मितव्ययी को कंजूस मानना गलत

It is wrong to consider a frugal person as miserly

गोवर्द्धन दास बिन्नाणी ‘राजा बाबू’

पुराणों में वर्णित कथानुसार क्षत्रिय राजा सुजानसेन को उसके बहत्तर उमरावों को ऋषिमुनियों ने, उनके यज्ञ स्थल को बाधित करने के कारण श्राप दे पत्थर में परिवर्तित कर दिया था। तत्पश्चात राजा सुजानसेन की अर्द्धांगिनी ने सभी पत्थर के बुत बने उमरावों की पत्नियों के साथ प्रभु महादेव की घोर तपस्या की। इस घोर तपस्या के परिणामस्वरूप माता पार्वती के आग्रह पर प्रभु महेश, माता पार्वती के साथ प्रकट हो क्षत्रिय राजा सुजानसेन के साथ सभी बहत्तर उमरावों को ज्येष्ठ शुक्ला नवमी वाले दिन न केवल नया जीवन प्रदान किया बल्कि इस तिहत्तर परिवार वाले समाज को आशीर्वाद स्वरूप अपना नाम भी दिया । इसके बाद यह समुदाय जो “माहेश्वरी” नाम से जाना जाने लगा, ने प्रभु महेश की आज्ञानुसार क्षत्रिय कर्म को छोड वैश्य धर्म को अपना कर सत्य, प्रेम व न्याय के पथ पर चलते रह कर धनोपार्जन का संकल्प लिया।इस प्रकार माहेश्वरी समाज वृहद वैश्य समाज का एक हिस्सा तो अवश्य हो गया लेकिन तब से लेकर आजतक हर ज्येष्ठ शुक्ला नवमी को देवाधिदेव महेश व जगतजननी माँ पार्वतीजी की आराधना करते हुये महेश नवमी पर्व बड़े ही श्रद्धापूर्वक, खूब धूमधाम से पूरे विश्व में हर माहेश्वरी स्थल पर कुटुम्ब सहित मनाते हैं।

उपरोक्त अनुसार माहेश्वरीयों का यह दायित्व हो गया की सत्य, प्रेम व न्याय के पथ पर चलते रह कर धनोपार्जन तो करे ही, साथ ही निस्वार्थ भाव से अपने धन के एक भाग को धर्म कार्यों में लगाता रहे अर्थात बेवजह के खर्चों से बचना है ताकि धर्माचरण की पालना में किसी भी प्रकार की बाधा न आय।

यहाँ यह अवश्य उल्लेख करना चाहूँगा कि तब से लेकर आज तक हमारी संस्कृति में मितव्ययिता व दानशीलता का बहुत ही महत्व है । मितव्ययिता हमें जीवन में सादगी, संयम, अनावश्यक खर्चों पर नियंत्रण सिखाती है तो दानशीलता हमें सिखाती है कि सद्कार्य के लिये आवश्यकता के समय पर जो भी संभव हो, जितना भी संभव हो अवश्य दें ।

याद रखें मितव्ययी का मतलब कंजूस नहीं होता है बल्कि अनावश्यक खर्च न कर, सोचसमझ कर खर्च करनेवाला ही होता है । इसी तरह दानी के मन में बदले में उपकार पाने की कोई भावना नहीं होती है बल्कि समाज सेवा या राष्ट्र सेवा की भावना होती है। इन्हीं सब गुणों से सम्पन्न होते हैं वैश्य यानी बनिये जबकि कुछ सिरफिरे साहित्यकारों ने इन्हें मुनाफाखोर बतला बदनाम किया है। मेरा यह उल्लेख करने का मतलब यही है कि हर समुदाय में कुछ अपवाद होते हैं जिसका यह मतलब कभी नहीं होता की सभी उसी तरह के हैं । हाँ यह सही है कि बनिये फालतू उलझने में विश्वास नहीं रखते और चुपचाप शांति से अपने काम में लगे रहते हैं। याद रखें बनिये यदि मितव्ययी नहीं होते तो बड़े बड़े दानवीरों में उनका नाम कहाँ से आता । इतिहास में अनेकों ऐसे उदाहरण है जिससे यह सिद्ध होता है कि बनिये अपने नश्वर शरीर के मौज-मस्ती में फालतू खर्च न कर मितव्ययिता बरत सेवा , दान , उत्सव , देशहित में सदा अग्रणी भूमिका निभायी है जो निम्न उदाहरणों से एकदम स्पष्ट हो रही है –
1] राजस्थान राजपूतानी शौर्य भूमि बीकानेर के मूल निवासी वैश्य अमर चंद बांठिया जी की कीर्ति से प्रभावित होकर ग्वालियर की तत्कालीन सिंधिया रियासत के महाराज ने उनको राजकोष का कोषाध्यक्ष बनाया था। उस समय ग्वालियर का गंगाजली खजाना की जानकारी केवल चुनिन्दा लोगों को ही थी। बांठिया जी भी उनमें से एक थे। यहाँ यह बात गौर करने की है कि उस समय के चलन के मुताबिक गंगाजली खजाना से कोई भी कुछ भी निकाल ही नहीं सकता था फलस्वरूप खजाने की सदैव वृद्धि होती रही।

