प्रो: नीलम महाजन सिंह
हमने गणतंत्र दिवस; 2024 पर भारत के संविधान के कार्यान्वयन के 75 वर्ष पूरे होने का जश्न मनाया, फिर भी भारत के लोगों को ज़मीनी स्तर पर न्याय पाने में परेशानी क्यों हो रही है? न्यायशास्त्र के विद्वानों ने भारतीय विधि आयोग को कई सुझाव दिये हैं। भारत का ‘आम आदमी’, वर्षों से कोर्ट-कचहरी के चक्कर काट रहा है। आम आदमी के मन में न्याय पाने को लेकर, आशंका व भरोसे में कमी आने के क्या कारण हैं? माननीय श्रीमतीनद्रौपदी मुर्मू, भारत की राष्ट्रपति ने, भारत के सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों व राज्यों के मुख्य न्यायाधीशों के सम्मेलन को संबोधित करते हुए, सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति डॉ. धनंजय यशवंत चंद्रचूड़ व अन्य सभी मुख्य न्यायाधीशों से एक भावनात्मक अपील की थी। जेलों में बंद अप्रमाणित मामलों वाले निर्दोष, विचाराधीन कैदियों की रिहाई पर विचार करने के लिए! “भारत में अदालतों पर अत्यधिक बोझ होने का एक कारण यह भी है कि ये लोग अत्यधिक भीड़-भाड़ वाली जेलों में वर्षों तक सड़ते रहते हैं, जिससे उनका जीवन और भी कठिन हो जाता है। हमें समस्या के मूल कारण का समाधान करना चाहिए,” राष्ट्रपति ने आग्रह किया। हाल ही में भारत के सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश, न्यायमूर्ति डी. वाई. चंद्रचूड ने कहा, “ज़िला न्यायपालिका में सामान्य व ‘मिडियोक्रिटी’ से ग्रस्त है। हमें यह सुनिश्चित करने की ज़रूरत है कि वहां अच्छे लोग हों” (16 जनवरी, 2024)। सीजेआई ने इस बात पर ज़ोर दिया कि नियुक्तियों के उचित तरीके होने चाहिए जिससे यह सुनिश्चित हो सके कि अच्छे, ज्ञानी लोग न्यायपालिका में हैं। सीजेआई ने ऐसा तब व्यक्त किया, जब प्रथम दृष्टया, पंजाब व हरियाणा उच्च न्यायालय के उस आदेश को मंजूरी दी गई है कि न्यायिक अधिकारियों को न्यूनतम 50% अंक प्राप्त करने चाहिए। सीजेआई ने कहा, ”न्यायपालिका की स्वतंत्रता प्रत्येक न्यायाधीश की दबाव या पूर्वाग्रह के बिना निर्णय लेने की स्वतंत्रता पर निर्भर करती है।” सीजेआई जस्टिस चंद्रचूड़ कहते हैं, “सुप्रीम कोर्ट की वैधता केवल भारत के संविधान पर ही निर्भर नहीं है, बल्कि यह नागरिकों के विश्वास से आती है; कि अदालतें विवादों की तटस्थ और निष्पक्ष मध्यस्थ हैं।” बहुत बढ़िया बयान! अनुच्छेद 7.1. भारत के संविधान का 2 भाग ‘न्यायपालिका’ सहित राज्य के प्रत्येक अंग की संरचना व भूमिका व कार्यों को परिभाषित, परिसीमित व सीमांकित करता है। यह उनके अंतर-संबंधों, जांच और संतुलन के लिए मानदंड स्थापित करता है। न्यायपालिका की स्वतंत्रता ‘कानून के शासन’ व संवैधानिक मानदंडों के लिए आवश्यक है। भारतीय संविधान के अनुसार ‘न्यायपालिका’ क्या है? भारत में एकल-एकीकृत न्यायिक प्रणाली है। भारत में न्यायपालिका की संरचना ‘पिरामिड-नुमा’ है, जिसके शीर्ष पर सर्वोच्च न्यायालय है। उच्च न्यायालय, सर्वोच्च न्यायालय के नीचे हैं व उनके नीचे जिला और अधीनस्थ न्यायालय हैं। निचली अदालतें राज्य उच्च न्यायालयों के सीधे पर्यवेक्षण के तहत कार्य करती हैं। संवैधानिक कानून – II; आम तौर पर राज्य व व्यक्तियों के बीच संबंधों, उपलब्ध अधिकारों व स्वतंत्रता की प्रकृति और सीमा, इन अधिकारों की न्यायिक व्याख्या, राज्य नीति के निदेशक सिद्धांतों व नागरिकों के मौलिक अधिकारों और कर्तव्यों पर केंद्रित है। संविधान; न्यायपालिका को कानून के संरक्षक के रूप में कार्य करने का अधिकार देता है। कई प्रावधान न्यायपालिका की भूमिका, शक्ति, कार्यों व अधिकारियों की नियुक्तियों से संबंधित हैं। प्रमुख प्रावधान हैं: भाग V – अध्याय IV – संघ न्यायपालिका यानी, सुप्रीम कोर्ट – नियुक्ति और निष्कासन, भूमिका और कार्य। भाग VI – अध्याय V – उच्च न्यायालय – नियुक्ति और निष्कासन, भूमिका और कार्य। भाग VI – अध्याय VI- अधीनस्थ न्यायालय – नियुक्ति और निष्कासन, भूमिका व कार्य। अनुच्छेद 50, न्यायपालिका की स्वतंत्रता’ से संबंधित है जो न्यायपालिका को विधायिका और कार्यकारी शाखा से अलग करता है। अन्य प्रावधान उन भागों व लेखों के अंतर्गत आते हैं जो न्यायालय की ज़िम्मेदारियों से संबंधित हैं। न्यायपालिका कानूनी