भारत की बाढ़ महज प्राकृतिक आपदा नहीं

नृपेन्द्र अभिषेक नृप

“कच्चे मकान जितने थे बारिश में बह गए ,वर्ना जो मेरा दुख था वो दुख उम्र भर का था।” अख़्तर होशियारपुरी की यह पंक्तियां बाढ़ की कहानी कह रही है।

बाढ़ के समय लोगों के कष्ट , सत्य और तथ्य को हवाई सर्वेक्षण से महसूस नहीं किया जा सकता है। पानी में तैरते और तड़पते लोगों को देखने से उनकी आंतरिक और मानसिक पीड़ा का एहसास नहीं होगा। नदी का जल उफान के समय जल वाहिकाओं को तोड़ता हुआ मानव बस्तियों और आस-पास की ज़मीन पर पहुँच जाता है और बाढ़ की स्थिति पैदा कर देता है। बाढ़ एक अत्यन्त महत्वपूर्ण प्राकृतिक प्रकोप है । केन्द्रीय जल आयोग के एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में बाढ़ प्रभावित क्षेत्र 25 लाख हेक्टेयर है । प्रतिवर्ष 31 लाख हेक्टेयर फसल क्षेत्र प्रभावित होता है और लगभग 2.1 अरब रुपए क्षति होती है । सबसे अधिक बाढ़ , भारत में बिहार, उत्तर प्रदेश तथा आंध्र प्रदेश में आती हैं जहां देश की कुल क्षति का 62% क्षति होती है। हर साल की तरह इस साल भी देश के विभिन्न हिस्से जलमग्न हो चुके है।

बाढ़ अब महज प्राकृतिक आपदा नही रह गई है , यह मानवीय आपदा की ओर अग्रसर है। बाढ़ की समस्या का सबसे बड़ा कारण अतिवृष्टि नहीं ही नहीं बल्कि मानव की तुच्छ अतिक्रमण कुदृष्टि भी है। ऐसा नहीं है कि ऐसी बारिश भारत में पहली बार हो रही हो। देश की आबादी निरंतर बढ़ रही है जो कि विभिन्न समस्याओं को जन्म दे रही है । बाढ़ की उत्पत्ति और इसके क्षेत्रीय फैलाव में मानव गतिविधियाँ महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करती हैं। मानवीय क्रियाकलापों, अंधाधुंध वन कटाव, अवैज्ञानिक कृषि पद्धतियाँ, प्राकृतिक अपवाह तंत्रों का अवरुद्ध होना तथा नदी तल और बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों में मानव बसाव की वजह से बाढ़ की तीव्रता, परिमाण और विध्वंसता बढ़ जाती है। तटबंधों, नहरों और रेलवे से संबंधित निर्माण के कारण नदियों के जल-प्रवाह क्षमता में कमी आती है, फलस्वरूप बाढ़ की समस्या और भी गंभीर हो जाती है। कुछ साल पहले उत्तराखंड में आई भयंकर बाढ़ को मानव निर्मित कारकों का परिणाम माना जाता है। पेड़ पहाड़ों पर मिट्टी के कटाव को रोकने और बारिश के पानी के लिये प्राकृतिक अवरोध पैदा करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। इसलिए पहाड़ी ढलानों पर वनों की कटाई के कारण नदियों के जलस्तर में वृद्धि होती है।

जब भी बाढ़ आता है त्राहिमाम मच जाता है। इससे जान-माल को बहुत ही ज्यादा नुकसान होता है। नदियों और झीलों में बाढ़ आने पर बाढ़ घरों में प्रवेश कर सकती है और जीवन और संपत्ति के विनाश का कारण बन जाती है और आसपास के क्षेत्रों के लिए अभिशाप बन जाती है । मनुष्य और अन्य जीव बाढ़ में नष्ट होने लगते हैं। जल निकायों में बाढ़ आने पर मछुआरे और उनके परिवार, जो जल निकायों के पास काम करते हैं और रहते हैं, जोखिम में होते हैं। बाढ़ से मछुआरों और उनके घरों को धोया जा सकता है। कभी-कभी कोई मानव हताहत नहीं हो सकता है, लेकिन यदि झोपड़ियों को बाढ़ में धोया जाता है तो संपत्ति का बहुत नुकसान हो जाता है। ज़ेब ग़ौरी कहती है– “अंदर अंदर खोखले हो जाते हैं घर ,जब दीवारों में पानी भर जाता है।”

