नृपेन्द्र अभिषेक नृप
भारत के विमानन क्षेत्र में हाल ही में पैदा हुए संकट, जिसकी जड़ें मुख्यतः इंडिगो से जुड़े मामलों में दिखाई देती हैं, ने एक बार फिर यह सच उजागर कर दिया है कि किसी भी क्षेत्र में अत्यधिक बाज़ार एकाधिकार कितना बड़ा जोखिम बन सकता है। पिछले एक दशक में इंडिगो ने भारतीय आसमानों में अपना दबदबा इस कदर स्थापित कर लिया है कि उसकी बाज़ार हिस्सेदारी ने उसे न केवल सबसे बड़ा खिलाड़ी बना दिया है, बल्कि उसे ऐसे प्रभावशाली स्थान पर बैठा दिया है जहाँ उसकी आंतरिक कमज़ोरियाँ भी पूरे विमानन क्षेत्र को प्रभावित करने लगती हैं। इंडिगो की तेज़ी से बढ़ती नेटवर्क क्षमता, प्रतिस्पर्धी किराए और परिचालन कुशलताओं ने इसे शीर्ष तक पहुँचाया, परंतु हालिया व्यवधान यह दर्शाते हैं कि किसी एक कंपनी का बेइंतहा शक्तिशाली हो जाना पूरे पारिस्थितिकी तंत्र को अस्थिर कर सकता है। इससे जवाबदेही, नियामकीय सतर्कता और प्रतिस्पर्धा की सेहत से जुड़े गंभीर सवाल खड़े होते हैं।
इस पूरे विवाद के केंद्र में डीजीसीए (नागरिक उड्डयन महानिदेशालय) द्वारा जारी किए गए नए फ्लाइट ड्यूटी टाइम लिमिटेशन (FDTL) नियम हैं। इन नियमों का उद्देश्य पायलटों और केबिन क्रू को पर्याप्त विश्राम देना है, ताकि थकान से जुड़े जोखिमों को रोका जा सके। दुनिया भर में विमानन नियामक इस विषय पर सख़्त होते जा रहे हैं क्योंकि लगातार उड़ानें भरने के कारण क्रू पर काम का दबाव बढ़ रहा है और प्रशिक्षित पायलटों की कमी एक वैश्विक समस्या बन चुकी है। भारत में भी सभी एयरलाइनों को पहले से पर्याप्त समय दिया गया था ताकि वे नए नियमों के अनुरूप अपनी स्टाफिंग और शेड्यूलिंग ठीक कर सकें। इसके बावजूद यह सामने आया कि इंडिगो समेत कई एयरलाइंस आवश्यक तैयारियाँ करने में पिछड़ गईं। इसी कारण उड़ानों में देरी, रद्दीकरण और अव्यवस्था की स्थितियाँ तेज़ी से बढ़ने लगीं, जिसका खामियाज़ा लाखों यात्रियों को भुगतना पड़ा।
समस्या की गंभीरता को देखते हुए सरकार ने एक समिति बनाई, ताकि सभी हितधारकों से बातचीत कर समाधान खोजा जा सके। लेकिन असली प्रश्न इंडिगो की तैयारी को लेकर ही उठे। देश का सबसे बड़ा बेड़ा, सबसे अधिक उड़ानें और सबसे व्यापक नेटवर्क रखने वाली इस एयरलाइन का किसी भी महत्वपूर्ण नियम पर देर से प्रतिक्रिया देना सीधे तौर पर पूरे उद्योग को प्रभावित करता है। कुछ विश्लेषकों का मानना है कि इंडिगो ने जानबूझकर नियमों के अनुरूप तैयारी धीमी की, ताकि वह नियामकों पर दबाव बना सके या कुछ रियायतें हासिल कर सके। यह अनुमान कितना सही है, यह भले ही स्पष्ट न हो, पर यह तथ्य निर्विवाद है कि उसकी तैयारी में कमी ने संकट को कई गुना बढ़ा दिया।
