डॉ राजाराम त्रिपाठी; राष्ट्रीय संयोजक : अखिल भारतीय किसान महासंघ (आईफा)
- क्या नीरव मोदी, ललित मोदी को नहीं मिला ‘मोदी’ होने का किंचित भी अनुचित लाभ ?
- न्यायालयीन निर्णयों पर सत्ता के परोक्ष या अपरोक्ष प्रभाव से न्याय तथा निर्णय दोनों हो जाते हैं दूषित
- सरकारी एजेंसियां विपक्षी नेताओं के खिलाफ ‘गाइडेड मिसाइल’ की भांति कर रही हैं कार्य ?
- 15-15 सालों से सत्ता की मलाई खाए मुटियाए नेतागण सत्ता के अभेद्य रक्षा कवच में सरकारी एजेंसियों के शिकंजों से कैसे हैं सुरक्षित?
- न्यायपालिका पर सत्ता के दबाव की खबरें तैर रही हैं हवा में,स्वस्थ लोकतंत्र के लिए यह है बेहद ही अशुभ लक्षण
- सत्ताधारी हों या विपक्षी दल यह न भूलें कि ‘साहेब! यह पब्लिक है जो सब जानती है’
राहुल गांधी को अधिकतम सजा तथा संसद की सदस्यता रद्द करने की अप्रत्याशित तत्परता अभूतपूर्व है। इस निर्णय के कई निहितार्थ हैं,कुछ सामने हैं तो कुछ भविष्य के गर्भ में। न्यायालय ने भले राहुल गांधी को सजा सुना दी है पर यह मामला अब न्यायालयों की परिसीमा से निकलकर संप्रभु जनता की अदालत में भी विचाराधीन है। सत्ता के गलियारों में विशेषकर चुनाव के समय पक्ष विपक्ष में आरोप-प्रत्यारोप भारतीय राजनीति का अभिन्न अंग बन गये हैं। यह भी सही है कि इन आरोपों प्रत्यारोपों का स्तर दिनोंदिन गिरता जा रहा है। पहले भी नेता गण परस्पर व्यक्तिगत आक्षेप,आरोप लगाते थे किंतु तब कहीं न कहीं एक अघोषित मर्यादा थी। अब इन आरोपों-प्रत्यारोपों का स्तर इतना नीचे गिर गया है कि सारी मर्यादाएं तार-तार हो गई हैं। यह सही है कि किसी समुदाय को लेकर टिप्पणी करते समय नेताओं को समुदाय की भावनाओं का ध्यान रखना चाहिए । ऐसे मामलों में अब सभी नेताओं से और ज्यादा सतर्क रहने की उम्मीद की जाती है।
किंतु आम जनता के मन में यह भी सवाल भी तैर रहा है कि आखिर राहुल गांधी ने ऐसा क्या गलत कह दिया था जिसके लिए उन्हें 2 साल की कैद तथा संसद सदस्यता से हाथ धोना पड़े? क्या ललित मोदी नीरव मोदी आर्थिक अपराधी नहीं हैं? क्या मोदी होने का किंचित भी अनुचित लाभ उन्हें नहीं मिला? नीरव मोदी तो महा-गबन घोटाले के पहले माननीय प्रधानमंत्री जी के साथ डेलिगेशन्स में भी देखे गए थे। न्यायालय किसी भी कार्य न अपराध के पीछे ‘आशय’ भी देखता है,तो क्या राहुल गांधी का अभिप्राय सच में पूरे मोदी समुदाय की बेज्जती करना था , यह भी एक विचारणीय प्रश्न है? वैसे हाल के कुछेक वर्षों की नेताओं की प्रेस वार्ताओं और भाषणों की रिकार्डिंग की अगर निष्पक्ष जांच की जाए तो यह स्पष्ट हो जाएगा कि छुटभैय्यों की तो बात छोड़िए, कई बड़े स्वनाम धन्य नेतागण भी समय-समय पर व्यक्तिगत तथा विभिन्न समुदायों को लेकर आम सभाओं में, विशेषकर चुनावी रैलियों में खुले मंच से अनुचित अमर्यादित टिप्पणियां करते रहे हैं। टीवी चैनलों पर राजनीतिक पार्टियों के प्रवक्ता प्रायः मर्यादा सारी लक्ष्मण रेखाएंजाते हैं। अगर मुकदमा दर्ज करने की बात हो तो टीवी चैनलों से ही हमें प्रतिदिन ऐसे सैकड़ों उदाहरण मिल जाएंगे। यह अलग बात