भारतीय ज्ञान परंपरा, नई शिक्षा नीति और शिक्षा व्यवस्था का संकट

Indian knowledge tradition, new education policy and the crisis of the education system

डॉ. विक्रम चौरसिया

भारत की पहचान केवल उसकी जनसंख्या या अर्थव्यवस्था से नहीं, बल्कि उसकी समृद्ध और जीवंत ज्ञान परंपरा से रही है। नालंदा, तक्षशिला और विक्रमशिला जैसे विश्वविद्यालय उस समय विश्व के बौद्धिक केंद्र थे, जब यूरोप अंधकार युग से गुजर रहा था। उस दौर में शिक्षा का उद्देश्य केवल रोजगार प्राप्ति नहीं, बल्कि विवेक, नैतिकता और समाज-कल्याण का निर्माण था।

दुर्भाग्यवश, आज वही भारत अपनी शिक्षा व्यवस्था के गहरे संकट से जूझ रहा है। लगभग हर बड़ी परीक्षा—चाहे वह प्रवेश से जुड़ी हो या नियुक्ति से—किसी न किसी विवाद में घिरी रही है। पेपर लीक, परीक्षा अनियमितताएँ और भ्रष्टाचार अब अपवाद नहीं, बल्कि व्यवस्था का हिस्सा बनते जा रहे हैं। इसका सबसे बड़ा दुष्परिणाम ईमानदार और मेहनती छात्रों को भुगतना पड़ रहा है।

यह संकट केवल प्रशासनिक अक्षमता का नहीं, बल्कि शिक्षा की नैतिक विफलता का है। जब शिक्षा से भरोसा उठता है, तो राष्ट्र की नींव कमजोर हो जाती है। किसी भी देश का भविष्य उसकी युवा शक्ति पर निर्भर करता है, किंतु आज वही युवा भेदभाव, असमान अवसरों और गहरी निराशा से घिरा हुआ है। स्थिति इतनी गंभीर हो चुकी है कि अनेक छात्र आत्महत्या जैसे कठोर कदम उठाने को विवश हो रहे हैं—जो किसी भी सभ्य समाज के लिए चेतावनी है।

आज शिक्षा में असमानता स्पष्ट रूप से दिखाई देती है—
आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों की गुणवत्तापूर्ण शिक्षा तक सीमित पहुँच,
ग्रामीण और शहरी संस्थानों के बीच बढ़ती खाई,
और भाषा व संसाधनों के आधार पर अवसरों का असंतुलन।

जो शिक्षा सामाजिक न्याय का सबसे सशक्त माध्यम होनी चाहिए थी, वही कई बार स्वयं अन्याय का कारण बनती प्रतीत होती है।

इस गहरे संकट का समाधान किसी एक कानून या सुधार तक सीमित नहीं है, बल्कि भारतीय ज्ञान परंपरा की ओर पुनः लौटने में निहित है। हमारी परंपरा में शिक्षा को केवल सूचना का संचय नहीं, बल्कि बोध, विवेक और चरित्र निर्माण का माध्यम माना गया। बौद्ध, जैन और वैदिक परंपराओं में शिक्षा का लक्ष्य था—विवेकशील, करुणाशील और जिम्मेदार नागरिक का निर्माण।

भगवान बुद्ध का संदेश— “अप्प दीपो भव” (स्वयं प्रकाश बनो)—आज की शिक्षा व्यवस्था के लिए भी उतना ही प्रासंगिक है। यह आत्मनिर्भर चिंतन, नैतिक साहस और सामाजिक उत्तरदायित्व का मार्ग दिखाता है।

इसी संदर्भ में नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 एक महत्वपूर्ण आशा की किरण के रूप में सामने आती है। यह नीति बहुविषयक शिक्षा को बढ़ावा देती है, भारतीय भाषाओं और ज्ञान परंपरा को सम्मान देती है तथा रटंत विद्या के बजाय समझ, शोध और नवाचार पर ज़ोर देती है। यह आधुनिकता और परंपरा के बीच संतुलन स्थापित करने का प्रयास है—जिसे नालंदा मॉडल की आधुनिक अभिव्यक्ति कहा जा सकता है।

हालाँकि, इसकी सबसे बड़ी चुनौती इसका ईमानदार, पारदर्शी और संवेदनशील क्रियान्वयन है। बिना संस्थागत नैतिकता और जवाबदेही के कोई भी नीति सफल नहीं हो सकती।

आज आवश्यकता है कि हम नालंदा की उस भावना को आधुनिक संदर्भ में पुनर्जीवित करें—जहाँ शिक्षा समान, सुलभ और नैतिक थी। शिक्षा को बाज़ार की सोच से मुक्त कर, भ्रष्टाचार और भेदभाव से शुद्ध कर, समाज-कल्याण से जोड़ना होगा।

क्योंकि यह स्पष्ट है कि भारत को पुनः “विश्व गुरु” बनाने का मार्ग शिक्षा से होकर ही जाएगा।

भारतीय ज्ञान परंपरा और नई शिक्षा नीति 2020 हमें उस खोई हुई दिशा को फिर से पाने का अवसर देती हैं। अब यह हम पर निर्भर करता है कि हम शिक्षा को केवल डिग्री और नौकरी तक सीमित रखें, या उसे राष्ट्र निर्माण की सशक्त आधारशिला बनाएँ।

जब शिक्षा में नैतिकता लौटेगी, तभी भारत ज्ञान के क्षेत्र में पुनः विश्व का मार्गदर्शन करेगा।