देश की सबसे बड़ी एयरलाइन इस तरह ढह जाए, तो प्रश्न सिर्फ इंडिगो पर नहीं, सरकार और नियामकों पर भी उठेंगे।
नीलम महेंद्र
भारत का आसमान इन दिनों जितनी तेजी और घनी उड़ानों से भरा हुआ है, उतना शायद पहले कभी नहीं रहा। रोज़ाना देश के आसमान में लगभग 4,500 उड़ानें संचालित होती हैं। खास बात यह है कि इनमें से आधे से अधिक की कमान एक ही कंपनी “इंडिगो” के हाथ में है। डीजीसीए के 2023–24 के आंकड़े बताते हैं कि इंडिगो का मार्केट शेयर 65 प्रतिशत के आसपास है। यानी हर 100 यात्रियों में से लगभग 65 यात्री इंडिगो पर निर्भर हैं। किसी भी उद्योग में ऐसी स्थिति शायद ही देखने को मिले, जहां एक कंपनी पूरे बाज़ार की रीढ़ बन जाए। लेकिन जब रीढ़ ही कांपने लगे, तो पूरा शरीर हिल जाता है। हाल में यही हुआ जब डीजीसीए ने फ्लाइट ड्यूटी टाइम लिमिटेशन यानी FDTL के नए नियम लागू किए। इनके अनुसार अब पायलटों को सात दिन काम के बाद 48 घंटों का आराम, लगातार दो रात से ज्यादा ड्यूटी नहीं, एवं दो नाइट लैंडिंग से अधिक नहीं जैसे नियम थे। इन नियमों का लक्ष्य साफ़ था—पायलटों की थकान कम करना और उड़ानों की सुरक्षा को नया मानक देना। दुनिया में थकान-जनित गलतियाँ एविएशन हादसों में लगभग 20–30 प्रतिशत योगदान देती हैं। भारत में, जहां हवाई यात्रा पिछले दस सालों में लगभग 70 प्रतिशत बढ़ी है, यह कदम देर से उठा एक महत्वपूर्ण सुधार था।
लेकिन इसके कारण जिस प्रकार से इंडिगो की एक ही दिन में 1,000 उड़ानें देशभर में रद्द हुईं और यात्री भारी परेशानी में पड़े, उससे यह सिद्ध हो जाता है कि नियम बनाना पर्याप्त नहीं होता; जब तक उनका प्रभावी क्रियान्वयन न हो, अपेक्षित परिणाम नहीं मिलते।
इंडिगो, जो भारत के घरेलू उड़ान बाज़ार पर लगभग एकाधिकार जैसा नियंत्रण रखती है, इन नियमों से सबसे अधिक प्रभावित हुई—या कहें कि उसकी अक्षमता से सबसे अधिक यात्री प्रभावित हुए। नए प्रावधानों के अनुसार एयरलाइन को लगभग 350 से 400 अतिरिक्त पायलटों की जरूरत थी, जबकि तैयारी बेहद सीमित थी। जब इस कमी की वास्तविक गूंज सामने आई, तब तक देर हो चुकी थी। इंडिगो को चार सौ से अधिक उड़ानें रद्द करनी पड़ीं।
लेकिन इस अव्यवस्था की सबसे भारी कीमत किसने चुकाई?
