नरेंद्र तिवारी
हमारे समाज में बरसों से प्रचलित अंधविश्वास का अब भी जारी रहना आधुनिक युग मे भी हमारी पुरातनपंथी सोच को उजागर करता है। यह पुरातन पंथी सोच पीढ़ी-दर-पीढ़ी स्थानांतरित होती आ रही हैं, जो अब भी हमारे समाज मे कहीं न कहीं सुनी और महसूस की जाती है। इन अंधविश्वासों पर महज गरीब, अशिक्षित ओर कम पढा लिखा वर्ग ही विश्वास करता हो ऐसा नहीं है। उच्चशिक्षित, बौद्धिक, ओर धनवान भी इससे अछूते नहीं है। अब कर्म करने से फल प्राप्त होता है यह तो गीता का संदेश है। किंतु गीता के इस महान संदेश को झुटलातें हुए जब अकर्मी भी बैठे-बैठे हथेली में खुजली को धन के आगमन का संकेत मानकर हथेलियां मसलते रहें तो समझो समाज में व्याप्त अंधविश्वास की जड़े कितनी गहरी है जबकि सच यह है कि बिना कर्म धन प्राप्त नहीं होता है। यह अंधविश्वास समाज मे कब से ओर क्यों प्रचलित है इसका निश्चित समय बता पाना तो कठिन है। इस जैसे ओर भी बहुत अन्धविश्वास समाज में व्याप्त है। अब बिल्ली के रास्ता काटने से अच्छा काम बिगड़ने ओर परेशानी के आने का संकेत न जाने कब से प्रचलित है। जबकि भारतीय घरों में बिल्ली को पाला जाता है। पाली हुई बिल्ली दिन में कितनी बार रास्ता काट देती है। किंतु वाहन से यात्रा करतें वक्त बिल्ली के रास्ता काटते ही वाहन में बैठे हरेक शख्स के दिमाग मे बिल्ली के रास्ता काटने का ख्याल आता है और काम के बिगड़ने या अपशगुन होने के ख्याल में गुम हो जाते है। बिल्ली का रास्ता काटना एक सामान्य प्रक्रिया है। यह किसी परेशानी और अपशगुन के आने का संकेत नहीं है। ऐसा शायद इसलिए माना जाता है कि बिल्ली शेर कुल की सदस्य होती है और जंगलों में शेर जब रास्ते से निकलता है तो अपने शिकार पर पलटकर हमला भी करता है। सो यह माना जाता है कि शेर के निकलने के बाद कुछ देर रास्ता देखकर ही जाना चाहिए। बिल्ली के रास्ता काटने से मुसीबतों के आने की कोई संभावना नहीं है सो जब भी बिल्ली रास्ते काटे तो रुके नहीं चलते रहें। अब विभिन्न समाजों में पशु बलि दी जाती है। यह पशु बलि देवताओं को खुश करने, मन्नतों को पूरी करने एवं कामनाओं की पूर्ति के लिए दी जाती है। अनेकों समाजों में पशुओं की बलि के पीछे धार्मिक एवं सामाजिक मान्यताओं का हवाला दिया जाता है। जबकि पशुओं की बलि धार्मिक गर्न्थो में कहीं कोई उल्लेख नहीं हैं। यह परंपरा मॉनव सभ्यता के उस दौर से जुड़ी हुई है जब मनुष्य जंगलो में रहता था, पहाड़ो ओर कन्दराओं में निवास करता था। उसके पास रहने के आज जैसे पक्के ठिकाने नहीं थै। प्रकृति की गोद मे रहने वाले मॉनव समुदाय पर आने वाले प्राकृतिक संकटों को वह देवताओं का गुस्सा मानता था। बाढ़, भूकम्प, भूस्खलन, हवा, आंधी, बर्फबारी आदि की अत्यधिकता को वह देवताओं का गुस्सा मानकर देवताओं को खुश करने के लिए पशुओं की बलि देता था। मानवीय सभ्यता के इस दौर में जब मनुष्य जंगलो में निवस्त्र रहता था। शिकार कर पशुओं का मांस खाकर ही अपना गुजारा करता था। मनुष्य देवताओं को अपनी सर्वोत्तम वस्तु भेंट करता है उस युग मे मांस ही मनुष्य