अमित कुमार अम्बष्ट ” आमिली “
आजादी के बाद भी देश ने वह दौर देखा है जब जन्म के आधार पर बंटे समाज में अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति के लोगों का न सिर्फ भरपूर शोषण हुआ अपितु कहीं न कहीं वे घृणा के पात्र भी रहें हैं, ऐसी स्थिति में बदलते समाजिक परिवेश और परिस्थितियों में कानून के द्वारा इनकी रक्षा की नितांत आवश्यकता महसूस की गयी , इसलिए अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निरोधक) अधिनियम 1989 को 11 सितम्बर 1989 में भारतीय संसद द्वारा पारित किया था, जिसे 30 जनवरी 1990 से सारे भारत में लागू किया गया। यह अधिनियम उस प्रत्येक व्यक्ति पर लागू होता हैं जो अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति का सदस्य नही हैं और अनुसूचित जाति एवं जनजाति वर्ग के लोगों का उत्पीड़न करता हैं। इस एक्ट के अंतर्गत 5 अध्याय और 23 धाराएं हैं जो गैर जमानती तथा समझौता योग्य नहीं होते हैं । इस एक्ट के अंतर्गत जुर्माना या 5 साल की सजा का प़ावधान है लेकिन संगीन आपराधिक मामलों में आजीवन कारावास तक की सजा भी दी जा सकती है । इतना ही नहीं अनुसूचित जाति के उत्पीड़ित व्यक्ति द्वारा एफ० आई० आर० दर्ज करने पर विभाग द्वारा प्रथम चरण में लाभार्थी को त्वरित आर्थिक सहायता पहुचाने का प्रावधान किया गया है, सामान्यता यहाँ अपराध सिद्व होने की स्थिति में उत्पीडित व्यक्ति को रू. 40000/- से रू. 500000/- तक आर्थिक सहायता दिये जाने का प्राविधान है।
एससी – एसटी एक्ट आने के बाद निश्चित रूप से दलित और वंचितों के शोषण पर लगाम लगा और अन्य जाति के लोग उन्हें प्रताड़ित करने से सख्त कानून के कारण खुद को रोकने लगे , फिर धीरे-धीरे बदलते वक्त के साथ अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति के लोगों को राजनीतिक दलों का साथ मिला और उनकी स्थिति पहले से लगातार बेहतर होने लगी , जो निरंतर जारी है । लेकिन देखा गया कि अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लोग इस कानून की ताकत समझने के बाद इसका दुरुपयोग करने लगे , छोटी सी कहासुनी पर भी इस धारा के अंतर्गत मुकदमे दर्ज होने लगे और अन्य जाति / वर्ग के लोग को इस कानून के कारण परोक्ष रूप से प्रताड़ित किया जाने लगा जो अब भी जारी है ।
क्राइम रिकार्ड ब्यूरो के आंकड़े देखने से पता चलता है कि एससी-एसटी एक्ट में दर्ज ज्यादातर मामले झूठे पाए गए। कोर्ट ने कुछ आंकड़े फैसले में शामिल किये हैं जिसके मुताबिक 2016 में पुलिस जांच में अनुसूचित जाति को प्रताड़ित किये जाने के 5347 केस झूठे पाए गए जबकि अनुसूचित जनजाति के कुल 912 मामले झूठे पाए गए।
वर्ष 2015 में एससी-एसटी कानून के तहत अदालत ने कुल 15638 मुकदमें निपटाए जिसमें से 11024 केस में अभियुक्त बरी हुए या आरोपमुक्त हुए। जबकि 495 मुकदमे वापस ले लिए गए। सिर्फ 4119 मामलों में ही अभियुक्तों को सजा हुई। ये आंकड़े 2016-17 की सामाजिक न्याय विभाग की वार्षिक रिपोर्ट में दिए गए हैं। अपराध ब्यूरो के आंकड़े के अनुसार वर्ष 2020 के दौरान एससी के खिलाफ हुए अपराध या अत्याचार में सबसे अधिक हिस्सा ”मामूली रूप से चोट पहुंचाने” का रहा और ऐसे 16,543 मामले दर्ज किए गए , इसके बाद अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निरोधक) अधिनियम के तहत 4,273 मामले जबकि ”आपराधिक धमकी” के 3,788 मामले सामने आए, बहुत स्पष्ट है कि अधिक्तर ऐसे मामुली कहासुनी या झगड़े में भी एस सी एस टी एक्ट लग जाने से अन्य जाति के लोगों को जमानत मिलना मुश्किल हो जाता है तथा तकरीबन जेल जाना तय हो जाता है । ऐसी स्थिति को सज्ञान में लेते हुए 20 मार्च 1918 को सर्वोच्च न्यायालय ने एक निर्णय दिया था जिसके तहत ऐसे मुकदमों की जाँच इस्पेक्टर रैक के नहीं बल्कि कम से कम डिप्टी एस पी रैंक के अधिकारी करेंगे , इसके अंतर्गत तुरंत गिरफ्तारी भी नहीं होगी बल्कि गिरफ्तारी से पहले एस पी या एस एस पी से अनुमति लेने का प्रावधान होगा ,अग्रिम जमानत का भी प्रावधान रखा गया , जिसका अधिकार सिर्फ उच्चतम न्यायालय नहीं अपितु दंडा अधिकारी को भी होगा , किसी भी सरकारी अधिकारी या कर्मचारी पर ऐसे मुकदमे होने पर गिरफ्तारी के लिए अमुक डिपार्टमेंट से अनुमति लेनी होगी तथा जाँच के लिए सात दिन का प्रावधान रखा था । ऐसे निर्णय से बहुत उम्मीद थी कि एससी – एसटी एक्ट का दुरूपयोग निश्चित रूप से कम जाएगा लेकिन सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के विरुद्ध केंद्र सरकार ने एससी/एसटी (अत्याचार निवारण) संशोधन कानून 2018 पारित करते हुए अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम 1989 के मूल प्रावधानों को फिर से लागू कर दिया । अभी हाल ही में कर्नाटक हाईकोर्ट ने इसी कानून के अंतर्गत चल रहे मुकदमे में एक बड़ा फैसला सुनाया है । वास्तव में मामला 2020 का है , रितेश पियास नाम के व्यक्ति ने मोहन नाम के एक शख्स पर जातिसूचक शब्दों के इस्तेमाल करने का आरोप लगाया था. मोहन के मुताबिक, उसके सहकर्मी भी घटना के दौरान मौजूद थे. शिकायतकर्ता और उसके सहकर्मी मजदूरों को जयकुमार आर नायर ने ठेके पर काम पर रखा था.व्यवहारिक रूप से देखे तो यह मामला अपराध का भी हो सकता है या फिर ऐसा भी हो सकता है कि किसी बात को लेकर मतभेद उपजा हो और इस एक्ट के अंतर्गत मुकदमा में फंसा दिया गया हो , दोनों ही बातें हो सकती हैं, इसलिए कर्नाटक हाईकोर्ट के न्यायाधीश एम नागप्रसन्ना ने कहा कि , ‘बयानों को पढ़ने से दो चीजें सामने आती हैं. पहला यह कि इमारत का तहखाना सार्वजनिक स्थान नहीं था और दूसरी बात ये कि वहां केवल शिकायतकर्ता, उसके मित्र या जयकुमार आर. नायर के अन्य कर्मचारी उपस्थित थे , कोर्ट ने कहा, ‘अपशब्दों का प्रयोग स्पष्ट रूप से सार्वजनिक स्थान पर नहीं किया गया है, इसलिए इसमें सजा का प्रावधान नहीं है , अर्थात किसी भी मुकदमे में एस सी एस टी एक्ट तब ही कारगर होगा जब ऐसे अपराध सार्वजनिक जगह पर किए गए हो , वास्तव में इस निर्णय का बेहद दूरगामी प्रभाव पड़ेगा क्योंकि एस सी एस टी एक्ट के अधिकतर मुकदमें या यूँ कहें की फर्जी मुकदमे इसी आधार पर दायर किए जाते हैं कि अनुसूचित जाति और अनुसूचित के सबंध में अपशब्द कहें गए है या गाली दी गयी है , कर्नाटक हाईकोर्ट के इस निर्णय से कम से कम फर्जी मुकदमों में कमी आएगी इसमें कोई संदेह नहीं है । लेकिन केन्द्र सरकार को भी इस कानून के दुरूपयोग को संज्ञान में लेते हुए निश्चित रूप से संशोधन करना चाहिए जिससे निर्दोष लोग अपराधिक मुकदमों में फंसाए न जा सकें।