सोनम लववंशी
हमारा देश आए दिन चुनावी मोड में रहता है। ऐसे में विकास के मुद्दे ही गुम नहीं होते, बल्कि व्यापक स्तर पर टैक्सपेयर्स का पैसा भी व्यर्थ जाता है। लोकतंत्र में चुनावी प्रक्रिया का पालन किया जाना आवश्यक है, लेकिन पहले चुनाव जीते। फिर सीट छोड़ दें। यह कहां तक जायज़ ठहराया जा सकता है? इसी प्रकार एक पद पर निर्वाचित रहते हुए दूसरे पद के लिए चुनाव लडना और उसके बाद एक पद त्यागना भी गंभीर समस्या है। ऐसे में सवाल लोकतांत्रिक व्यवस्था के सामने कई हैं और इन सवालों का जवाब भी अब ढूढने की कोशिश होने लगी है। जो एक सुखद पहलू है। सोचिए जिस लोकतांत्रिक व्यवस्था में जनता को सिर्फ़ एक जगह से मत देने का अधिकार होता है। उसी व्यवस्था में किसी जनप्रतिनिधि को दो या उससे अधिक जगह से चुनाव लड़ने की आज़ादी किसलिए? यह तो फिर वही बात हुई कि किसी बच्चें को दो कक्षाओं के लिए परीक्षा देना हो और कहीं से भी पास हो जाए। यह रवायत किसी भी पैमाने पर उचित नहीं। ऐसे में इसे बंद किए जाने की जरूरत है।
वैसे देखा जाए तो चुनाव में हार जीत हर राजनेता के लिए बहुत मायने रखती है। एक राजनेता के लिए जीत की ख़ुशी से कहीं ज्यादा हार जाने का डर सताता है और यही डर कई बार इतना बढ़ जाता है कि राजनेताओं को दो या दो से अधिक जगहों से चुनाव लड़ने को मजबूर कर देता है। 2019 के लोकसभा चुनाव में राहुल गांधी को ही उदाहरण के तौर पर देख सकते हैं, जिन्होंने दो सीटों से चुनाव लड़ा था। हां यह अलग बात है कि वो अमेठी से चुनाव हार गए तो दोबारा चुनाव की नौबत नहीं आई, लेकिन जब कोई प्रत्याशी दो जगह से लड़ने के बाद अपनी सीट छोड़ता है। तो न सिर्फ़ दोबारा चुनाव में केंद्रीय राजस्व की बर्बादी होती है, बल्कि जनता के मत की तौहीन भी होती है। ऐसे में चुनाव लड़ने के लिए किसी भी प्रत्याशी के लिए एक सीट एक प्रत्याशी के नियम का पालन किया जाना चाहिए।
बीते कुछ वर्षों में इस दिशा में प्रयास भी हुए हैं लेकिन अभी तक इस पर व्यापक स्तर पर अमल नहीं हो पाया है। जो चिंता का कारण है। ऐसे में अब चुनाव आयोग को इस दिशा में प्रयास करना चाहिए और चुनाव सुधार की दिशा में कदम उठाना आवश्यक है। देखा जाए तो चुनाव ही वह अधिकार है जो लोकतंत्र और तानाशाही में अंतर करता है। इसे ध्यान में रखते हुए है चुनाव आयोग ने ‘एक उम्मीदवार एक-सीट’ का समर्थन किया है। इसे लेकर एक याचिका भी दायर की गई है जिसमें जन प्रतिनिधि अधिनियम की धारा 33 (7) को चुनौती देते हुए यह अपील की है कि संसद हो या फिर विधानसभा सभी स्तर पर प्रत्याशी एक सीट से चुनाव लड़े। जब मतदाता को एक बार वोट देने का अधिकार है फिर नेताओं को दो जगह से चुनाव लड़ने की छूट कहा तक जायज़ हो सकती है। सवाल तो यह भी उठता है कि जब कोई नेता दो जगह से चुनाव लड़कर विजयी होता है तो उसे प्रतिनिधित्व तो किसी एक ही जगह का करना है। एक तरह से तो यह मतदाताओं के मत का भी अपमान ही करना हुआ। इसके अलावा भी एक से अधिक सीट पर एक ही प्रत्याशी के खड़े होने के नुकसान हैं। जैसे मान लीजिए एक नेता अगर दो जगहों से चुनाव लड़ता है तो इससे दूसरे कार्यकर्ताओं को मौका नहीं मिल पाता। इतना ही नहीं चुनावों में पार्टियों की ओर स्थानीय प्रत्याशी को भी मौका नहीं मिल पाता। जिसकी वज़ह से कार्यकर्ताओं को नुकसान उठाना पड़ता सो अलग। ऐसे में अब प्रावधान करना चाहिए कि एक प्रत्याशी एक जगह से ही चुनाव लड़ें और प्रावधान का उल्लंघन हो तो उक्त दल और प्रत्याशी की मान्यता रद्द कर दी जाए।
गौरतलब हो कि चुनाव आयोग भी राजनेताओं को एक सीट एक नेता को लेकर चुनाव प्रक्रिया में सुधार की बात कर रहा है। मार्च 2015 में विधि आयोग ने चुनाव सुधार पर अपनी 211 पन्नों की रिपोर्ट सौंपी। इस रिपोर्ट में विधि आयोग ने उम्मीदवारों को एक से अधिक सीट से चुनाव लड़ने से रोकने ओर निर्दलीय उम्मीदवारों को प्रतिबंधित करने की बात कही है। इसके लिए धारा 33 (7) में संशोधन करने की बात कही गई है। साथ ही चुनाव आयोग ने कहा कि मौजूदा व्यवस्था में चुनाव में बड़ी संख्या में निर्दलीय उम्मीदवार चुनाव मैदान में उतरते है। देखा जाए तो ऐसे उम्मीदवार चुनाव में भ्रम फैलाने व चुनाव को प्रभावित करने के उद्देश्य से उतरते है। जिसे रोका जाना चाहिए। एक नेता जनता का प्रतिनिधित्व करता है। ऐसे में उसे अपने व्यक्तिगत हित को त्यागकर जनता की भलाई में कार्य करना चाहिए। लेकिन वर्तमान राजनीति को देखकर यही प्रतीत होता है। मानो राजनेता का अपना हित ही सर्वोपरि रह गया है, तभी तो अपने पक्ष में माहौल बनाने के लिए हर संभव प्रयास किए जाते हैं। फिर चाहें वह डमी कैंडिडेट खड़े करना हो या फिर एक से अधिक जगह से चुनाव लड़ना। अब समय की मांग यही है कि लोकतंत्र की मजबूती और अवाम के हित को ध्यान में रखते हुए यह रवायत बदलनी चाहिए।