महानगरों में बढ़ता जानलेवा प्रदूषण गंभीर चुनौती

Increasing deadly pollution in metropolitan cities is a serious challenge

ललित गर्ग

चिकित्सा विज्ञान से जुड़ी चर्चित अंतर्राष्ट्रीय पत्रिका लासेंट के हाल के अध्ययन में वायु प्रदूषण की बढ़ती विनाशकारी स्थितियों के आंकड़े न केवल चौंकाने वाले है बल्कि अत्यंत चिन्तातनक है। भारत के दस बड़े शहरों में हर दिन होने वाली मौतों में सात फीसदी से अधिक का मुख्य कारण हवा में व्याप्त प्रदूषण है। वहीं दुनिया में सबसे प्रदूषित राजधानी दिल्ली में यह आंकड़ा साढ़े ग्यारह प्रतिशत है। भारत के महानगरों में वायु प्रदूषण के रूप में पसर रही मौत के लिये सरकार एवं उनसे संबंधित एजेंसियांे की लापरवाही एवं कोताही शर्मनाक है, क्योंकि सरकार द्वारा 131 शहरों को आवंटित धनराशि का महज 60 फीसदी ही खर्च किया जाता है। गंभीर से गंभीरतर होती वायु प्रदूषण की स्थितियों के बावजूद समस्या के समाधान में कोताही चिन्ता में डाल रही है एवं आम जनजीवन के स्वास्थ्य को चौपट कर रही है। महानगरों में प्रदूषण का ऐसा विकराल जाल है जिसमें मनुष्य सहित सारे जीव-जंतु फंसकर छटपटा रहे हैं, जीवन सांसों पर छाये संकट से जूझ रहे हैं।

केंद्र सरकार ने वायु प्रदूषण एवं हवा में घुलते जहरीले तत्वों की चुनौती के मुकाबले के लिये राष्ट्रीय वायु स्वच्छता कार्यक्रम के क्रियान्वयन की घोषणा 2019 में की थी। जिसका मकसद था कि खराब हवा के कारण नागरिकों के स्वास्थ्य पर पड़ने वाले घातक प्रभाव को कम किया जा सके। सरकार की कोशिश थी कि देश के चुनिंदा एक सौ तीस शहरों में वर्ष 2017 के मुकाबले वर्ष 2024 तक घातक धूल कणों की उपस्थिति को बीस से तीस फीसदी कम किया जा सके। लेकिन विडम्बना है कि तय लक्ष्य हासिल नहीं हो सके। महानगरों-नगरों को रहने लायक बनाने की जिम्मेदारी केवल सरकारों की नहीं है, बल्कि हम सबकी है। हालांकि लोगों को सिर्फ एक जिम्मेदार नागरिक की भूमिका निभानी है, एंटीडस्ट अभियान को निरन्तर जीवन का हिस्सा बनाना होगा। लोगों को खुद भी पूरी सतर्कता बरतनी होगी। लोगों को खुली जगह में कूड़ा नहीं फैंकना चाहिए और न ही उसे जलाया जाए। वाहनों का प्रदूषण लेवल चैक करना चाहिए। कोशिश करें कि हम निजी वाहनों का इस्तेमाल कम से कम करें और सार्वजनिक वाहनों का उपयोग करें। आम जनता की जिंदगी से खिलवाड़ करने वाली पटाखे जलाने की भौतिकतावादी मानसिकता को विराम देना जरूरी है। प्रदूषण मुक्त पर्यावरण की वैश्विक अभिधारणा को मूर्त रूप देने के लिये इको फ्रेंडली दीपावली मनाने की दिशा में गत दो-तीन साल में कई पायदान हम ऊपर चढ़े हैं, एक सकारात्मक वातावरण बना। लेकिन पटाखों से ज्यादा खतरनाक हैं पराली का प्रदूषण। पराली आज एक राजनीतिक प्रदूषण बन चुका है। दिल्ली एवं पंजाब में एक ही दल ही सरकारें है, दूसरों पर आरोप लगाने की बजाय क्यों नहीं आम आदमी पार्टी की सरकार समाधान देती।

प्रदूषण से ठीक उसी प्रकार लड़ना होगा जैसे एक नन्हा-सा दीपक गहन अंधेरे से लड़ता है। छोटी औकात, पर अंधेरे को पास नहीं आने देता। क्षण-क्षण अग्नि-परीक्षा देता है। पर हां! अग्नि परीक्षा से कोई अपने शरीर पर फूस लपेट कर नहीं निकल सकता। इसके लिये शहरों में वृक्षारोपण करके हरियाली का दायरा बढ़ाना, कचरे का वैज्ञानिक प्रबंधन, इलेक्ट्रानिक वाहनों को प्रोत्साहन तथा इन वाहनों के लिये चार्जिंग स्टेशन बनाने जैसे प्रयास करने के सुझावों का क्रियान्वित करने की अपेक्षा है, इसके लिये जो कार्यक्रम प्रदूषण से ग्रस्त चुनिंदा शहरों में चलाया जाना था, लेकिन स्थानीय प्रशासन की तरफ से इस दिशा में कोई गंभीर प्रयास नहीं किया गया। जिससे समस्या उग्र से उग्रतर होती जा रही है। इसी कारण देश के अधिकांश शहर गंभीर वायु प्रदूषण की चपेट में हैं। लेकिन स्थानीय निकायों व प्रशासन ने संकट की गंभीरता को नहीं समझा। इस दिशा में अपेक्षित सक्रियता नजर नहीं आई। प्रश्न है कि पिछले कुछ सालों से लगातार इस महासंकट से जूझ रहे महानगरों को कोई समाधान की रोशनी क्यों नहीं मिलती? सरकारें एवं राजनेता एक दूसरे पर जिम्मेदारी ठहराने की बजाय समाधान के लिये तत्पर क्यों नहीं होते? प्रशासन अपनी जिम्मेदारी क्यों नहीं निभा पा रही है?

राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण बढ़ते प्रदूषण को नियंत्रित करने के लिये सक्रिय है, केंद्रीय पर्यावरण, वन तथा जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने भी प्रदूषण को नियंत्रित करने के लिये करीब साढ़े दस हजार करोड़ रुपये की राशि आवंटित की थी। लेकिन विडम्बना है कि पर्याप्त फण्ड होने के बावजूद सिर्फ साठ फीसदी राशि ही इस मकसद के लिये खर्च की गई। वहीं सत्ताईस शहरों ने बजट का तीस फीसदी ही खर्च किया। कुछ शहरों ने तो इस मकसद के लिये आवंटित धन का बिल्कुल उपयोग नहीं किया। कैसे समस्या से मुक्ति मिलेगी? जीवाश्म ईंधन के उपयोग, सड़कों पर निरंतर बढ़ते पेट्रोल-डीजल वाहन, सार्वजनिक यातायात की बदहाली व कचरे का ठीक से निस्तारण न होने से वायु प्रदूषण पर नियंत्रण के लक्ष्य हासिल करना जटिल होता जा रहा है। अब समस्या की विकरालता को देखते हुए केंद्र सरकार इस दिशा में नये सिरे से गंभीरता से पहल कर रही है, जिससे प्रदूषित शहरों को दी जाने वाली राशि का यथा समय अधिकतम उपयोग हो सके। पराली की समस्या को हल करने के लिए केंद्र सरकार की ओर से 1347 करोड़ रुपये और उपकरण दिए गए। अगर इस पर राजनीति करने की जगह ईमानदारी से काम होता तो प्रदूषण को कम करने की दिशा में हम कुछ कदम बढ़े होते।

वायु प्रदूषण एक जाना-पहचाना पर्यावरणीय स्वास्थ्य खतरा है। हम जानते हैं कि हम क्या देख रहे हैं जब भूरे रंग की धुंध शहर के ऊपर छा जाती है, व्यस्त राजमार्ग पर धुआँ निकलता है या धुएँ के ढेर से धुआँ निकलता है। वायु प्रदूषण मानव निर्मित और प्राकृतिक दोनों स्रोतों से उत्पन्न खतरनाक पदार्थों का मिश्रण है। वाहनों से निकलने वाला उत्सर्जन, घरों को वातानुकूलित करने के लिए ईंधन तेल और प्राकृतिक गैस, एसी का उपयोग, विनिर्माण और बिजली उत्पादन के उप-उत्पाद, विशेष रूप से कोयला-ईंधन वाले बिजली संयंत्र, और रासायनिक उत्पादन से निकलने वाले धुएं मानव निर्मित वायु प्रदूषण के प्राथमिक स्रोत हैं। बढ़ता प्रदूषण वैश्विक स्वास्थ्य और समृद्धि के लिए एक बड़ा खतरा है। वायु प्रदूषण सभी रूपों में, हर साल दुनिया भर में 6.5 मिलियन से अधिक मौतों के लिए जिम्मेदार है यह संख्या पिछले दो दशकों में बढ़ी है। भारत के महानगरों में यह अधिक विकराल होती जा रही है। उच्च वायु प्रदूषण से संबंधित सार्वजनिक स्वास्थ्य चिंताओं में कैंसर, हृदय रोग, श्वसन रोग, मधुमेह, मोटापा, तथा प्रजनन, तंत्रिका संबंधी और प्रतिरक्षा प्रणाली संबंधी विकार शामिल हैं।

वायु प्रदूषण बच्चों, महिलाओं और बुजुर्गों के लिए विशेष रूप से खतरनाक होने लगती है। महानगरों की हवा में उच्च सांद्रता है, जो बच्चों को सांस की बीमारी और हृदय रोगों की तरफ धकेल रही है। शोध एवं अध्ययन में यह भी पाया गया है कि दिल्ली जैसे महानगरों में रहने वाले 75.4 फीसदी बच्चों को घुटन महसूस होती है। 24.2 फीसदी बच्चों की आंखों में खुजली की शिकायत होती है। सर्दियों में बच्चों को खांसी की शिकायत भी होती है। बुजुर्गों का स्वास्थ्य तो बहुत ज्यादा प्रभावित होता ही है। हवा में कैडमियम और आर्सेनिक की मात्रा में वृद्धि से कैंसर, गुर्दे की समस्या और उच्च रक्तचाप, मधुमेह और हृदय रोगों का खतरा बढ़ जाता है। 300 से अधिक एक्यूआइ वाले शहरों की संख्या बढ़ती ही जा रही है। राष्ट्रीय राजधानी सहित अनेक महानगर क्षेत्र में रहने वाले सांस के रूप में जहर खींचने को क्यों विवश है, इसके कारणों पर इतनी बार चर्चा हो चुकी है कि उन्हें दोहराने की आवश्यकता नहीं। निस्संदेह, राज्यों के शासन व स्थानीय प्रशासन के वायु प्रदूषण को लेकर उदासीन रवैये से नागरिकों के जीवन का संकट बरकरार है। सर्वविदित तथ्य है कि न तो सरकारों के पास पर्याप्त संसाधन हैं और न ही ऐसा विशिष्ट कार्यबल। नागरिकों की जागरूकता व जवाबदेही बढ़ाकर वायु प्रदूषण पर नियंत्रण किया जा सकता है। इस विषम एवं ज्वलंत समस्या से मुक्ति के लिये प्रशासन एवं सरकारों को संवेदनशील एवं अन्तर्दृष्टि-सम्पन्न बनना होगा।