सुरेश हिन्दुस्थानी
राजनीति में कब क्या हो जाए कुछ भी विश्वास के साथ नहीं कहा जा सकता। आज से कुछ ही दशक पूर्व जिस प्रकार से विपक्ष के राजनीतिक दल कांग्रेस को सत्ता से हटाने के लिए भरसक प्रयास करते थे, वैसे ही प्रयास आज भी हो रहे है। इस बार के प्रयासों में कांग्रेस और जुड़ गई है। विगत दो लोकसभा के चुनावों के परिणाम स्वरूप देश में जो राजनीतिक हालात बने हैं, उसमें स्वाभाविक रूप से विपक्ष अपनी जमीन को बचाने की कवायद करने की ओर चिंतन और मंथन करने लगा है। इसके लिए विपक्षी एकता के फिर से प्रयास भी होने लगे हैं। एकता के प्रयोग के लिए इस बार बिहार की भूमि को चुना है। इसलिए स्वाभाविक रूप से कहा जा सकता है कि इस प्रयास में बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार मुखिया की भूमिका में होंगे। हालांकि नीतीश कुमार के बारे में राजनीतिक विश्लेषक यह खुले तौर से स्वीकार करने लगे हैं कि नीतीश कुमार अपनी स्वयं की राह पर ही चलते है, ऐसे में वे दूसरे दलों की कितना मानेंगे, इस बारे में राजनीतिक अस्पष्टता का भी आभास होता है। हम यह भली भांति जानते हैं कि बिहार में कभी भाजपा के साथ तो कभी भाजपा के विरोधी दलों के साथ चुनावी मैदान में नीतीश कुमार ने दांव खेला। दोनों ही स्थितियों में नीतीश कुमार अपनी सत्ता को बचाने में सफल भी हुए। यहां यह विश्लेषण का विषय हो सकता है कि नीतीश कुमार ने जब पहली बार बिहार की सत्ता संभाली, तब वह लालू प्रसाद यादव की पार्टी राष्ट्रीय जनता दल के खिलाफ चुनाव लड़े और वही उनके राजनीतिक शत्रु भी थे। लेकिन इस बार स्थिति बदली है। अब नीतीश कुमार राष्ट्रीय जनता दल के केवल साथ ही नहीं, बल्कि उनको सरकार का हिस्सा भी दिया है। ऐसे में उनका सारा दारोमदार अब भाजपा के विरोध में है।
केंद्र में जब से भाजपा सरकार में आई है, तब से ही विपक्ष का जनाधार खिसका है। एक दो राज्यों को छोड़ दिया जाए तो आज भी कांग्रेस की स्थिति स्वयं की दम पर चुनाव में विजय प्राप्त करने की नहीं है। हालांकि अभी हाल ही में कर्नाटक ने कांग्रेस को राजनीतिक आकाश में उड़ने का हौसला दिया है, जिसके आधार पर कांग्रेस केंद्र में सत्ता परिवर्तन की गुंजाइश भी देखने लगी है, लेकिन विसंगति यह है कि कांग्रेस के अंदर ही आपस में उठापटक की नूराकुश्ती चल रही है। इसमें प्रादेशिक नेताओं में भले ही एक दूसरे को पटखनी देने की कवायद हो रही हो, लेकिन इस स्थिति में कांग्रेस को नुकसान भी उठाना पड़ सकता है। कर्नाटक में सत्ता का संचालन करने लिए जिस प्रकार से सिद्धारमैया और शिवकुमार के बीच रस्साकशी का खेल चला, उससे कांग्रेस की स्थिति का पता भी चल जाता है। विपक्षी एकता के प्रयासों के लिए कांग्रेस की कवायद केवल इतनी ही है कि वह क्षेत्रीय दलों की पिछलग्गू बनी रहेगी। इसके बाद भी कांग्रेस का प्रयास यही रहेगा कि यह विपक्षी एकता कांग्रेस के राहुल गांघी के नेतृत्व में हो। लेकिन ऐसा होना असंभव ही है। कहा तो यह भी जा रहा है कि विपक्ष बिना प्रधानमंत्री पद के दावेदार के चुनाव लड़ सकता है, लेकिन इसके बाद प्रधानमंत्री पद के लिए खींचतान होगी ही, इसे तय माना जाना चाहिए।
