
डॉ. राजाराम त्रिपाठी
हाल ही में नीति आयोग द्वारा प्रस्तुत एक वर्किंग पेपर ने देश के कृषि जगत में गहरी चिंता और असंतोष उत्पन्न किया है। इस पेपर में अमेरिका से कृषि उत्पादों पर आयात शुल्क घटाने, जेनेटिकली मोडिफाइड (जीएम) सोयाबीन व मक्का को भारत में लाने, और भारत को इन उत्पादों के लिए एक संभावित आयातक बाज़ार के रूप में खोलने की सिफारिश की गई है।
यह प्रश्न अब राष्ट्रीय विमर्श का विषय बन चुका है कि ;
क्या भारत अब केवल वैश्विक कृषि बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लिए एक विशाल उपभोक्ता मंडी बनकर रह जाएगा?
और क्या हमारे नीति-निर्माता अब भारतीय किसानों के प्रतिनिधि नहीं, बल्कि वैश्विक खाद्य व्यापार लॉबी के परामर्शदाता बनते जा रहे हैं?
भूख से त्रस्त देश को जीएम अनाज का बोझ?
भारत अभी भी ग्लोबल हंगर इंडेक्स में 127वें स्थान पर है। करोड़ों लोगों को आज भी संतुलित पोषण उपलब्ध नहीं। ऐसे में अमेरिका से जीएम खाद्यान्न मंगाने की सिफारिश, न केवल स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ है, बल्कि भारत को एक जेनेटिक डंपिंग ग्राउंड में बदलने की मंशा भी उजागर करती है।
विज्ञान और जनस्वास्थ्य के क्षेत्र में जीएम फसलों के दीर्घकालिक प्रभावों पर आज भी गंभीर प्रश्न चिह्न हैं। जैव विविधता, परागण प्रणाली, मृदा स्वास्थ्य और मानव जीवन पर इसके संभावित नकारात्मक परिणामों के बावजूद नीति आयोग द्वारा इस दीदादिलेरी के साथ जीएम खाद्य पदार्थों पक्ष लिया जाना चिंताजनक है।
तिलहन आत्मनिर्भरता की अनदेखी क्यों?
नीति आयोग का यह सुझाव कि भारत को अमेरिकी सोयाबीन तेल का आयात आसान बनाना चाहिए, सीधे-सीधे देश के तिलहन किसानों की उपेक्षा है। देश में सरसों, मूंगफली, तिल, अलसी और सोयाबीन जैसे फसलों की अपार संभावनाएं होते हुए भी उनके उत्पादन, मूल्य समर्थन और विपणन पर कोई सार्थक चर्चा नहीं की गई। यदि अमेरिका से जीएम तेल सस्ता मिलता है, तो भारतीय किसान के उत्पादों की कीमत कौन देगा?
क्या ‘आत्मनिर्भर भारत’ केवल भाषणों में रहेगा, और ज़मीनी नीति ‘आयात आधारित भारत’ की ओर बढ़ेगी?:
क्या नीति आयोग अब ‘व्यापार आयोग’ बन रहा है?
यह पेपर नीति आयोग के वरिष्ठ सदस्य डॉ. रमेश चंद एवं सलाहकार राका सक्सेना द्वारा तैयार किया गया है। यह वही समय है जब भारत-अमेरिका के बीच संभावित फ्री ट्रेड एग्रीमेंट की चर्चाएं ज़ोरों पर हैं। क्या यह केवल संयोग है कि आयोग अब अमेरिका के कृषि हितों की ‘सिफारिशें’ कर रहा है?
यदि कृषि नीति वे लोग बनाएंगे जिन्होंने कभी खेत की मिट्टी नहीं छुई, न किसानों की लागत समझी, न ऋण का बोझ, तो फिर भारत की कृषि आत्मा का हनन निश्चित है।
गन्ना किसानों को दरकिनार कर मक्का आयात?
इथेनॉल उत्पादन हेतु अमेरिका से जीएम मक्का आयात करने का प्रस्ताव न केवल हास्यास्पद है, बल्कि देश के गन्ना किसानों का अपमान भी। उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, कर्नाटक जैसे राज्यों में लाखों गन्ना किसान अभी भी चीनी मिलों से बकाया भुगतान के लिए संघर्षरत हैं। ऐसे में देशी स्रोतों से इथेनॉल उत्पादन बढ़ाने के बजाय विदेशी मक्का का विकल्प सुझाना ,, देश की कृषि आत्मनिर्भरता को खोखला करना है।
आयात पोषित महंगाई और खाद्य असुरक्षा की भूमिका?
नीति आयोग का यह भी सुझाव है कि अमेरिका से बादाम, पिस्ता, सेब और अखरोट जैसे उत्पादों पर आयात शुल्क कम किया जाए। प्रश्न यह है कि भारत में महंगाई चरम पर है। मध्यवर्गीय और निम्न आय वर्ग पहले से ही रसोई की कीमतों से जूझ रहा है। ऐसे में विदेशी ‘लक्ज़री खाद्य पदार्थों’ के लिए बाज़ार खोलना किसकी प्राथमिकता है?
क्या अब नीतियां व्हाइट हाउस से बनेंगी?
यह विडंबना है कि जिन नीतियों को भारत के किसानों के लिए बनना चाहिए, वे आज अमेरिका के व्यापारिक एजेंडे से प्रेरित प्रतीत होती हैं। क्या देश की कृषि नीति अब वाशिंगटन के लॉबियों से निर्देशित होगी? क्या हम ‘भारत के किसानों’ को छोड़कर ‘अमेरिकी किसानों’ के हितों के रक्षक बनते जा रहे हैं?
भारतीय कृषि और किसानों की शक्ति को पहचानिए :
भारत की कृषि अर्थव्यवस्था में अभी भी आत्मनिर्भरता की प्रबल संभावनाएं हैं। देश में ऑर्गेनिक खेती, पारंपरिक बीज, जैविक खाद, मिलेट्स, औषधीय वनस्पतियां और छोटे किसान आधारित कृषि मॉडल आज भी टिकाऊ, सुरक्षित और बाजारोन्मुख समाधान प्रस्तुत करते हैं।
हमारी आवश्यकता है —
उत्पादन बढ़ाने की नहीं,
उत्पाद की कीमत सुनिश्चित करने की।
तकनीकी ज्ञान की नहीं,
व्यापारिक न्याय की।
“कृषिर्वाणिज्यं धर्मश्च राष्ट्रस्य मूलं स्मृतम्।”
(कृषि, व्यापार और धर्म – राष्ट्र की त्रयी नींव हैं)
किसानों के नाम पर अब दलाली स्वीकार्य नहीं :
कृषि नीति में विदेशी कंपनियों के इशारों पर फैसले लेना, नीति नहीं ‘दलाली’ की संस्कृति को जन्म देना है। क्या आज का भारत, जिसकी कृषि परंपरा हजारों वर्षों से विश्व की प्रेरणा रही है, वह अपनी नीति अमेरिका के खाद्य लॉबी के हवाले कर देगा?
यदि ऐसा हुआ, तो यह केवल कृषि पर हमला नहीं, भारत की आत्मा पर आघात होगा।
याद रखियेगा अब किसान पूछेगा, किसके लिए ये नीतियां बन रही हैं?
आज भारत का किसान प्रश्न करता है कि :
- क्या नीति आयोग हमारी बात सुनेगा या वॉल स्ट्रीट की लॉबी की?
- क्या हम अपने खेतों में अपनी फसल नहीं उगाएंगे?
- क्या हमारी थाली पर अब विदेशी व्यापारिक कंपनियों का अधिकार होगा?
“यत्र अन्नं तत्र लक्ष्मीः” — जहाँ अन्न है, वहीं समृद्धि है।
लेकिन यदि हम अपने अन्नदाता की उपेक्षा कर, विदेश से अन्न मंगाकर उसे खिलाएँगे — तो न अन्न बचेगा, न आत्मा, न आत्मनिर्भरता। - डॉ. राजाराम त्रिपाठी–राष्ट्रीय संयोजक – अखिल भारतीय किसान महासंघ,
कृषि मामलों के विशेषज्ञ, पर्यावरण योद्धा व ग्रामीण अर्थनीति विचारक)