इंद्र वशिष्ठ
जहांगीर पुरी में हुए दंगे ने एक बार फिर साबित कर दिया कि दिल्ली पुलिस कानून-व्यवस्था बनाए रखने में पूरी तरह विफल है। देश की राजधानी में दंगा होना पुलिस कमिश्नर और आईपीएस अफसरों की पेशेवर काबिलियत और भूमिका पर सवालिया निशान लगा देता है।
पुलिस जिम्मेदार-
जहांगीर पुरी में हुए दंगे के लिए पुलिस जिम्मेदार है, क्योंकि कानून-व्यवस्था बनाए रखना पूरी तरह पुलिस की ही जिम्मेदारी है। पुलिस ने अगर अपने कर्तव्य का ईमानदारी से पालन किया होता, तो दंगा हो ही नहीं सकता था। दिल्ली पुलिस केंद्रीय गृह मंत्रालय के अधीन है इस तरह दिल्ली में जो हालात खराब हुए हैं उसके लिए गृहमंत्री अमित शाह जिम्मेदार है।
बिना इजाजत शोभायात्रा-
दंगे के दो दिन बाद पुलिस ने यह बताया कि पुलिस की इजाजत के बिना वह शोभायात्रा निकाली गई थी, जिसके कारण दंगा हुआ।
अब सबसे अहम सवाल यह ही है कि पुलिस ने बिना इजाजत के उस शोभायात्रा को निकालने ही क्यों दिया ? जहां से शोभायात्रा शुरू हुई पुलिस ने उस स्थान पर ही उसे रोका क्यों नहीं? पुलिस को उन्हें रोकने की अपनी ओर से पूरी कोशिश करनी चाहिए थी। अगर वह लोग फिर भी नहीं मानते, तो पुलिस को उन्हें गिरफ्तार करने या तितर बितर करने के लिए बल प्रयोग का सहारा लेना चाहिए था। लेकिन पुलिस ने ऐसा कुछ नहीं किया जिसका परिणाम दंगे के रुप में सामने आया।
पुलिस की आंखें बंद ?-
शोभायात्रा में तलवार, बंदूक आदि हथियार लहराए जा रहे थे, क्या यह हथियार पुलिस को नजर नहीं आए ? पुलिस ने हथियार लहराने वाले लोगों को तुरंत गिरफ्तार क्यों नहीं किया ? क्या पुलिस यह भूल गई कि तलवार आदि अवैध हथियार ही नहीं, अपितु लाइसेंसी हथियार का भी जुलूस में प्रदर्शन करना गैरकानूनी है।
कानून का सम्मान नहीं।-
पुलिस की इजाजत के बिना शोभायात्रा निकलना गैरकानूनी तो है ही इससे यह भी पता चलता है कि सत्ता के संरक्षण के कारण ही विश्व हिंदू परिषद और बजरंग दल वाले कानून की धज्जियां उड़ाते हैं। उनकी नजर में पुलिस और कानून का कोई सम्मान नहीं है। जो नागरिक देश के संविधान और कानून का सम्मान नहीं करता, वह देशभक्त नहीं हो सकता। जो धर्म के नाम पर नफरती भाषण देता है वह व्यक्ति धार्मिक हो ही नहीं सकता। धर्म का उससे दूर दूर तक कोई संबंध नहीं होता है। ऐसे व्यक्ति सिर्फ़ धर्म के नाम पर ढ़ोग करते हैं। ढ़ोंगी तो हर समुदाय में होते हैं।
पुलिस ने दंगे के एक दिन बाद शोभायात्रा के आयोजक विश्व हिंदू परिषद के दिल्ली जिला सेवा प्रमुख प्रेम शर्मा और बह्म प्रकाश के खिलाफ पुलिस अफसर का आदेश न मानने के लिए धारा 188 के तहत मामला दर्ज किया। पुलिस ने जमानती हल्की धारा में मामला दर्ज किया है। जबकि यह वही दिल्ली पुलिस है जिसने जलवायु कार्यकर्ता दिशा रवि को टूल किट मामले में एक टिवट करने पर ही देशद्रोह के झूठे आरोप में जेल में डाल दिया था। हालांकि पुलिस की पोल बाद मे अदालत में खुल गई।
सांप निकल गया लकीर पीट रहे हैं-
पुलिस कमिश्नर राकेश अस्थाना ने कहा है कि दंगों में शामिल लोगों को बख्शा नहीं जाएगा, चाहे वह लोग किसी भी धर्म, वर्ग और पंथ से हो।
कमिश्नर का यह बयान हास्यास्पद और सांप के निकल जाने पर लकीर पीटने जैसा है। क्योंकि पुलिस ने समय रहते पहले तो मौके पर हथियार लिए लोगों को पकड़ा नहीं।
क्या पुलिस कमिश्नर बता सकते हैं कि जब शोभायात्रा की इजाजत नहीं दी गई थी तो पुलिस ने शोभायात्रा क्यों नहीं रोकी ? पुलिस के आदेश को न मानने वाले लोगों को गिरफ्तार क्यों नहीं किया ? पुलिस की मौजूदगी में हथियारों के साथ लोग शोभायात्रा में शामिल थे तो उन्हें उसी समय गिरफ्तार क्यों नहीं किया गया ? पुलिस ने अगर ईमानदारी से अपने कर्तव्य का पालन किया होता तो किसी की भी हथियार प्रदर्शित करने या पुलिस के आदेश का उल्लंघन कर शोभायात्रा निकालने की हिम्मत नहीं होती। इसलिए दंगे के लिए पुलिस जिम्मेदार है।
आईपीएस अफसरों को क्या इतनी भी समझ नहीं है कि धर्म के नाम पर निकाली जाने वाली शोभायात्रा में हथियार लहराने का क्या मकसद है। हनुमान जयंती की शोभायात्रा में हथियारों का इस्तेमाल किसी भी तरह से जायज नहीं ठहराया जा सकता।
हथियार लहराने का मकसद तो सीधा सीधा शक्ति प्रदर्शन कर दूसरों को डराना और उकसाना ही होता है। कोई भी समुदाय जब इस तरह से हथियारों और भडकाऊ नारों के साथ शक्ति प्रदर्शन करता है और खासकर संवेदनशील इलाकों में तो दंगा होने की ही पूरी आशंका होती है। ऐसे मे पुलिस की भूमिका सबसे अहम हो जाती है लेकिन जब पुलिस सब कुछ देख कर भी मूकदर्शक बनी रहे तो दंगा तो होगा ही।
खुफिया एजेंसी नाकाम-
जहांगीर पुरी मामले ने दिल्ली पुलिस के खुफिया विभाग और केंद्रीय खुफिया एजेंसियों की भी पोल खोल दी। सत्ताधारी भाजपा के नेताओं ने बयान दिए है कि दंगे एक साजिश के तहत किए गए। ऐसे नेताओं के बयान उनकी अक्ल का दिवालियापन ही उजागर कर रहे हैं। क्योंकि अगर मुस्लिम समुदाय ने दंगा करने की साजिश रची होती तो 16 अप्रैल को इस इलाके में पहले निकाली गई दो अन्य शोभायात्राओ पर भी तो वह हमला कर सकते थे।
इलाके के लोगों द्वारा मीडिया में जो कहा जा रहा है कि उससे तो यही लगता है कि शाम को मुस्लिम समुदाय ने मस्जिद के सामने शोभायात्रा वालों से लाउडस्पीकर की आवाज कम करने को कहा था क्योंकि उस समय उनकी नमाज और रोजा इफ्तार का समय था। इसी बात को लेकर दोनों पक्षों में बहस हुई जिसने बाद में हिंसक रूप ले लिया। इससे तो यही लगता हैं कि यह सब अचानक भड़का और पूर्व नियोजित नहीं था। बाकी असलियत पुलिस की जांच में सामने आएगी।
अवैध हथियारों से बेखबर पुलिस।-
वैसे मुस्लिम समुदाय के लोगों द्वारा भी गोलियां चलाने से पता चलता है कि इलाके में लोगों के पास अवैध हथियार मौजूद है लेकिन पुलिस को इसकी भनक तक नहीं लगी थी। इससे पुलिस के खुफिया तंत्र और कार्यप्रणाली पर सवालिया निशान लग जाता है।
मान ले कि दंगा पूर्व नियोजित था और साजिश रची गई थी तो साजिश का पता लगाने और उसे विफल करने की जिम्मेदारी तो खुफिया एजेंसियों और पुलिस की होती है। और यह दोनों केंद्रीय गृह मंत्रालय के अंतर्गत ही है। इससे तो केंद्र सरकार की ही नाकामी की पोल खुली है।
गृहमंत्री ने पुचकारा, कमिश्नरों ने धिक्कारा-
साल 2020 में उत्तर पूर्वी दिल्ली में हुए दंगों को लेकर तो दिल्ली के अनेक पूर्व पुलिस कमिश्नरों तक ने तत्कालीन पुलिस कमिश्नर अमूल्य पटनायक की भूमिका की जमकर आलोचना की थी। लेकिन अमूल्य पटनायक और किसी भी अन्य आईपीएस के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की गई। जबकि मीडिया के माध्यम से पूरी दुनिया ने देखा था कि उत्तर पूर्वी जिला के तत्कालीन डीसीपी वेदप्रकाश सूर्य की मौजूदगी में ही भाजपा के कपिल मिश्रा ने भडकाऊ भाषण दिया था।
दूसरी ओर गृहमंत्री ने संसद मे पुलिस की जमकर तारीफ की।
असल में गृहमंत्री और सत्ताधारी दल दंगों को रोकने में नाकाम अफसरों के खिलाफ कभी भी कोई कार्रवाई इसलिए नहीं करते, क्योंकि ऐसा करने पर एक तरह से गृह मंत्री और सत्ता की ही नाकामी उजागर होती है।
दंगों के मामले में पुलिस की जांच पर अदालत सवाल उठाती ही रहती है।
(लेखक इंद्र वशिष्ठ दिल्ली में 1990 से पत्रकारिता कर रहे हैं। दैनिक भास्कर में विशेष संवाददाता और सांध्य टाइम्स (टाइम्स ऑफ इंडिया ग्रुप) में वरिष्ठ संवाददाता रहे हैं।)