है कि ज्यादातर ऐसे मामले न्यायालयों तक नहीं पहुंचे। किंतु अमर्यादित टिप्पणी के द्वारा किसी व्यक्ति ,संस्था अथवा समुदाय की गरिमा को जानबूझकर ठेस पहुंचाये जाने के कृत्य को किसी भी भांति उचित नहीं ठहराया जा सकता । देश में मानहानि के बहुसंख्य मामले विभिन्न न्यायालयों में लंबे समय लंबित रहे हैं, जिनके निर्णय तक पहुंचने का प्रतिशत आश्चर्यजनक रूप से बेहद न्यून है। हमारा संविधान कहता है कि कानून से ऊपर कोई भी नहीं है, होना भी नहीं चाहिए। किंतु न्यायालयीन निर्णय भी निर्मल तथा पारदर्शी होने चाहिए और यह जैसे हैं, वैसे जनता को दिखाई भी देना चाहिए। माना जाता है कि,सत्य का अनिवार्य गुण है कि वह सत्य दिखना भी चाहिए। न्यायालयीन निर्णयों पर सत्ता का प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष प्रभाव होने पर न्याय तथा निर्णय दोनों दूषित हो जाते हैं। जनता यह देख रही है कि पिछले कुछ समय से कई सरकारी एजेंसियां विपक्ष के नेताओं के खिलाफ अभूतपूर्व तेजी से गाइडेड मिसाइल की भांति कार्य कर रही हैं, जबकि देश में सत्तारूढ़ दलों के सारे नेता, यहां तक कि कई राज्यों के 15-15 सालों से सत्ता की मलाई खाकर अघाए, मुटियाए समस्त नेतागण सभी सरकारी एजेंसियों के शिकंजे से सत्ता के अभेद्य रक्षा कवच में पूरी तरह सुरक्षित हैं। न्यायपालिका पर भी सत्ता के दबाव की खबरें बार-बार हवा में तैर रही हैं, जो कि स्वस्थ लोकतंत्र के लिए बेहद ही अशुभ लक्षण है। प्रायः ‘कांग्रेस विहीन भारत अथवा अमुक पार्टी विहीन भारत’ के लक्ष्य प्राप्ति के अपने मिशन की बात सत्तारूढ़ पार्टी के नेता गण दुहराते रहते हैं। बड़ा सवाल यह है कि क्या आपका विश्वास देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था पर नहीं है? भारतीय लोकतंत्र में विपक्ष विहीन व्यवस्था आखिर क्यों चाहते हैं आप? यह रास्ता तो सीधे तानाशाही की ओर जाता है, जोकि देश की जनता को किसी कीमत पर स्वीकार्य नहीं है। और यह भी नहीं भूलें कि,भारत की जनता बड़ी संवेदनशील है, उसने कई बार यह सिद्ध किया है कि, उसकी सहानुभूति अंततः पिटते पहलवान की ओर ही होती है।
राहुल गांधी के मामले में न्यायालयीन दांवपेचो में सभी स्तर पर कांग्रेस पार्टी का ढीला व सुस्त रवैया भी कई प्रश्न खड़े करता है। इस निर्णय का कांग्रेस पार्टी, विपक्षी दलों की एकता तथा सत्ताधारी पार्टी को क्या नफा नुकसान होगा तो आने वाला समय ही बताएगा। लेकिन चाहे सत्ता पक्ष हो अथवा विपक्ष हो अथवा न्यायालय हों या फिर सरकारी एजेंसियां हों, सभी अंततः इस संप्रभुता संपन्न राष्ट्र की संप्रभु जनता के प्रति ही उत्तरदाई हैं। अतएव सभी को यह ध्यान रखना चाहिए कि ‘साहेब ! यह पब्लिक है जो सब जानती है’। इससे ज्यादा देर तक कुछ भी छुपा नहीं रहता। इसलिए हमारे महान लोकतंत्र के चारों पवित्र स्तंभों तथा लोकतंत्र के सभी पहरुओं को देश और देश की संप्रभु जनता के प्रति अपने उत्तरदायित्व को पूरी ईमानदारी और पारदर्शिता के साथ निभाना चाहिए।
डॉ राजाराम त्रिपाठी,
राष्ट्रीय संयोजक: अखिल भारतीय किसान महासंघ, (आईफा)