मामलों पर मध्यस्थ के रूप में कार्य करती है। संवैधानिकता, न्यायिक समीक्षा व भारत के संविधान की ‘बुनियादी संरचना’ का आंतरिक संघर्ष, विधायिका या कार्यपालिका के किसी भी कार्य की जांच के लिए आह्वान करके इसके प्रहरी के रूप में कार्यरत है; सीमा लांघने से; संविधान द्वारा उनके लिए निर्धारित किया गया है। ये संविधान में निहित लोगों के मौलिक अधिकारों को राज्य के किसी भी अंग द्वारा उल्लंघन से बचाने में ‘संरक्षक’ के रूप में कार्य करती है। न्यायपालिका केंद्र व राज्य या राज्यों के बीच सत्ता के परस्पर विरोधी प्रयोग को संतुलित करती है। उम्मीद की जाती है कि न्यायपालिका सरकार की अन्य शाखाओं, नागरिकों या ‘इच्छुक समूहों’ द्वारा डाले गए बाहरी दबावों से अप्रभावित रहेगी। न्यायपालिका की स्वतंत्रता संविधान की एक बुनियादी व अविभाज्य विशेषता है। न्यायिक सुरक्षा यह है कि, कोई भी मंत्री राष्ट्रपति को कोई नाम नहीं सुझा सकता, जो अंततः न्यायपालिका के ‘कॉलेजियम’ द्वारा अनुशंसित एक सूची से न्यायाधीशों की नियुक्ति करता है। सर्वोच्च न्यायालय या उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों को भारत की संसद के दोनों सदनों के सदस्यों के दो-तिहाई बहुमत के अलावा, नियुक्ति के बाद उनके कार्यालय से नहीं हटाया जा सकता है। एक व्यक्ति जो किसी न्यायालय का न्यायाधीश रहा हो, उसे उस न्यायालय के क्षेत्राधिकार में प्रैक्टिस करने पर रोक है। तो फिर आम आदमी की पीड़ा का क्या, जिनके मामले 10 से 20 सालों तक अदालतों में लंबित हैं? सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश, न्यायमूर्ति मदन लोकुर ने ‘न्याय देने में देरी’ पर कई लेख लिखे हैं व विभिन्न मंचों को संबोधित किया है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की मौजूदगी में, राज्यों के मुख्य न्यायाधीशों के सम्मेलन को संबोधित करते समय, सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश, न्यायमूर्ति तीरथ सिंह ठाकुर, भावुक हो, रो पड़े! जस्टिस टी.एस. ठाकुर ने कहा, ”मैं सुप्रीम कोर्ट का मुख्य न्यायाधीश बन गया हूं, लेकिन मैं जानता हूं कि हम आम आदमी को पूरी तरह से न्याय नहीं दे पा रहे हैं”! वे कुछ देर रुके, अपने आंसू पोंछे व सरकार से, ‘सभी रिक्त न्यायिक पदों को भरने’ का आग्रह किया। भारत के सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश जोसेफ कुरियन ने अपनी सेवानिवृत्ति से पहले सैकड़ों मामलों का फैसला किया। उन्होंने ‘मध्यस्थता व वैकल्पिक न्यायिक निवारण प्रक्रियाओं’ का ज़रदार प्रचार किया। दिल्ली उच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश और राष्ट्रीय उपभोक्ता मंच के न्यायिक सदस्य, न्यायमूर्ति विद्या भूषण गुप्ता कहते हैं, “न्याय देने में देरी के परिणामस्वरूप आम आदमी को असंख्य कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। आम वादकारी व लिटिगेंट को शीघ्र राहत देने की आवश्यकता है। इससेे न्यायाधीशों पर कार्य दबाव कम करने मेें भी मदद मिलेगी”। न्याायमूर्ति वी.बी. गुप्ता का सुझाव है कि यह तब शुरू किया जा सकता है, जब न्यायाधीश प्रशिक्षण प्राप्त कर रहे हों। यह सुझाव राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू की सीजेआई चंद्रचूड से की गई अपील के अनुरूप है। सारांशाार्थ यह कहा जा सकता है कि हाल ही में सीजेआई चंद्रचूड द्वारा इस्तेमाल किया गया “तारीख पे तारीख” (फिल्म ‘दामिनी’ में सन्नी देओल का संवाद) समयबद्ध निर्णय की आवश्यकता को दर्शाता है। इससे दोहरा उद्देश्य पूरा होगा; आम आदमी को शीघ्र न्याय मिले व अदालतों में लंबे समय से लंबित मामलों का बोझ कम हो जाए। इससे संस्कृत में लिखा शिलालेख, ‘यतो धर्मस्ततो: जयः’ (यतो धर्मस्ततो जयम्) साकार हो जाएगा, जिसका अर्थ है “जब न्याय (धर्म), तब विजय”। इसे धर्म के पहिये पर लिखा गया है, जो सत्य, अच्छाई और समता को समाहित करता है। न्याय के हित में ‘अंत्योदय’ के लिए न्यायपालिका के लिए आत्मनिरीक्षण करने का समय आ गया है; आखिरी पंक्ति में आम आदमी के लिए न्याय हो!
प्रो: नीलम महाजन सिंह
(वरिष्ठ पत्रकार, राजनैतिक विश्लेषक, दूरदर्शन व्यक्तित्व, सॉलिसिटर फॉर ह्यूमन राइट्स संरक्षण व परोपकारक)