संघ में गुरु , गुरुपूर्णिमा व गुरुदक्षिणा का महत्त्व

Importance of Guru, Guru Purnima and Gurudakshina in the Sangha

अशोक भाटिया

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक डॉ। केशवराव बलिराम हेडगेवार ने 1925 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना के समय भगवा ध्वज को गुरु के रूप में प्रतिष्ठित किया। इसके पीछे मूल भाव यह था कि व्यक्ति पतित हो सकता है पर विचार और पावन प्रतीक नहीं। विश्व का सबसे बड़ा स्वयंसेवी संगठन गुरु रूप में इसी भगवा ध्वज को नमन करता है। पर्वों, त्योहारों और संस्कारों की भारतभूमि पर गुरु का परम महत्व माना गया है। गुरु शिष्य की ऊर्जा को पहचानकर उसके संपूर्ण सामर्थ्य को विकसित करने में सहायक होता है। गुरु नश्वर सत्ता का नहीं, चैतन्य विचारों का प्रतिरूप होता है। रा। स्व। संघ के आरम्भ से ही भगवा ध्वज गुरु के रूप में प्रतिष्ठित है।

भारतभूमि के कण-कण में चैतन्य स्पंदन विद्यमान है। पर्वों, त्योहारों और संस्कारों की जीवंत परम्पराएं इसको प्राणवान बनाती हैं। तत्वदर्शी ऋषियों की इस जागृत धरा का ऐसा ही एक पावन पर्व है गुरु पूर्णिमा। हमारे यहां ‘अखंड मंडलाकारं व्याप्तं येन चराचरं…तस्मै श्री गुरुवे नम:’ कह कर गुरु की अभ्यर्थना एक चिरंतन सत्ता के रूप में की गई है। भारत की सनातन संस्कृति में गुरु को परम भाव माना गया है जो कभी नष्ट नहीं हो सकता, इसीलिए गुरु को व्यक्ति नहीं अपितु विचार की संज्ञा दी गई है। इसी दिव्य भाव ने हमारे राष्ट्र को जगद्गुरु की पदवी से विभूषित किया। गुरु को नमन का ही पावन पर्व है गुरु पूर्णिमा (आषाढ़ पूर्णिमा)।

गुरु’ स्वयं में पूर्ण है और जो खुद पूरा है वही तो दूसरों को पूर्णता का बोध करवा सकता है। हमारे अंतस में संस्कारों का परिशोधन, गुणों का संवर्द्धन एवं दुर्भावनाओं का विनाश करके गुरु हमारे जीवन को सन्मार्ग पर ले जाता है। गुरु कौन व कैसा हो, इस विषय में श्रुति बहुत सुंदर व्याख्या करती है-‘विशारदं ब्रह्मनिष्ठं श्रोत्रियं…’ अर्थात् जो ज्ञानी हो, शब्द ब्रह्म का ज्ञाता हो, आचरण से श्रेष्ठ ब्राह्मण जैसा और ब्रह्म में निवास करने वाला हो तथा अपनी शरण में आये शिष्य को स्वयं के समान सामर्थ्यवान बनाने की क्षमता रखता हो। वही गुरु है। जगद्गुरु आद्य शंकराचार्य की ‘श्तश्लोकी’ के पहले श्लोक में सदगुरु की परिभाषा है-तीनों लोकों में सद्गुरु की उपमा किसी से नहीं दी जा सकती।