1857 का स्वातंत्र समर के समय झांसी की महारानी लक्ष्मीबाई अपने योग्य सेनानायक राव साहब, तात्या टोपे और रानी बैजाबाई एवं अपने सैन्य बल के साथ अंग्रेजों से लोहा लेते हुये ग्वालियर को अपने अधिकार में ले, अंग्रेजों के सहयोगी शासक को वहां से हटने को विवश तो कर दिया था, किन्तु उनकी सेना को कई महीनों से न तो वेतन प्राप्त हुआ था और न हीं उनके भोजन आदि की समुचित व्यवस्था हो पा रही थी अर्थात अर्थाभाव के कारण स्वाधीनता समर दम तोड़ता दिखाई दे रहा था। इस स्थिति को समझते हुये बांठिया जी ने अपनी जान की परवाह न कर महारानी लक्ष्मीबाई को अपनी सारी जमा पूँजी तो समर्पित की ही साथ ही ग्वालियर का राजकोष भी उनके सुपुर्द कर दिया। यह धनराशि उन्होंने ८ जून १८५८ को उपलब्ध कराई। उनकी मदद के बल पर वीरांगना लक्ष्मीबाई दुश्मनों के छक्के छु़ड़ाने में सफल रहीं थी ।

2] एक मराठा सैनिक आपा गंगाधर ने 800 साल पहले पुरानी दिल्ली के चाँदनी चौक क्षेत्र में प्रसिद्ध गौरी शंकर मंदिर निर्मित किया गया था । एक बार एक बड़े वैश्य व्यापारी लाला भागमल जी को पता चला कि क्रूर, निर्दयी औरंगजेब ने इस मंदिर को तोड़ने का आदेश अपने सिपाहियों को दिया है तो उन्होनें औरंगजेब से सीधा सीधा पूछा : बताइये तुझे कितना जजिया कर चाहिए ??? कीमत बोलिये , लेकिन मन्दिर को कोई हाथ नही लगाएगा , मन्दिर की घण्टी बजनी बन्द नही होगी !!

कहते हैं इसके जबाब में उस वक़्त औरंगजेब ने औसत जजिया कर से 100 गुना ज्यादा जजिया कर , हर महीने माँगा था । ओर वैश्य व्यापारी लाला भागमल जी बिना माथे पर शिकन लाये हर महीने उतना जजिया कर औरंगजेब को दान के रूप में दिया था। इस तरह वैश्य व्यापारी लाला भागमल जी ने उन आततायी से मन्दिर को बचाया यानि मन्दिर को छूने नहीं दिया।इस घटना के कई दशक बाद इसी गौरी-शंकर मंदिर का जीर्णोद्धार सेठ जयपुरिया नाम के शिव भक्त ने 1959 में कराया था। इस तरह मराठा सैनिक आपा गंगाधर के समय से लेकर आज तक मन्दिर की घण्टियाँ ज्यों की त्यों बज रही हैं।

