रा की शुरुआत कर रहे हैं। यात्रा 150 दिनों में 3750 किमी दूरी तय करेगी और जम्मू होकर श्रीनगर में खत्म होगी। यह सब काफी पहले होना था। लेकिन ठीक है देर आयद, दुरुस्त आयद। काँग्रेस का यह असल संक्रमण काल है। उसे अपने पराए और अवसरवादियों को पहचान खुद ही अलग करना होगा। बरसों से पदों पर बैठे झुर्रीदार क्षत्रपों, लेटर बम बाजों, विज्ञप्तिवरों के अलावा चरण वन्दन की राजनीति कर ढ़िठाई दिखाने वाले फुस्सी बमों को खुद ही फोड़ना होगा। ज्यादा से ज्यादा युवाओं तथा नए लोगों को जोड़ना होगा वरना बिखरने का यही सिलसिला यूँ ही चलता रहेगा चाहे यात्रा नहीं निरंतर महायात्राएं कर ले। ठीकरा भी उसी पर होगा जो मुखिया रहेगा। मजबूत लोकतंत्र के लिए दमदार विपक्ष जरूरी है। कितना अच्छा होता कि काँग्रेस राजनीति के लिए नहीं लोकतंत्र के लिए खुद को मजबूत कर पाती!
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।)