बाढ़ से बचाव हेतु सरकार व लोगों को साथ मे मिलकर काम करना होगा। राज्य स्तर पर बाढ़ नियंत्रण एवं शमन के लिये प्रशिक्षण संस्थान स्थापित कर के तथा स्थानीय स्तर पर लोगों को बाढ़ के समय किये जाने वाले उपायों के बारे में प्रशिक्षित करना सरकार का कर्तव्य है। जनता के बीच शीघ्र तथा आवश्यक सूचना जारी करने की सुविधा करना आवश्यक है। एक ऐसे संचार नेटवर्क का निर्माण करना होगा जो बाढ़ के दौरान भी कार्य कर सके। बाढ़ के पूर्वानुमान तथा चेतावनी नेटवर्क को रिमोट सेंसिंग टेक्नोलॉजी तथा अन्य संस्थानों के सहयोग से मजबूत करना होगा। तटबंध, कटाव रोकने के उपाय, जल निकास तंत्र पुनर्वनीकरण, जल निकास तंत्र में सुधार, वाटर-शेड प्रबंधन, मृदा संरक्षण को बेहतर करने की जरूरत है। बांध प्रबंधन और समय पर लोगों को सचेत किये जाने में पर्याप्त सावधानी बरतनी होगी। प्राकृतिक आपदाओं के कारण प्राकृतिक पारिस्थितिकी प्रणालियों को हुए नुकसान का आकलन किया जाना चाहिये।

इन प्रयासों के अतिरिक्त बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों में सरकार को वहां पर बाढ़ नियंत्रण ऑफिस बनानी होगी। ऐसे कर्मचारी नियुक्त करनी होगी जो 24 घंटा बाढ़ आने पर निगरानी रख सके। जब भी बाढ़ की संभावना बने पूरे शहर को इसके बारे में चेतावनी तीव्र रूप में देने की व्यवस्था करनी होगी। यह चेतावनी रेडियो, टीवी, इंटरनेट, सोशल मिडिया, फेसबुक, व्हाट्सअप, लाउडस्पीकर के द्वारा आराम से दी जा सकती है।भारत में बाढ़ की भविष्यवाणी का काम केंद्रीय जल आयोग करता है। आयोग ने देशभर में 141 बाढ़ भविष्यवाणी केंद्र बना रखे हैं, जो भारत मौसम विज्ञान विभाग के सहयोग से संचालित होता है। बाढ़ से उत्पन्न स्थिति की समीक्षा, बाढ़ नियंत्रण के तरीकों का मूल्यांकन तथा भविष्य में सुधार आदि विषयों पर 1976 में स्थापित राष्ट्रीय बाढ़ आयोग अपनी नजर रखता है।

बाढ़ की भविष्यवाणी करना बहुत ही कठिन होता है क्योंकि कुछ ही घंटों में बहुत अधिक बारिश होने से अचानक से बाढ़ आ जाती है। लोग इसके लिए तैयार नहीं होते हैं इसलिए लोगों को अपनी सुरक्षा स्वयं करनी चाहिए। जिन क्षेत्रों में हर साल बाढ़ आती है वहां के निवासियों को एक सुरक्षा किट बना लेनी चाहिए जिसमें अपनी सभी मूल्यवान वस्तुएं रख सकते हैं । बाढ़ आने पर सुरक्षित स्थानों पर चले जाना चाहिए। बाढ़ आने पर यदि स्थिति सामान्य है तो छत पर जा सकते है। समय रहते सुरक्षित स्थान पर नही गए तो मंजर भयवाह हो जाता है। आनिस मुईन की एक पंक्ति है — “वो जो प्यासा लगता था सैलाब-ज़दा था, पानी पानी कहते कहते डूब गया है ।”

समय रहते बाढ़ की भविष्यवाणी, बाढ़ से होनेवाली तबाहियों के प्रति बचाव तथा नियंत्रण का सबसे सस्ता और कारगर तरीका है। उचित समय से दी गई चेतावनी बाढ़ से होनेवाले खतरों से लोगों को जहां बचाता है, वहीं गलत अनुमान होने से चेतावनी तंत्र के प्रति लोगों की विश्वसनीयता घटती है। इसलिए पर्याप्त समय रहते किया गया भरोसेमंद पूर्वानुमान बाढ़ नियंत्रण तंत्र की दोहरी आवश्यकता है। अगर इसका समाधान नहीं किया गया तो ऐसे ही कितनों की जाने जाती रहेगी और हम ऐसे ही देखते रह जाएंगे। बाढ़ से मरने वालों आंकड़ों से तो कलेजा पसीज आता है। परन्तु राजनीतिक नेता इस क़द्दर असवेंदनशील हो गए हैं कि उनका दिल कभी नहीं दहलता है। वे तो हेलिकॉप्टर से निरीक्षण करने में मस्त रहते है और वही नेता बाढ़ जाने के बाद भूल जाते है कि इसका स्थायी समाधान भी करना है। मुश्किलों से निजात दिलाने के बजाय वे दूसरों को दोषी ठहरा कर अपनी जबाबदेही से पल्ला झाड़ लेते है। निर्लज्जता का ऐसा निकृष्टम रूप देखकर तो शर्म भी शरमा जाए! सचमुच-“वो मजबूर मौत है जिसमें किस को बुनियाद मिले, प्यास की शिद्दत जब बढ़ती है डर लगता है पानी से।”