निर्मल रानी
देश में इन दिनों गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित राम चरित मानस को लेकर बड़ा विवाद छिड़ा हुआ है। जहां देश का बहुसंख्य हिन्दू समाज रामचरितमानस को अपना सम्मानित धर्मग्रंथ मानता है वहीं इसी बहुसंख्य हिन्दू समाज में ही एक बड़ा वर्ग ऐसा भी है जो रामचरितमानस में रचित व प्रकाशित कुछ श्लोकों व चौपाइयों को हिन्दू समाज के दलित,शूद्र,पिछड़े यहां तक कि महिलाओं व ग्रामीणों के अपमान के रूप में भी देखता है। मज़े की बात तो यह है कि इतने अंतर्विरोधों के बावजूद देश के इसी बहुसंख्य हिन्दू समाज का लगभग प्रत्येक वर्ग अपने दुख सुख अथवा आराधना के समय इसी रामचरितमानस को अपना सम्मानित धर्मग्रंथ मानते हुये इसी का पठन-पाठन करता आ रहा है। हालांकि रामचरितमानस की आलोचना के स्वर भी दशकों से उठते तो ज़रूर रहे हैं परन्तु वे इतने प्रबल स्वर नहीं थे जितने अब सुनाई दे रहे हैं। यहां तक कि विगत 29 जनवरी को उत्तर प्रदेश में कुछ राजनैतिक दलों के नेताओं द्वारा रामचरितमानस की प्रतियां जलाने तक की नौबत आ गयी और लखनऊ पुलिस ने कुछ आरोपियों पर राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम व अन्य आपराधिक धाराओं के तहत कार्रवाई करते हुये उन्हें हिरासत में भी ले लिया । इतना ही नहीं बल्कि रामचरितमानस की प्रतियां जलाने से रुष्ट कुछ संतों ने रामचरितमानस की प्रतियां जलाने वालों का सिर काटने पर इनाम की राशि भी घोषित कर दी।
यदि इसी तरह की घटनाओं को हम वैश्विक सन्दर्भ में देखें तो पूर्व में भारत से लेकर विश्व के अनेक पश्चिमी देशों में मुसलमानों के पवित्र ग्रन्थ क़ुरआन शरीफ़ को जलाने की घटनायें भी होती रही हैं। क़ुरआन शरीफ़ की आलोचना करने वालों का भी यह तर्क रहता है कि इसमें दर्ज विभिन्न ‘आयतों’ में ग़ैर मुस्लिमों,काफ़िरों व मुशरिकों पर ज़ुल्म ढहाने की सीख दी गयी है। क़ुरआन और इस्लाम के यही आलोचक दुनिया में घटित होने वाली किसी भी हिंसक या आतंकी कार्रवाई को बड़ी ही आसानी से ‘क़ुरआन की सीख’ से जोड़ देते हैं। हर आतंकी घटना को जिहादी घटना बताने लगते हैं। और जब कहीं भी क़ुरआन शरीफ़ को अपमानित करने उसे फाड़ने या जलाने जैसी घटनायें होती हैं। इसे ईश निंदा बताया जाता है। उसी समय विश्व इस्लामी जगत में ऐसी घटनाओं पर तीखी प्रतिक्रियाएँ शुरू हो जाती हैं। प्रदर्शन,जुलूस,धरने यहाँ तक कि बड़े पैमाने पर हिंसक प्रदर्शन तक होने लगते हैं।
रामचरितमानस की आलोचना हो अथवा क़ुरआन का विरोध,जब भी ऐसे स्वर बुलंद होते हैं फ़ौरन दोनों ही धर्मों के स्वयंभू धर्मगुरु इन धर्मग्रंथों के ‘पैरोकार ‘ के रूप में सामने तो ज़रूर आ जाते हैं परन्तु प्रायः उनकी भूमिका भी इन्हीं धर्मग्रंथों के ‘अंध भक्त’ की ही होती है। वे उन आयतों,चौपाइयों व श्लोकों पर स्पष्टीकरण नहीं देते जिनपर लोगों को आपत्ति है या जिनपर उन्हें संदेह है। बजाये इसके वे आलोचक का मुंह बंद करने उसका सिर क़लम करने,उसपर धर्मग्रंथों की तौहीन करने या धर्म का अपमान करने जैसे आरोप लगाकर उसे नीचा दिखाना व उसे धर्म विशेष का विरोधी साबित