बौद्ध ग्रंथों के अनुसार भगवान बुद्ध ने सारनाथ में आषाढ़ पूर्णिमा के दिन अपने प्रथम पांच शिष्यों को उपदेश दिया था। इसीलिए बौद्ध धर्म के अनुयायी भी पूरी श्रद्धा से गुरु पूर्णिमा उत्सव मनाते हैं। सिख इतिहास में गुरुओं का विशेष स्थान रहा है। जरूरी नहीं कि किसी देहधारी को ही गुरु माना जाये। मन में सच्ची लगन एवं श्रद्धा हो तो गुरु को किसी भी रूप में पाया जा सकता है। एकलव्य ने मिट्टी की प्रतिमा में गुरु को ढूंढा और महान धनुर्धर बना। दत्तात्रेय महाराज ने 24 गुरु बनाये थे।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का गुरू दक्षिणा कार्यक्रम इस साल 10 जुलाई से शुरू हो रहा है , इसमें लाखों स्वयंसेवक और आरएसएस के समर्थक हिस्सा लेंगे। संघ शायद अकेला समाजसेवी संगठन होगा जो आर्थिक तौर पर आत्मनिर्भर है और किसी दूसरे से चंदा नहीं लेता। संघ से जुड़े लोग भी साल में केवल एक बार अपनी तरफ से दक्षिणा देते हैं, जिसे गुरु दक्षिणा कहा जाता है। हिंदू कैंलेडर के हिसाब से व्यास पूर्णिमा से रक्षाबंधन तक यानी एक महीने तक गुरू दक्षिणा का कार्यक्रम चलता है। इस दौरान स्वयंसेवक संघ में गुरू माने जाने वाले भगवा ध्वज के सामने यह समर्पण राशि रखते हैं। इसे गुप्त रखा जाता है यानी दक्षिणा की राशि और देने वाले का नाम सार्वजनिक नहीं किया जाता, लेकिन हर एक पैसे का पूरा हिसाब रखा जाता है। संघ की स्थापना तो साल 1925 में हुई लेकिन साल 1928 में गुरू पूजा का कार्यक्रम शुरू हुआ और तब से अनवरत चल रहा है। पहली बार हुई गुरू दक्षिणा में तो कुल 84 रुपये और पचास पैसे जमा हुए थे, लेकिन अब यह रकम कई सौ करोड़ से ऊपर हो गई है।

विदेशों में विश्व हिन्दू परिषद का काम देख रहे स्वामी विज्ञानानंद कहते हैं कि संघ सबसे कम खर्च से चलने वाला समाजसेवी संगठन है, शाखा चलाने के लिए क्या चाहिए सिर्फ़ एक डंडा और एक झंडा। डॉ। हेडगेवार ने शाखा के प्रचारकों और पदाधिकारियों के सादगी से चलने पर जोर दिया था।आमतौर पर वे प्रवास के दौरान संघ कार्यालयों या संघ से जुड़े लोगों के घरों पर ही रुकते हैं। किसी भी संगठन के खत्म होने, कमज़ोर होने या भ्रष्ट होने का सबसे बड़ा कारण आर्थिक तौर पर दूसरों या सरकारों पर निर्भर होना होता है, लेकिन डॉ। हेडगेवार ने संघ को आत्म निर्भर बनाया और इसके लिए गुरू दक्षिणा की परपंरा शुरू की।

डॉ। हेडगेवार पर बायोग्राफी लिखने वाले एन एच पल्हीकर के मुताबिक संघ में शुरुआत में सब लोग डॉ। हेडगेवार को गुरू के तौर पर स्वीकार करना चाहते थे, लेकिन डॉ। हेडगेवार ने इससे इनकार करते हुए कहा कि कोई भी व्यक्ति पूर्ण नहीं होता, उसमें दोष होते हैं, चाहे वो गुरू द्रोणाचार्य ही क्यों ना हो और तब हिन्दू धर्म में प्रतिष्ठित भगवा ध्वज को गुरू के तौर पर स्वीकार किया गया। संघ की शाखाएं, सभी कार्यक्रम भगवा ध्वज को प्रणाम से ही शुरू होते हैं और गुरू दक्षिणा भी भगवा ध्वज को ही समर्पित की जाती है।

संघ के सरकार्यवाह रहे एच।वी। शेषाद्रि ने अपनी पुस्तक में भगवा ध्वज और हिन्दू धर्म के इतिहास की पूरी व्याख्या की है। लेकिन महत्वपूर्ण यह है कि अब संघ में यह समर्पण राशि करोड़ों रुपये आती है और इसका इस्तेमाल संघ की गतिविधियों, प्रचारकों और पदाधिकारियों के खर्चे के अलावा संघ के विभिन्न कार्यक्रमों में इस्तेमाल होता है।

संघ से जुड़े विविध क्षेत्र के संगठन अपने खर्च के लिए राशि खुद जुटाते हैं, लेकिन संघ की शाखाओं में ब्लॉक से राष्ट्रीय स्तर तक इस राशि का बंटवारा किया जाता है और यह काम संघ का व्यवस्था विभाग देखता है।संघ को मिलने वाले पैसे और खर्च का हर साल ऑडिट होता है और पूरी राशि बैंकों में जमा होती है, लेकिन यह भी तथ्य है कि संघ रजिस्टर्ड संस्था नहीं है, इसलिए उसके नाम से कोई बैंक खाता नहीं बनाया जाता। कई बार संघ के आलोचक संघ के पैसे और कामकाज को लेकर पारदर्शिता रखने पर ज़ोर देते हैं।