वे हजारों यात्री जिन्होंने रातों को हवाईअड्डों की ठंडी कुर्सियों पर गुजार दिया।
वह माँ, जिसने छोटे बच्चे के साथ बिना किसी जानकारी के पूरी रात प्रतीक्षा की।
वह बीमार पिता, जिसके पास उसका बेटा समय पर नहीं पहुँच सका।
वह युवा, जो अपने करियर के सबसे महत्वपूर्ण इंटरव्यू से चूक गया।
वह जोड़ा, जिसे अपनी ही शादी के रिसेप्शन में फ्लाइट रद्द होने के चलते ऑनलाइन शामिल होना पड़ा।
विडम्बना यह है कि भारत का यह एविएशन संकट न तो मशीनों की वजह से हुआ, न तकनीकी खराबी से, न मौसम से। यह संकट उस मॉडल की वजह से हुआ जिसमें सरकार भी निश्चिंत रही, नियामक भी आत्म-संतोष में रहा, और एयरलाइन भी अपनी क्षमता के भ्रम में। तीनों की इस सामूहिक नींद ने पूरे देश की नींद उड़ा दी।
इंडिगो ने डीजीसीए के समक्ष आधिकारिक रूप से स्वीकार किया है कि यह संकट “मिसजजमेंट और प्लानिंग की विफलता” का परिणाम था। यानी कंपनी ने अपनी ही सामर्थ्य का गलत आकलन किया, FDTL के दूसरे चरण का क्रियान्वयन संभाल नहीं पाई, और उसके परिणाम अब राष्ट्र भर में दिखाई दे रहे हैं। इससे भी अधिक चौंकाने वाली बात यह है कि इंडिगो ने कहा है कि वह फरवरी 2026 तक पूरी तरह स्थिर नहीं हो पाएगी।
इंडिगो की इस विफलता ने सिर्फ यात्रियों को नहीं, बल्कि पूरे एविएशन बाजार को झकझोर दिया। जिस दिन इंडिगो डगमगाई, उसी दिन लगभग सभी प्रमुख रूट्स पर किराए 25–40 प्रतिशत तक उछल गए। दिल्ली–मुंबई जैसे रूट पर किराया 25,000 रुपये से ऊपर पहुंच गया। विडम्बना यह कि जो एयरलाइन चार दिनों में 2,000 से अधिक उड़ानें रद्द कर अराजकता पैदा कर रही थी, वही यात्रियों से तीन से छह गुना तक किराये वसूल रही थी। इस संकट को और गहरा बनाया राजधानी दिल्ली के होटलों में 95 प्रतिशत ऑक्युपेंसी और अचानक बढ़ी मांग ने, जिसने दरों को कई गुना ऊपर पहुंचा दिया।
अब मूल प्रश्न यह उठता है—क्या इंडिगो को इस अव्यवस्था का पूर्वानुमान नहीं था?
क्योंकि डीजीसीए के नए नियम जनवरी 2024 में ही घोषित कर दिए गए थे।
उन्हें जून 2024 से लागू करना था, पर उद्योग ने तैयारी की दिक्कत बताई।
सरकार ने उदारता दिखाकर समय बढ़ाया—जुलाई 2025 तक।
फिर कंपनियों के आग्रह पर अंतिम तारीख बढ़कर 1 नवंबर 2025 कर दी गई।
इतना समय मिलने के बाद भी यदि देश की सबसे बड़ी एयरलाइन इस तरह ढह जाए, तो प्रश्न सिर्फ इंडिगो पर नहीं, सरकार और नियामकों पर भी उठेंगे।
यह कैसी नीति-निर्माण प्रक्रिया थी जिसमें समय तो दिया गया, पर तैयारी की जाँच नहीं हुई?
स्थिति इतनी बिगड़ी कि सरकार को अंततः अपने ही नियमों पर रोक लगानी पड़ी—यही इस संकट का सबसे चिंताजनक पहलू है।
और यहाँ एक और असहज प्रश्न खड़ा होता है—
यदि एक कंपनी पूरे देश और सरकार को इस हद तक हिला सकती है कि आधी उड़ानें प्रभावित हो जाएँ, तो क्या सरकार को अपने निर्णयों की विश्वसनीयता, प्रभाव और क्रियान्वयन की सुनिश्चितता पर पुनर्विचार नहीं करना चाहिए?
यह प्रश्न सरकार की नीयत पर नहीं, बल्कि नीति-निर्माण और नियामक प्रक्रिया की मजबूती पर उठाया जाना चाहिए।
आज देश उस मोड़ पर खड़ा है जहाँ कोई भी पक्ष निर्दोष नहीं ठहराया जा सकता—
न सरकार, जो एकाधिकार-जैसी स्थिति बनने से रोकने में विफल रही;
न इंडिगो, जिसने अपनी क्षमता का अनुमान बेहद गलत लगाया;
न नियामक, जिसने यह मान लिया कि कागज़ पर बने नियम ज़मीन पर भी उसी सहजता से लागू हो जाएंगे।
सरकार जब छोटे शहरों की कनेक्टिविटी, किफायती उड़ानें और “हवाई चप्पल वालों को हवाई यात्रा” की बात करती है, तो यह संकट सिर्फ इंडिगो का नहीं—देश की उड़ान का संकट बन जाता है।
विमान इंडिगो के थे, पर रुकावट भारत की उड़ान में आई।
भविष्य में देश की उड़ान कभी न थमे—इसके लिए आवश्यक है कि सरकार न केवल नियम बनाए, बल्कि उनके क्रियान्वयन की वास्तविकता और उद्योग की क्षमता को भी गंभीरता से समझे।
ऐसे ठोस कदम उठाए जाएँ कि भविष्य में कोई भी एयरलाइन इस प्रकार की अव्यवस्था को “अनुमान की गलती” कहकर अपना दायित्व न टाल सके।