3] सरहिंद के नवाब वजीर खां ने गुरु गोबिंद सिंह जी के दो पुत्रों को दीवार में चिनवाने के बाद उनके अर्थात दोनों साहिबजादों व दादी माँ, जो 6 पूस से 13 पूस… तदनुसार 21 दिसम्बर से 27 दिसम्बर वाले 7 दिनों में शहीद हुये, के पार्थिव शरीरों को अंतिम संस्कार के लिए जगह नहीं दे रहा था । तब वैश्य व्यापारी टोडरमलजी ने उन तीनों महान विभूतियों का अंतिम संस्कार के लिए सिर्फ 4 वर्ग मीटर स्थान 78000 हजार सोने के सिक्के जमीन पर खडे कर वह जगह मुगल सल्तनत से खरीद स्वयं ही उन तीनों महान विभूतियों का अंतिम संस्कार अपनी पत्नी के सहयोग से फतेहगढ़ साहिब में सम्पन्न किया था।

4] हल्दी घाटी के युद्ध में पराजित पराक्रमी महाराणा प्रताप जब अपने परिवार के साथ जंगलों में भटक रहे थे तब दानवीर वैश्य भामाशाह मातृ-भूमि की रक्षा के लिए महाराणा प्रताप के लक्ष्य को सर्वोपरि मानते हुए अपनी सम्पूर्ण धन-संपदा अर्पित कर दी। जिसके चलते महाराणा प्रताप में नया उत्साह उत्पन्न हुआ और उन्होंने पुन: सैन्य शक्ति संगठित कर मुगल शासकों को पराजित कर फिर से मेवाड़ का राज्य प्राप्त कर लिया था ।

महाराणा प्रताप जी भी जब महल छोड़कर जंगल चले गए थे, व उन्हें अकबर के विरुद्ध नई सेना का गठन करना था , उस समय भी बनिया समाज के श्री भामाशाह जी ने अकूत धनराशि से महाराणा प्रताप जी को भरपूर सहयोग किया था। ऐसे विरल दानवीर वैश्य भामाशाह के लिये ही निम्न पंक्तियाँ कही गयीं थी –

वह धन्य देश की माटी है, जिसमें भामा सा लाल पला। उस दानवीर की यश गाथा को, मेट सका क्या काल भला ।।

5] इसी तरह सामान्य लेखक के रुप में अपना जीवन शुरू करने वाले वैश्य राजा टोडरमलजी ( इनको 21 वर्ष की उम्र में बादशाह शाहजहाँ ने ‘राजा’ की उपाधि से नवाजा था ) ने पंडित नारायण भट्ट की प्रेरणा से उत्तर प्रदेश के वाराणसी शहर स्थित भगवान शिवजी अर्थात काशी विश्वनाथ मंदिर, जिसे वर्ष 1447 में इसे जौनपुर के सुल्तान महमूद शाह ने तुड़वा दिया था, को 1585 में पुन:निर्माण करवा सनातन धर्म रक्षार्थ एक उत्कृष्ट उदाहरण प्रस्तुत किया ।

इसी क्रम में यह भी बताना चाहूँगा कि प्रायः प्रायः सभी तीर्थ स्थानों में आपको किसी भी वैश्य द्वारा स्थापित धर्मशाला मिलेगी ही । हाल ही के वर्षों में वैश्य समाज अस्पताल , विद्यालय, विश्वविद्यालय वगैरह भी छोटे से छोटे जगह पर स्थापित किये जा रहे हैं । इन सब कारणों से हम कह सकते हैं कि वैश्य समाज धर्म कर्म , समाज कल्याण के साथ साथ राष्ट्र उन्नति के लिये कुछ भी करने को सदैव तत्पर रहते हैं क्योंकि उनके जिन्दगी जीने के मापदण्ड कुछ इस प्रकार होते हैं –

जिन्हें सेवा की धुन हो, कुछ अलग होते हैं दुनिया में ।
उन्हें तकलीफ पाकर भी, बहुत सुकून मिलता है ।।

उपरोक्त तथ्यों एवं घटनाओं को बताने का यही मतलब है कि ऐसे एक-दो नहीं बल्कि अनेकों उदाहरण इतिहास में उपलब्ध हैं जिनसे यह स्पष्ट होता है कि सनातन धर्म की नींव बचाने के लिए वैश्यों / बनियों की इस टोली में हम माहेश्वरीयों के समर्पण, त्याग व धार्मिकता का कोई सानी नहीं। इसी कारण से समस्त हिन्दू धर्म बनिया / वैश्य समाज का सदैव ऋणी है और रहेगा।