
तनवीर जाफ़री
मध्य एशिया में मंडरा रहे युद्ध के बादल फ़िलहाल छंटते हुये नज़र आ रहे हैं। 13 जून को इस्राईल ने ईरान पर अचानक बड़ा हमला कर दिया था। इन हमलों में ईरान के उच्चस्तरीय 20 कमांडर और परमाणु वैज्ञानिक मारे गए थे। इसके बाद ईरान ने जवाबी कार्रवाइयां कीं। दोनों ओर से ड्रोन व मिसाइल की बौछार 12 दिनों तक होती रही। इस्राईल के इतिहास में यह पहला मौक़ा था जब ईरान जैसे किसी देश ने धोखे से किये गये उसके हमलों का ऐसा मुंहतोड़ जवाब दिया जिसकी इस्राईल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू या इस्राईल की जनता ने भी कभी कल्पना नहीं की होगी। इस्राईल बनाम ईरान संघर्ष में इस्राईल के वजूद से सम्बंधित कुछ बातें कभी भी नज़रअंदाज़ नहीं की जा सकतीं। जर्मन तानाशाह एडोल्फ़ हिटलर के उत्पीड़न के बाद यहूदी मुख्य रूप से 1930 के दशक से 1940 के दशक के बीच फ़िलिस्तीनियों की अनुकम्पा से यहाँ बसने लगे। इस दौरान, लगभग 2,50,000 यहूदी फ़िलिस्तीन पहुंचे थे । द्वितीय विश्व युद्ध 1939-1945 के बाद, विशेष रूप से होलोकॉस्ट के बाद, 1945 से 1948 तक यहूदी प्रवास फिर से बढ़ा, और 1948 में इस्राईल की स्थापना के साथ यह प्रक्रिया और भी तेज़ हो गयी। चूँकि इस्राईल को अरब के इस क्षेत्र में बसाने में पश्चिमी देशों ख़ासकर अमेरिका व ब्रिटेन की दूरगामी सोच काम कर रही थी इसलिये इन देशों ने इसे भरपूर समर्थन देकर न केवल इनके फलने फूलने में इस्राईल की पूरी मदद की बल्कि क़ब्ज़े की इस ज़मीन पर अपने विस्तार के लिये की जाने वाली हिंसक कार्रवाइयों में भी हमेशा इनके साथ रहे। इसी अमेरिकी समर्थन का नतीजा है कि इस्राईल गत दो वर्षों में ग़ज़ा के लगभग 80 हज़ार बेगुनाह व निहत्थे लोगों को मार चुका है।और उसकी बर्बरतापूर्ण कार्रवाई अभी भी जारी है।
दूसरी तरफ़ वह ईरान है जो पश्चिमी देशों की ‘ बांटो और राज करो ‘ की नीति का शिकार होकर ऑर्गनाइज़ेशन ऑफ़ इस्लामिक कोऑपरेशन के 57 सदस्य देश होने के बावजूद पश्चिमी साज़िश के तहत केवल शिया-सुन्नी मतभेद के नाम पर हमेशा अलग थलग किया जाता रहा । इसके अलावा 1979 में जबसे ईरान में अमेरिका परस्त शाह मोहम्मद रज़ा पहलवी का तख़्ता पलट हुआ और अयातुल्लाह रूहुल्लाह ख़ोमैनी के नेतृत्व में इस्लामी गणराज्य की स्थापना हुई तभी से ईरान अंतरराष्ट्रीय प्रतिबंधों का भी सामना करता आ रहा है। इस अमेरिकी विरोध की वजह केवल यह थी कि अयातुल्लाह ख़ोमैनी के नेतृत्व वाली इस्लामिक क्रांति ने ईरान को न केवल पश्चिमी सभ्यता से मुक्त कर ईरानी सभ्यता पर चलने की राह हमवार की बल्कि ईरान की तेल सम्पदा को लेकर अमेरिकी मनमानी किये जाने के अमेरिकी सपनों को भी चकनाचूर कर दिया। यही वजह थी कि अमेरिका ने ईरान के 1979 इस्लामिक क्रांति के बाद के शासन को ‘कट्टरपंथी शासन ‘ कह कर संबोधित करना शुरू कर दिया। और पूरे विश्व में ईरान को लेकर यही धारणा बनाने की कोशिश भी की।
उधर ईरान के अतिरिक्त इस्लामी जगत के लगभग सभी शेष देश पश्चिमी देशों ख़ासकर अमेरिका की आँखों का तारा बने रहे। इसी लिये अमेरिका ने बहरीन,कुवैत,यूएई,इराक़,सऊदी अरब,जॉर्डन जैसे अनेक देशों को ईरान का भय दिखा कर इन देशों की सुरक्षा करने के नाम पर यहाँ अपने सैन्य ठिकाने बना रखे हैं। कई अमेरिकी युद्धपोत भी इस क्षेत्र में सक्रिय हैं। अमेरिका यह सारी क़वायद केवल ईरान को घेरने की अपनी दूरगामी साज़िश के तहत करता आ रहा है। उधर ईरानी नेतृत्व जिसकी बागडोर उन शिया उलेमाओं के हाथों में है जिनकी प्रेरणा का मुख्य स्रोत हज़रत अली व उनके पुत्र हज़रत इमाम हुसैन का वह घराना है जिसने लगभग 1450 वर्ष पूर्व करबला (इराक़ ) में अपनी व अपने परिजनों की क़ुर्बानी देकर इतिहास में सुनहरे अक्षरों में रहती दुनिया तक के लिये यह लिख दिया कि दुश्मन चाहे जितना ताक़तवर क्यों न हो परन्तु यदि वह क्रूर है,अमानवीय है,असत्य और हिंसा पर चलने वाला है,अधार्मिक है तो ऐसे दुश्मन के आगे सिर्फ़ उसकी ताक़त से प्रभावित होकर झुकना ‘अधर्म ‘ है। उस समय हुसैन ने यज़ीद की लाखों की सेना की परवाह नहीं की। जिसका नतीजा है कि आज पूरे विश्व में अली और उनके बेटे हुसैन का परचम लहराते देखा जा सकता है जबकि कोई मुसलमान अपने औलादों का नाम तक यज़ीद रखना पसंद नहीं करता।
उसी करबला से प्रेरणा लेकर ईरान के सुप्रीम लीडर आयतुल्लाह ख़ामनेई ने इतिहास में पहली बार वह कर दिखाया जिसकी दुनिया उम्मीद भी नहीं कर रही थी। ईरान की तरफ़ से इस्राईल पर इतने ज़बरदस्त जवाबी आक्रमण हुये कि यदि एक सप्ताह और युद्ध खिंचता तो संभवतः पूरा इस्राईल खंडहर में तब्दील हो जाता। उधर चतुर अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प भी ईरानी आक्रामकता से भयभीत होकर अपनी इज़्ज़त बचाने के अवसर तलाशने लगे। दुनिया में कोई देश ऐसा नहीं जो इस्राईल व अमेरिका को एक साथ चुनौती देने का साहस रखता हो। वर्तमान समय की सच्चाई तो यही है कि जैसे इलाक़े के गुंडे के साथ खड़े होकर लोग अपने आप को भी सूरमा समझने लगते हैं उसी तरह अमेरिका का पिछलग्गू या उसका चाटुकार बनना भी दुनिया के अनेक देश अपना सौभाग्य समझते हैं। कुछ अमेरिकी शक्ति से प्रभावित होकर कुछ मधुर रिश्ते बनाये रखने की ख़ातिर तो कुछ व्यावसायिक दृष्टिकोण के मद्देनज़र। परन्तु ईरान अकेला ऐसा देश है जिसने 46 वर्षों के लम्बे अरसे का अमेरिकी प्रतिबंध झेलने के बावजूद अपने आप को इतना मज़बूत कर लिया कि इस्राईल को अपना अस्तित्व ख़तरे में पड़ता नज़र आने लगा तो अमेरिका को अपनी झूठी आबरू बचाने की नौबत आन पड़ी।
बहरहाल,दोनों देशों के बीच युद्ध विराम की ख़बर से पूरी दुनिया ने चैन की सांस तो ज़रूर ली है। परन्तु इस युद्ध विराम को लेकर इस्राईल व अमेरिका द्वारा किये जा रहे भ्रामक दावों के बीच ईरान के सर्वोच्च नेता आयतुल्लाह ख़ामनई का बयान एक बार फिर ईरान के मज़बूत पक्ष व उसके बुलंद हौसलों की तस्वीर पेश करता है। आयतुल्लाह ने साफ़ साफ़ कहा है कि ईरान न तो “थोपी गई जंग” स्वीकार करेगा और न ही “थोपी गई शांति”। ईरान किसी तरह के दबाव के आगे नहीं झुकेगा और किसी भी बाहरी हस्तक्षेप, ख़ासकर अमेरिका की सैन्य दख़लअंदाज़ी का कड़ा जवाब देगा। उन्होंने ने अमेरिका को साफ़ शब्दों में चेतावनी भी दी कि यदि वह इस्राईल-ईरान युद्ध में सैन्य हस्तक्षेप करता है तो उसे ऐसा नुक़सान झेलना पड़ेगा जिसकी भरपाई नहीं हो सकेगी। “जंग का जवाब जंग से, बम का जवाब बम से, और हमले का जवाब हमले से” दिया जाएगा। यह बयान उनकी निडरता व उनके उस आक्रामक रुख़ को भी दर्शाता है, जिसमें उन्होंने यह स्पष्ट किया कि ईरान किसी भी हमले का जवाब उसी स्तर पर देगा और किसी तरह की कमज़ोरी हरगिज़ नहीं दिखाएगा। ख़ामनई ईरान के सर्वोच्च नेता होने के साथ साथ देश के सशस्त्र बलों के कमांडर-इन-चीफ़ भी हैं। और सशस्त्र बलों के कमांडर-इन-चीफ़ होने के चलते ईरान के संविधान के अनुच्छेद 110 के तहत सर्वोच्च नेता आयतुल्लाह खामनेई को ही युद्ध या शांति की घोषणा करने का अधिकार हासिल है। लिहाज़ा कहना ग़लत नहीं होगा कि ईरान ने विश्व विजेता समझने की ग़लतफ़हमी पालने वाले देशों को अपनी जवाबी कार्रवाई और भविष्य के इरादों से उन्हें आईना ज़रूर दिखा दिया है।