जहां तक राजनीतिक महत्वाकांक्षा की बात है तो विपक्ष के राजनीतिक दलों के मुखिया अपने आपको दूसरे दल से श्रेष्ठ बताने का खेल भी खेलेंगे। हम जानते ही हैं कि विपक्षी दलों में कोई किसी से पीछे रहना नहीं चाहता। चाहे वह राहुल गांधी हों, नीतीश कुमार हों या फिर ममता बनर्जी, चाहे शरद पवार हों या फिर अखिलेश यादव। या फिर जिनका जनाधार खिसक गया हो, ऐसे वामपंथी नेता ही क्यों न हो। सब के सब स्वयं नेतृत्व करने की सोच रहे होंगे। इसमें अभी प्रमुख नाम ही लिए हैं। हो सकता है कि और भी फारूक अब्दुल्ला और महबूबा मुफ्ती जैसी नेता हों जो ऐसे ही सपने बुन रहे हों। कुल मिलाकर यही कहा जा सकता है कि विपक्षी एकता के प्रयास तभी किए जाते हैं, जब राजनीतिक दल अकेले दम पर कमजोर महसूस करते हैं। उल्लेखनीय है कि एकता के यह प्रयास विपक्ष की कमजोरी को ही प्रदर्शित करने वाले हैं। कम से कम संदेश तो यही जा रहा है।
विपक्षी एकता के यह प्रयास कितने सफल होंगे, इसका अनुमान लगाना फिलहाल कठिन है। अगर यह प्रयास सफल भी हो गए तो क्षेत्रीय राजनीतिक दल भी यह सपने देख सकते हैं कि हो सकता है कि देवेगौड़ा की तरह उनका भी नंबर आ सकता है। इस बारे में कांग्रेस की ओर से राहुल गांधी को लेकर एक अभियान सा चलाया जा रहा है, लेकिन ममता बनर्जी और नीतीश कुमार पीछे रहेंगे, इससे इनकार नहीं किया जा सकता। यह बात सही है कि आगे बढ़ने के सपने हर किसी को देखना चाहिए, यह स्वाभाविक भी है।
लेकिन यह स्वस्थ परंपराओं के साथ हो तो और भी अच्छा रहेगा। केवल किसी को हराने के लिए इस प्रकार की राजनीति करना न तो स्वयं के हित में होगी और न ही देश में सकारात्मक संदेश ही देने में समर्थ होगी। आज विपक्ष का एक मात्र एजेंडा यही है कि कैसे भी हो भाजपा को हराया जाए और खुद सत्ता के शिखर पर स्थापित हो जाएं। वास्तव में होना यह चाहिए कि विपक्षी दल अपनी योजना देश के सामने रखें और हराने की नहीं, बल्कि जीतने की मानसिकता के साथ मैदान में उतरें। अगर ऐसा न हो सका तो फिर वही ढाक के तीन पात वाली कहावत ही चरितार्थ होगी। विपक्षी दलों आज इस बात का गंभीर चिंतन करना चाहिए कि आखिर ऐसी स्थिति क्यों बनी कि लगातार संकुचन की ओर कदम बढ़ते जा रहे हैं। जहां तक क्षेत्रीय राजनीतिक दलों की बात है तो उनके संकुचन के लिए यह तर्क दिया जा सकता है कि उनका प्रभाव एक क्षेत्र विशेष तक सीमित है। इसलिए उन्हें केवल एक क्षेत्र में ही सारा जोर लगाना होगा, तभी उनका राजनीतिक अस्तित्व बरकरार रह सकता है। इसलिए इस बार के चुनाव में ज्यादा फोकस कांग्रेस पर ही होगा, क्योंकि एक समय वह पूरे देश में थी, आज गिनती की रह गई है। दूसरा कांग्रेस की विसंगति यह भी है कि क्षेत्रीय दल उसे किस रूप में स्वीकार करेंगे। हम जानते ही हैं कि बिहार में जनता दल यूनाइटेड और राष्ट्रीय जनता दल कांग्रेस से ज्यादा सीट अपने पास ही रखेंगे। उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल में भी लगभग ऐसी ही स्थिति रहेगी। ऐसे में कांग्रेस के पास मन को समझाने के अलावा कोई विकल्प नहीं रहेगा।
(लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं)