अजेश कुमार
भारतीय न्याय व्यवस्था का इतिहास बताता है कि अदालतें न केवल कानून की पालक होती हैं, बल्कि वे सामाजिक चेतना और नैतिकता की दिशा भी निर्धारित करती हैं। किसी भी अदालत के शब्द, किसी फैसले के वाक्य, किसी टिप्पणी का लहजा, ये सब केवल कानूनी दस्तावेजों के हिस्से नहीं होते, बल्कि वे समाज के व्यवहार, सोच और दृष्टिकोण पर भी गहरा असर डालते हैं। खासकर तब, जब मामला यौन अपराध जैसा संवेदनशील विषय हो, जिसमें पीड़िता पहले से ही मानसिक, भावनात्मक और सामाजिक दबावों से गुजर रही होती है। ऐसे समय अदालत की भाषा, उसका व्यवहार और टिप्पणी का स्वर न्याय की प्रक्रिया को आसान भी बना सकता है और भयावह रूप से कठिन भी। यही कारण है कि जब हाल ही में इलाहाबाद हाई कोर्ट की एक टिप्पणी ने व्यापक विवाद खड़ा किया, तो सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में न केवल गंभीर चिंता जताई, बल्कि स्वत: संज्ञान लेकर संकेत दिया कि अब इस दिशा में विस्तृत दिशानिर्देशों की आवश्यकता है।
सुप्रीम कोर्ट की यह प्रतिक्रिया आकस्मिक नहीं है। यह उन अनेक घटनाओं की पृष्ठभूमि में आई है, जहां अदालतों की असंवेदनशील टिप्पणियां पीड़िताओं के लिए अतिरिक्त मानसिक बोझ बनकर उभरी हैं। यह स्थिति केवल कानून की व्याख्या का प्रश्न नहीं, बल्कि न्याय की गरिमा का सवाल है। यौन अपराध से जुड़ी किसी भी टिप्पणी को अदालतें जिस तरह से पेश करती हैं, वह समाज में एक संदेश की तरह फैलती है, और यह संदेश कभी-कभी अपराध की गंभीरता को कम करने का औज़ार भी बन जाता है। जब अदालत के भीतर से ही ऐसी भाषा सामने आती है, जो पीड़िता के चरित्र, उसकी मंशा या उसके व्यवहार पर अनावश्यक टिप्पणी करती है, तो उसकी चोट केवल एक महिला पर नहीं, बल्कि पूरे न्यायिक ढांचे पर पड़ती है।
दरअसल, यौन अपराध एक ऐसा अपराध है जिसमें कानून सिर्फ एक पहलू है; दूसरा और कहीं अधिक महत्वपूर्ण पहलू है पीड़िता की गरिमा, उसका मनोबल और उसका सम्मान। अदालतें जब सुनवाई करती हैं, तो वे केवल साक्ष्यों और गवाहियों का सामना नहीं करतीं, बल्कि वे उन अनकहे दर्दों, उन चुप संघर्षों और उन सामाजिक दबावों का भी सामना करती हैं, जो पीड़िता अपने साथ लेकर आती है। इसलिए न्यायाधीश की भाषा का चयन, उसकी टिप्पणी का लहजा, पूछे गए प्रश्नों का स्वर, ये सब न्यायिक प्रक्रिया का उतना ही महत्वपूर्ण हिस्सा हैं जितना कि कोई सबूत या कानूनी दलील।
भारत में यह समस्या नई नहीं है। अतीत में भी अनेक बार अदालतों की टिप्पणियां विवाद का कारण बनी हैं। कभी यह कहा गया कि लड़की का पहनावा उत्तेजक था, कभी यह कि दोनों के बीच प्रेम संबंध था, इसलिए यह बलात्कार नहीं, कभी अदालत द्वारा ‘काउंसलिंग’ या ‘समझौते’ के नाम पर पीड़िता को अपराधी से शादी करने की सलाह दी गई। ऐसी घटनाएं भारतीय समाज में यह धारणा पैदा करती हैं कि न्याय व्यवस्था अभी भी महिलाओं की स्वतंत्रता और उनकी सुरक्षा की वास्तविकता को पूर्ण रूप से समझने की स्थिति में नहीं है। सुप्रीम कोर्ट ने सही ही कहा है कि ऐसी टिप्पणियां कई बार पीड़िताओं को अपनी शिकायत वापस लेने पर मजबूर कर देती हैं। यह न्यायिक प्रक्रिया पर सीधा हमला है, क्योंकि पीड़िता तभी सच बोल सकती है, जब उसे भरोसा हो कि अदालत उसकी बात सुनेगी, उसकी गरिमा की रक्षा करेगी और उसकी पीड़ा के प्रति सहानुभूति रखेगी।
यौन अपराध की पीड़िताएं पहले से ही समाज के भारी दबाव का सामना करती हैं। उन्हें ‘चरित्रहीन’, ‘झूठी’, ‘ध्यान आकर्षित करने वाली’ या ‘परिवार की बदनामी कराने वाली’ के रूप में देखा जाता है। यह सामाजिक दंश इतना तीखा होता है कि अधिकांश महिलाएं शिकायत दर्ज कराने से ही डर जाती हैं। जो महिलाएं हिम्मत जुटाकर अदालत तक पहुंचती हैं, अगर वहीं उन्हें असंवेदनशील भाषा का सामना करना पड़े, तो न्याय के रास्ते में उनका मनोबल टूटना स्वाभाविक है। ऐसी स्थिति में अदालत की टिप्पणी केवल शब्द नहीं होती, बल्कि पीड़िता के मन पर दूसरी चोट की तरह उतरती है।
इस संदर्भ में इलाहाबाद हाई कोर्ट की हालिया टिप्पणी एक उदाहरण मात्र है, जिसने पूरे देश में बहस छेड़ी और सुप्रीम कोर्ट को हस्तक्षेप करना पड़ा, लेकिन समस्याएं यहीं नहीं रुकीं। सुप्रीम कोर्ट द्वारा स्वत: संज्ञान लिए जाने के बाद भी छत्तीसगढ़ हाई कोर्ट में इसी प्रकार की असंवेदनशील टिप्पणी सामने आई। इससे यह स्पष्ट है कि समस्या आलंकारिक नहीं, बल्कि संरचनात्मक है। यह केवल एक जज या एक अदालत की गलती नहीं, बल्कि न्यायिक प्रशिक्षण और दृष्टिकोण में संवेदनशीलता की कमी का संकेत है।
अब समय आ गया है कि हम न्यायिक प्रक्रियाओं की भाषा पर गंभीरता से विचार करें। दुनिया के कई देशों में यौन अपराधों से जुड़े मामलों की सुनवाई करने के लिए विशेष अदालतें होती हैं, जिनमें जरूरी प्रशिक्षण प्राप्त जजों की नियुक्ति होती है। वहां जजों को यह सिखाया जाता है कि पीड़िता से प्रश्न पूछते समय किस प्रकार की भाषा का उपयोग करना है, किन बातों से बचना है, और किस प्रकार की टिप्पणियां उसकी गरिमा को आहत कर सकती हैं। इसके अतिरिक्त पीड़िता के साथ काउंसलर या मनोवैज्ञानिक को अदालत के भीतर रहने की अनुमति दी जाती है, ताकि वह मानसिक रूप से सुरक्षित महसूस करे। भारत को भी अब इसी दिशा में गंभीर कदम उठाने की आवश्यकता है।
भारत की न्याय प्रणाली ने महिलाओं के अधिकारों को लेकर कई अहम और प्रगतिशील निर्णय दिए हैं। कार्यस्थलों पर महिलाओं की सुरक्षा से लेकर ट्रिपल तलाक को असंवैधानिक घोषित करने तक सुप्रीम कोर्ट ने बार-बार महिलाओं को समान अधिकार देने की दिशा में महत्वपूर्ण पहल की है। बेटियों को पैतृक संपत्ति में बराबरी का हक देना, घरेलू हिंसा के मामलों में महिलाओं की सुरक्षा को प्राथमिकता देना और यौन उत्पीड़न की शिकायतों के प्रति सख्त रुख अपनाना, ये सभी फैसले बताते हैं कि भारतीय न्याय व्यवस्था महिलाओं के अधिकारों को लेकर सजग है। ऐसे में, निचली अदालतों में या कुछ उच्च अदालतों में इस तरह की असंवेदनशीलता का सामने आना उस प्रगतिशील दृष्टि को कमजोर करता है, जिसकी नींव सुप्रीम कोर्ट ने वर्षों में तैयार की है।
अदालतों का काम केवल कानून की व्याख्या करना नहीं है, बल्कि न्याय की भावना को जीवन में उतारना भी है। इस प्रक्रिया में भाषा अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। अदालत की टिप्पणियों में प्रयोग किए गए शब्द केवल कानूनी दस्तावेजों में दर्ज नहीं रहते, बल्कि वे समाज के कानों और दिमाग में भी उतरते हैं। यदि, अदालत अपने शब्दों के माध्यम से यौन अपराध को आपसी सहमति या “छोटी बात” की तरह प्रस्तुत करती है, तो अपराधी को नैतिक बल मिल सकता है और पीड़िता को समाज में और अधिक अकेलेपन और शर्मिंदगी का सामना करना पड़ सकता है। इसलिए अदालतों को अपनी भाषा का चयन करते समय अत्यधिक सतर्क रहने की आवश्यकता है।