करना चाहते हैं। धर्मग्रंथों की विवादित बातों को यथावत रखने के पीछे ऐसे ‘धर्माधिकारी’ यह तर्क भी देते हैं कि जो धर्म ग्रन्थ उनके पूर्वजों द्वारा संकलित किया अथवा लिखा गया है उसमें परिवर्तन या छेड़ छाड़ करने का अधिकार किसी को नहीं। क़ुरान के आलोचक जहां क़ुरआनी शिक्षा में ग़ैर मुस्लिमों,काफ़िरों व मुशरिकों पर ज़ुल्म ढहाने के साथ ही इस्लाम को सर्वोच्च व सर्वश्रेष्ठ समझने की सीख देने वाला धर्मग्रंथ होने का आरोप लगाते हैं वहीं रामचरितमानस के आलोचक इसे भी जातिवाद फैलाने व सामाजिक ताना बाना बिगाड़ने वाला धर्मग्रंथ बताते हैं।
परन्तु ऐसा नहीं लगता कि विभिन्न धर्मों के धर्मगुरुओं द्वारा इन आलोचनाओं से बचने का कभी कोई ठोस व कारगर उपाय किया गया हो या ऐसे विवादित विषयों को लेकर होने वाली आलोचनाओं का कोई संतोषजनक जवाब दिया गया हो। उनकी आलोचना करने वाले समाज को तर्कों से संतुष्ट करने की कोशिशें की गयी हों। केवल सिर क़लम कर दो,मार दो,आग लगा दो,फ़तवा जारी कर दो आदि प्रतिक्रियायें ज़रूर सुनी गयी हैं। इससे तरह हिन्दू धर्म में व्याप्त वर्ण व्यवस्था,जातिवाद ऊंच नीच आख़िर धार्मिक शिक्षा की देन नहीं तो और क्या है ? परन्तु ऐसी व्यवस्थायें जिन्हें ऊँचा स्थान देती हैं,जिन्हें इनसे फ़ायदा पहुँचता है जिन लोगों को ऐसी व्यवस्था में ही अपना वर्चस्व नज़र आता है वे तो ऐसे धर्मग्रंथों व उनमें लिखी गयी प्रत्येक बातों का अक्षरशः समर्थन व सम्मान करते हैं और जिन्हें इनमें अपना अपमान नज़र आता है वे इनमें सुधार या परिवर्तन की मांग करते या इनकी आलोचना करते हैं।
धर्म व धर्मग्रंथों से जुड़ा एक कड़ुवा सच यह भी है कि प्रायः आक्रांताओं,शासकों,राजनेताओं व कमज़ोर सत्ता भोगियों द्वारा भी इनका इस्तेमाल हथकण्डे के रूप में किया जाता रहा है। जो भी आक्रांता,शासक या राजनेता अपनी जन हितैषी नीतियों के बल पर समग्र समाज का दिल नहीं जीत सका उसने अपनी लोकप्रियता अर्जित करने के शॉर्ट कट रास्ते के रूप में धर्म के मुखौटे को धारण कर लिया और ‘संकीर्णता का केचुल’ पहन कर आसानी से किसी धर्म जाति या वर्ग विशेष का ‘सरग़ना ‘ बन बैठा। शताब्दियों से यही खेल राजनेताओं व स्वयंभू धर्माधिकारियों के संयुक्त नेटवर्क द्वारा खेला जाता रहा है। परिणाम स्वरूप पूरे विश्व में प्राकृतिक आपदाओं व महामारियों से भी अधिक लोग धर्म समुदाय व जाति संबंधी हिंसा में मारे जा चुके हैं और आज भी मारे जा रहे हैं। राम,कृष्ण,ईसा मुहम्मद,नानक जैसे महापुरुषों ने बेगुनाहों पर ज़ुल्म ढहाने की सीख दी हो इस बात की तो कल्पना नहीं की जा सकती परन्तु धर्म व धर्मग्रंथों के ठेकेदारों व हिंसा पर उतारू इनके आलोचकों की गतिविधियों व इनकी विध्वंसकारी मंशा को देखकर मशहूर शायर साग़र ख़ैय्यामी की यह पंक्तियाँ बिल्कुल सटीक प्रतीत होती हैं –
ऐसी कोई मिसाल ज़माने ने पाई हो ? हिन्दू के घर में आग ख़ुदा ने लगाई हो ?
बस्ती किसी की राम ने यारों जलाई हो? नानक ने राह सिर्फ़ सिखों को दिखाई हो?
राम-ो रहीम -ो नानक -ो ईसा तो नर्म हैं। चमचों को देखिये तो पतीली से गर्म हैं।।