इंडिगो की बाज़ार हिस्सेदारी इस समस्या को और जटिल बना देती है। भारतीय घरेलू विमानन बाजार का लगभग 65 प्रतिशत हिस्सा अकेले इंडिगो के पास है। 417 से अधिक विमानों के उसके विशाल बेड़े से प्रतिदिन करीब 2200 उड़ानें संचालित होती हैं। ऐसे में यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि इंडिगो भारत की घरेलू हवाई यात्रा की रीढ़ बन चुकी है। लेकिन यही स्थिति सबसे बड़ा जोखिम भी है। जब किसी एक कंपनी का प्रभाव इतना व्यापक हो जाए, तो उसकी किसी भी स्तर की कमी या कुप्रबंधन का असर केवल उसके यात्रियों पर नहीं, बल्कि पूरे देश के विमानन संचालन, एयरपोर्ट प्रबंधन और सप्लाई चेन पर पड़ने लगता है। यह निर्भरता बाज़ार की मजबूती को कम करती है और उसे किसी भी संकट के समय बेहद संवेदनशील बना देती है।
इस संदर्भ में संभावित एकाधिकारवादी व्यवहार को लेकर उठे प्रश्न स्वाभाविक हैं। विमानन क्षेत्र में प्रवेश करना आसान नहीं होता उच्च पूंजी, सख़्त नियम, सीमित स्लॉट और उच्च परिचालन लागत जैसे कारक नई कंपनियों के लिए बड़ी बाधाएँ हैं। ऐसे में किसी एक खिलाड़ी का अत्यधिक बड़ा होना प्रतिस्पर्धा को दबा सकता है और ग्राहकों की पसंद को सीमित कर सकता है। यदि कोई कंपनी अपने प्रभाव का उपयोग नियमों को प्रभावित करने या संचालन में अनुचित लाभ उठाने के लिए करने लगे, तो यह देश की दीर्घकालिक नीतियों और उपभोक्ता हितों के लिए हानिकारक हो सकता है। मौजूदा संकट इसी बात की याद दिलाता है कि क्या भारत को किसी भी निजी एयरलाइन को इतना बड़ा बनने देना चाहिए कि उसकी चूकें राष्ट्रीय स्तर पर अस्थिरता पैदा कर दें?
यात्रियों को तुरंत राहत देने के उद्देश्य से सरकार ने अस्थायी रूप से नए FDTL नियमों में कुछ ढील भी दी है। यह कदम यात्रियों की परेशानी कम करने के लिए उपयुक्त था, क्योंकि अचानक सैकड़ों उड़ानें रद्द होने का खतरा बढ़ गया था। लेकिन ऐसे अस्थायी उपाय स्थायी न बन जाएँ, इसका विशेष ध्यान रखना होगा। पायलटों के विश्राम से जुड़े नियम सुरक्षा के लिए बनाए जाते हैं, न कि किसी एयरलाइन की तैयारी की कमी को ढकने के लिए। भारत को अंतरराष्ट्रीय विमानन सुरक्षा मानकों के अनुरूप रहना है और इसके लिए आवश्यक है कि पायलटों को उचित आराम, वैज्ञानिक कार्य-घंटे और सुरक्षित कामकाज का माहौल मिले। यह न केवल सुरक्षा के लिए ज़रूरी है, बल्कि भारत की अंतरराष्ट्रीय विमानन छवि को बनाए रखने के लिए भी अनिवार्य है।
सरकार ने इंडिगो से जवाबदेही तय करने के लिए स्पष्टीकरण मांगा है, जो कि पूर्णतः उचित है। लेकिन इस घटना का दायरा केवल इतनी भर बात तक सीमित नहीं है कि कंपनी ने नियमों का पालन देर से क्यों किया। असल मुद्दा यह है कि सार्वजनिक बुनियादी ढांचे का इतना बड़ा हिस्सा जब किसी निजी इकाई पर निर्भर हो, तो उसकी रणनीतियों और तैयारियों का पारदर्शी मूल्यांकन होना चाहिए। यदि कंपनी को पहले से पता था कि नए नियम लागू होंगे, तो अतिरिक्त पायलटों और क्रू की भर्ती समय से क्यों नहीं की गई? क्या नियामकों को स्थिति की असली तस्वीर समय रहते बताई गई? यदि नहीं, तो यह लापरवाही है या गहन प्रबंधकीय कमी?