की भूख मिटाता था सो अपने देवताओं को पशुबलि देकर संकटों से निदान की प्रार्थना करता था। इसी प्रकार आंखों का फड़कना कब से संकटों के आने का कारण हो गया, सोने के आभूषण का घूमना या खो जाना या चोरी हो जाना भी भारतीय समाज में न जाने कब से अपशगुन माना जाता है। अब घोड़े की नाल को शुभ मानने का प्रचलन भी न जाने कब से चला आ रहा है। घोड़े की नाल को घोड़ा पालक बेचतें है। इसके कई अंधविश्वासी खरीददार भी है। काले घोड़े की नाल ऊंची कीमत में बाजार में बिकती है। अभी पिछले दिनों अपनी अमरकंटक यात्रा के दौरान जड़ी-बूटी विक्रताओं की दुकान पर अनेकों ऐसे ग्राहकों को देखा जो जड़ी बूटी के दुकानदार से सम्मोहन बूटी, धनप्राप्ति बूटी दबे स्वर में माँगतें देखे गए। इनमें से अनेकों तो इन जड़ी बूटियों से सम्मोहन ओर धनप्राप्ति की बातों को पुख्ता करने के अपने झूठे ओर मनगढ़न्त तर्क भी देने लगे। मुझे उस समय बड़ा अचम्भा हुआ जब व्यवसाय में प्रतिद्वंदी की दुकान पर तांत्रिकों की सलाह पर सुबह से उठकर तांत्रिक क्रिया करतें अंधविश्वासी ओर अकर्मी लोगो को देखा जो स्वस्थ्य व्यवसायिक प्रतिस्पर्धा के स्थान पर तंत्र मंत्र और षड्यंत्र का सहारा लेकर व्यवसाय में सफलता की कोशिशें करतें देखे गए ओर इन हथकंडों के सार्वजनिक होने पर जगहँसाई के पात्र भी बने। अभी भी निमाड़ के ठेठ वनवासी अंचलो में साँप के काटने पर ग्रामीण तांत्रिक याने ‘बडवे’ के पास जाने की परंपरा है। बड़वा तंत्र मंत्र की सहायता से सांप का जहर उतारता है। इस प्रक्रिया में अनेकों लोगो की जानें चली जाती है। निमाड़ क्षेत्र में शर्पदंश से बहुत सी मौत होती है। जिसका प्रमुख कारण अस्पताल के स्थान पर ओझा या बड़वों के पास समय गवाना है। आज से कुछ बरस पहले ग्रामों व छोटे शहरों में नीम या अन्य किसी पेड़ पर बहुत सी लोहे की किल्लीया ठुकी हुई आपने भी देखी होगी। यह लोहे की किल्लीया समाज में प्रचलित भूत-प्रेत ओर हवा के अंधविश्वासों के प्रचलन का संकेत है। खासकर गरीब और अशिक्षित महिलाओं के मानसिक संतुलन के खराब होने पर समाज के पांच साथ व्यक्ति उस महिला को नीम के पेड़ के पास ले जाकर उसके अंदर घुसी भूत-प्रेत की आत्मा को बाहर निकालने का प्रयास करते है। बाबा, ओझा फ़क़ीर, साधु समाज मे प्रचलित इन अंधविश्वासों ओर अवैज्ञानिक मान्यताओं के बल पर अपना उल्लू सीधा करते है। इस वैज्ञानिक युग मे भी समाज के एक बड़े हिस्से में इस प्रकार के बहुत से अंधविश्वास प्रचलित है जो हमारी अज्ञानता ओर नासमझी का उदाहरण है। ऐसा मानने ओर करने वाले मानसिक रोगी होते है। इन अंधविश्वासों को विज्ञान की कसौटी पर परखने की जरूरत है। समय के साथ भारतीय समाज से अनेकों अंधविश्वास खत्म होते जा रहें है। प्रचलित अंधविश्वासों से अनेको लोग परेशानी में फस जाते है अपनी जान तक गवां देते है। इन अंधविश्वासों ओर दकियानूसी परम्पराओं से बचने हेतु समाज को जागरूक करने की आवश्यकता है। अकर्मी हथेली में खुजली धनागम का संकेत नहीं, ओर बिल्ली के रास्ता काटने से संकट का आना कोरा अंधविश्वास हैं।