सुप्रीम कोर्ट ने जब यह कहा कि वह हाई कोर्ट और ट्रायल कोर्ट के लिए विस्तृत दिशानिर्देश जारी कर सकता है, तो यह संकेत था कि अब सुधार टालने योग्य नहीं है। इन दिशानिर्देशों में कुछ मूल बातें शामिल होनी चाहिए, जैसे कि कोर्ट में पीड़िता के चरित्र पर अनावश्यक टिप्पणी न की जाए, उसके पहनावे या जीवनशैली को आधार बनाकर किसी निष्कर्ष पर पहुंचना प्रतिबंधित हो, पीड़िता से पूछे जाने वाले प्रश्नों में अपमानजनक या अनुचित संकेत से बचा जाए, और अदालतों को यह समझाया जाए कि उनकी भाषा समाज की सोच पर व्यापक असर डालती है। इसके अलावा जजों के लिए जेंडर-सेंसिटाइजेशन प्रशिक्षण अनिवार्य किया जाए, जिसमें उन्हें मनोवैज्ञानिकों, महिला अधिकार विशेषज्ञों और सोशल वर्कर्स के माध्यम से प्रशिक्षित किया जाए।
अदालतों में पीड़िता के लिए एक सुरक्षित माहौल बनाना भी अत्यंत आवश्यक है। अक्सर कोर्ट रूम में उसकी बात को एक-एक शब्द में चुनौती दी जाती है, जिससे वह मानसिक रूप से टूट जाती है। यदि अदालत के भीतर ऐसी व्यवस्था हो कि पीड़िता को आवश्यक मानसिक समर्थन मिले, उसे भरोसा दिया जाए कि उसकी गरिमा सुरक्षित है, और उसकी आवाज को सम्मान के साथ सुना जाएगा, तभी न्याय की प्रक्रिया वास्तविक रूप से प्रभावी हो सकती है। इसके लिए विक्टिम सपोर्ट सिस्टम को अदालतों में औपचारिक रूप से शामिल करना चाहिए।
न्याय तंत्र की विश्वसनीयता तभी बढ़ेगी, जब उसकी नींव मजबूत और संवेदनशील होगी। निचली अदालतें आम नागरिकों के लिए न्याय का पहला दरवाजा होती हैं। यदि, वहीं असंवेदनशीलता, पूर्वाग्रह या सामाजिक रूढ़ियों का प्रभाव दिखाई दे, तो न्याय के प्रति लोगों का भरोसा टूटना स्वाभाविक है। इसलिए निचली अदालतों में सुधार सबसे पहली आवश्यकता है। सुप्रीम कोर्ट के स्तर पर अच्छे और प्रगतिशील फैसले तब तक पूर्ण लाभ नहीं दे पाएंगे जब तक निचली अदालतों का व्यवहार, भाषा और दृष्टिकोण आधुनिक, संवेदनशील और सहानुभूतिपूर्ण न बने।
अंततः, न्याय केवल कानून की धाराओं में नहीं लिखा होता; वह अदालत की सोच, उसकी भाषा, उसके व्यवहार और उसकी दृष्टि में भी बसता है। यौन अपराध कोई साधारण अपराध नहीं है, यह एक महिला के सम्मान, उसके शरीर, उसकी आत्मा और उसकी स्वतंत्रता पर हमला है। इस हमले का सामना करते समय वह पहले ही टूट चुकी होती है। अदालत को उसकी अंतिम उम्मीद बनना चाहिए, न कि दूसरा आघात। इसलिए अदालतों की टिप्पणियां कानून से कम, लेकिन न्याय से कहीं अधिक जुड़ी होती हैं। यही समय की मांग है कि अदालतें यह समझें कि उनके शब्द पीड़िता के दर्द के साथ-साथ समाज की सोच को भी आकार देते हैं।
एक न्यायपूर्ण समाज की नींव तभी मजबूत होगी, जब अदालतें सिर्फ निर्णय नहीं, बल्कि संवेदनशीलता भी दें। अदालतों की भाषा में वही आदर, वही गरिमा और वही सहानुभूति झलके जिसकी अपेक्षा पीड़िता को न्याय की चौखट पर कदम रखते समय होती है। भारतीय न्याय व्यवस्था को इस दिशा में निर्णायक कदम उठाने होंगे, और जितनी जल्दी उठाए जाएं, उतना बेहतर।
न्याय की राह कानून से शुरू होती है, लेकिन उसकी मंज़िल संवेदनशीलता में ही मिलती है। यही आज की सबसे बड़ी जरूरत है।