इस पूरे मामले ने डीजीसीए की निगरानी प्रणाली को भी आईना दिखाया है। एक आधुनिक और जटिल विमानन उद्योग में केवल कागज़ी निगरानी पर्याप्त नहीं होती। आवश्यकता है कि नियामकों के पास तकनीक आधारित रीयल-टाइम मॉनिटरिंग, डाटा विश्लेषण और चेतावनी तंत्र मौजूद हों, ताकि किसी भी संभावित संकट को बहुत पहले पहचाना जा सके। यदि नियामक संस्थाएँ भविष्यवाणी-आधारित निगरानी विकसित नहीं करेंगी, तो ऐसे संकट बार-बार सामने आएँगे।
मौजूदा संकट यह भी स्पष्ट करता है कि किसी भी क्षेत्र में अत्यधिक एकाधिकार खतरनाक हो सकता है। यह प्रतिस्पर्धा को कमजोर करता है, नवाचार को बाधित करता है और उपभोक्ताओं को सीमित विकल्पों में जकड़ देता है। लेकिन इससे भी बड़ा जोखिम यह है कि पूरा सिस्टम एक ही बिंदु पर निर्भर हो जाता है। स्वस्थ बाज़ार वही होता है जहाँ कई खिलाड़ी मौजूद हों, जिनसे सेवाओं की गुणवत्ता बढ़ती है, विकल्प मिलते हैं और जोखिम विभाजित रहते हैं। भारत के विमानन क्षेत्र के दीर्घकालिक हित इसी में हैं कि बाज़ार संतुलित रहे और किसी भी एयरलाइन के पास इतना अधिक शक्ति-संतुलन न हो कि वह पूरे उद्योग को प्रभावित करने लगे।
यात्री जो इस पूरे उद्योग के केंद्र में हैं, उनके लिए सबसे बड़ा मुद्दा है विश्वसनीयता, सुरक्षा और सेवा की गुणवत्ता। लगातार रद्द होने वाली उड़ानें, समय पर उड़ान न भरना, और किन्हीं आंतरिक समस्याओं के कारण हुए अव्यवस्था के हालात भारत की उभरती अर्थव्यवस्था की छवि को नुकसान पहुँचाते हैं। भारत तेजी से बढ़ता हुआ देश है और हवाई यात्रा यहाँ आने वाले वर्षों में और अधिक आवश्यक होगी। इसलिए ज़रूरत है एक ऐसे विमानन पारिस्थितिकी तंत्र की जिसे संकट झेलने की सामर्थ्य हो, जो पारदर्शी, सुरक्षित और यात्री-केंद्रित हो।
आने वाले समय में, नीति-निर्माताओं को यह सुनिश्चित करने के लिए ठोस कदम उठाने होंगे कि कोई भी एयरलाइन अत्यधिक बाज़ार नियंत्रण न हासिल कर सके। नए खिलाड़ियों को प्रोत्साहन, छोटे कैरियर्स को समर्थन, और प्रतिस्पर्धा को मजबूत करने वाले कानून इस दिशा में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। उद्देश्य यह नहीं है कि सफल कंपनियों को रोका जाए, बल्कि यह कि उनकी सफलता उद्योग और उपभोक्ता हितों को नुकसान न पहुँचाए। दूसरी ओर, एयरलाइनों को भी यह समझना होगा कि वे केवल एक व्यावसायिक संस्था भर नहीं हैं। वे देश की सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था का अहम हिस्सा हैं। इसलिए जब उनका आकार बड़ा होता है, तो उनकी ज़िम्मेदारियाँ भी बढ़ती हैं सुरक्षा नियमों का पालन, कर्मचारियों को उचित सुविधाएँ, समय से परिचालन, पारदर्शिता और यात्रियों के हितों को सर्वोच्च रखना,ये सभी अनिवार्य पक्ष हैं।
वास्तव में यह स्थिति भारत के लिए चेतावनी भी है और सुधार का अवसर भी। यदि सही कदम उठाए जाएँ, तो भारत अपने विमानन क्षेत्र को अधिक सुरक्षित, अधिक प्रतिस्पर्धी और अधिक संतुलित बना सकता है। देश को ऐसे आसमान चाहिए जो आत्मविश्वास दें, न कि चिंता। यह तभी संभव है जब एयरलाइंस, नियामक और नीति-निर्माता मिलकर ज़िम्मेदारी से आगे बढ़ें।





