डॉ. वेदप्रताप वैदिक
हम लोग बड़ा गर्व करते हैं कि भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है और यह भी माना जाता है कि खबरपालिका लोकतंत्र का सबसे सक्षम स्तंभ है। खबरपालिका याने अखबार, टीवी, सिनेमा, इंटरनेट आदि। ये यदि स्वतंत्र नहीं हैं तो फिर वह लोकतंत्र खोखला है। लोकतंत्र की इस खूबी को नापनेवाली संस्था ‘रिपोर्टर्स विदाउट बार्डर्स’ ने अपनी इस साल की रपट में बताया है कि भारत का स्थान 142 वाॅं था। उससे नीचे खिसककर वह अब 150 वाॅं हो गया है। दुनिया के 180 देशों में भारत से भी ज्यादा गिरे हुए देशों में म्यांमार, चीन, तुर्कमिनिस्तान, ईरान, इरिट्रिया, उत्तर कोरिया, रूस, बेलारूस, पाकिस्तान और अफगानिस्तान आदि आते हैं। भारत के बारे में खोज-बीन करके इस संस्था ने माना है कि भारत का संचार तंत्र खतरे में है, क्योंकि पत्रकारों के खिलाफ हिंसा, मीडिया की सरकारपरस्ती और मीडिया का मुट्ठीभर मालिकों में सिमट जाना आजकल सामान्य-सी बात हो गई है। इस रपट में यह भी कहा गया है कि हिंदुत्व के समर्थक बड़े असहिष्णु हो गए हैं। वे अपने विरोधी विचारवालों पर आक्रमण कर देते हैं। सरकारें कानून का दुरुपयोग करके पत्रकारों को डराती और सताती हैं। ऊँची जातियों के हिंदू लोगों ने पत्रकारिता पर अपना कब्जा जमा रखा है। सरकार के पास मीडिया को काबू में रखने के लिए सबसे बड़ा हथियार है— विज्ञापन। वह 130 बिलियन रूपए का विज्ञापन हर साल बांटती है। अरबों रु. के इस विज्ञापन पर लार टपकानेवाला मीडिया ईमान की बात कैसे लिखेगा? सारे अखबार और पत्रकार खुशामदी हो गए हैं। इस संगठन ने मीडिया की आजादी के जो पांच मानदंड बनाए हैं, उनमें से एक पर भी भारत सही नहीं उतरता है। ये हैं— राजनीतिक संदर्भ, कानून, आर्थिक स्थिति, सामाजिक-सांस्कृतिक संदर्भ और पत्रकारों की सुरक्षा! इस संगठन के इस विश्लेषण को चबाए बिना कैसे निगला जा सकता है? इसके कुछ तथ्य तो ठीक मालूम पड़ते हैं। जैसे पत्रकारों के खिलाफ हिंसा लेकिन ऐसी छुट-पुट हिंसा की घटनाएं तो हर शासन-काल में होती रहती हैं। ऐसी घटनाएं पत्रकारिता क्या, हर क्षेत्र में ही होती हैं। यह ठीक है कि इन दिनों कई सिरफिरे अतिवादी हिंदुत्व के नाम पर पत्रकारों, मुसलमानों, विपक्षी नेताओं आदि के खिलाफ जहर उगलते रहते हैं लेकिन भारत के अपने लोग इन्हें कोई महत्व नहीं देते हैं। यह सही है कि सत्तारुढ़ नेतागण इन उग्रवादी तत्वों का खुलकर विरोध नहीं करते हैं। यह कमी जरुर है लेकिन भारत के अखबार और टीवी चैनल उन्हें बिल्कुल नहीं बख्शते हैं। जहां तक अदालतों का सवाल है, उनकी निष्पक्षता निर्विवाद है। वे उन्हें दंडित करने से नहीं चूकती हैं। यह ठीक है कि बड़े अखबारों और टीवी चैनलों के मालिक सरकार की गलत बातों की प्रायः खुलकर निंदा नहीं करते लेकिन यह तथ्य तो उन देशों में भी वैसा ही पाया जाता है, जो अपने लोकतंत्र का ढिंढोरा सारी दुनिया में पीटते रहते हैं। मैं पिछले 50-55 साल में दुनिया के दर्जनों देशों में रहकर और भारत में भी उनके अखबारों और चैनलों को देखता रहा हूं लेकिन मुझे आपात्काल 1975—77 के अलावा कभी ऐसा नहीं लगा कि भारत में पत्रकारिता पर कोई बंधन है। हां, यदि पत्रकार और खुद अखबारों के मालिक दब्बू या स्वार्थी हों तो उसका तो कोई इलाज नहीं है। यदि पत्रकार दमदार हो तो किसी अखबार के मालिक या सरकार की जुर्रत नहीं कि उसे वह किसी भय या लालच के आगे झुका सके। भारत में ऐसे सैकड़ों पत्रकार, अखबार और टीवी चैनल हैं जो अपनी निष्पक्षता और निर्भीकता में विश्व में किसी से भी कम नहीं हैं। इसीलिए भारत की पत्रकारिता को घटिया बतानेवाली यह रपट मुझे एकतरफा लगती है।