संघ के विचारक दिलीप देवधर बताते हैं कि गुरू दक्षिणा का समर्पण इस नजरिए से गोपनीय होता है कि उसकी जानकारी किसी दूसरे को नहीं होती, लेकिन संघ में यह समर्पण राशि एक बंद लिफ़ाफ़े में देने वाले के नाम के साथ जमा होती है और उसका पूरा हिसाब व्यवस्था विभाग से जुड़ी कमेटी रखती है, इसलिए उसमें गड़बड़ी की कोई आशंका नहीं है। देवधर के मुताबिक संघ समर्पण में “सबसे पहले मन, फिर तन और फिर धन को प्राथमिकता” देता है और यही उसके लगातार आगे बढ़ने का रहस्य भी है।

अब संघ की समर्पण राशि का हिसाब समझिए। इस वक्त संघ से जुड़े करीब एक करोड़ स्वयंसेवक हैं और हर साल पचास हज़ार से ज़्यादा स्वयंसेवक नए जुड़ते हैं। आमतौर पर सभी स्वयंसेवक गुरू दक्षिणा देते हैं। नए स्वयंसेवकों में ज़्यादा जोश होता है। बताया गया कि इस बार चित्रकूट में हुई संघ की बैठक में गुरू दक्षिणा प्रतिदिन एक रुपये यानी 365 रुपये रखने का भी निर्णय हुआ है। इससे ज़्यादा राशि कोई भी अपनी सामर्थ्य के हिसाब से दे सकता है। इसके अलावा केन्द्र सरकार में मंत्री, राज्यों के मुख्यमंत्री और मंत्रियों के अलावा करीब 375 सांसद, डेढ़ हज़ार से ज्यादा विधायक बीजेपी के हैं।

संघ के एक विचारक ने बताया कि अब बीजेपी ने विश्वविद्यालयों के कुलपतियों, बोर्ड और निगमों में अध्यक्षों की नियुक्ति भी संघ की राय से करना तय कर लिया है तो वे लोग भी संघ के स्वयंसेवक ना होते हुए भी गुरू दक्षिणा कार्यक्रम में शामिल होते हैं। इसके साथ ही सहयोगी दलों के राजनेता भी समर्पण राशि भगवा ध्वज को भेंट करते हैं। देश के बहुत से उद्योगपति और बिजनेस घरानों के लोग भी गुरू दक्षिणा कार्यक्रम में शामिल होते हैं। संवैधानिक पदों पर बैठे लोग भी भले ही शाखा में सार्वजनिक तौर पर शामिल ना हों, लेकिन गुरू दक्षिणा कार्यक्रम में जरूर हिस्सा लेते हैं।

संघ की चित्रकूट में हुई बैठक के बाद अखिल भारतीय प्रचार प्रमुख सुनील आम्बेकर ने बताया कि इस समय देश भर में संघ की 39 हज़ार 454 शाखाएं हैं जिनमें से 27 हज़ार 166 अब खुले मैदान में शुरू हो गई हैं, 12 हज़ार 288 ई-शाखाएं चल रही हैं। 10,130 साप्ताहिक मिलन की बैठकें होती हैं और करीब दस हज़ार कुटुंब मिलन होते हैं। यानी देश-दुनिया में गुरू दक्षिणा कार्यक्रम में शामिल होने वालों की तादाद करोड़ों में होती है, इससे इस खाते में आने वाली राशि का अंदाज़ा भर लगाया जा सकता है, अब वो दिन नहीं रहे जब संघ पर साल 1948 में पहली बार लगे प्रतिबंध के बाद संघ चलाना मुश्किल हो गया था। अब संघ स्थान से लेकर मुख्यमंत्रियों के आवास तक भगवा ध्वज की गूंज सुनाई देती है।

अशोक भाटिया, वरिष्ठ स्वतंत्र पत्रकार ,लेखक, समीक्षक एवं टिप्पणीकार