
मोद भार्गव
तीन साल से भी अधिक समय से यूक्रेन से युद्ध लड़ रहे रूस में 8.8 तीव्रता के भीशण भूकंप ने नई त्रासदी खड़ी कर दी है। रूस के पूरब में स्थित कामचटका प्रायद्वीप में 30 जुलाई 2025 को आए भूकंप के झटकों से कामचटका और उसके आसपास कुरील द्वीप समूह के भूखंड हिल गए। इसे विश्व में आए सबसे तीव्र भूकंपो में दर्ज किया गया है। इस प्राकृतिक आपदा से भारी नुकसान और अनेक लोगों के घायल होने की सूचनाएं हैं, इसके असर से प्रायद्वीप के समुद्र तटों से 16 फीट ऊंची सुनामी जैसी लहरें टकराईं, जिससे तटीय इलाकों में भारी नुकसान हुआ है। इसकी तुलना मार्च 2011 में जापान में आए 9.0 तीव्रता के भूकंप से की जा रही है। इसे समुद्री सुनामी कहा गया था। इस सुनामी से जापान के फुकुशिमा, दाइची परमाणु ऊर्जा संयंत्र का कूलिंग सिस्टम निश्क्रिय करना पड़ा था। कामचटका में चार नवंबर 1992 को आए 9.0 तीव्रता के भूकंप के कारण भारी क्षति हुई थी। इस भूकंप से जनहानि इसलिए नहीं होने पाई, क्योंकि भूकंप क्षेत्र से रूस का बड़ा षहर पेत्रोपावलोव्स्क-कामचत्सकी लगभग 119 किमी की दूरी पर है। यहां की आबादी 18 लाख हैं।
भूकंप के बाद आने वाली सुनामी के खतरे से जापान, चीन, फिलीपींस, इंडोनेशिया, अमेरिका और प्रशांत महासागर के तटवर्ती देशों को सतर्क रहने के लिए कहा गया है। जापानी और अमेरिकी भूकंप वैज्ञानिकों ने बताया कि इस भूकंप की आरंभिक तीव्रता 8.0 थी, किंतु अमेरिकी भू-वैज्ञानिक सर्वेक्षण ने इस तीव्रता का आकलन 8.8 किया और इसे 20.7 किमी भू-गर्भ से आना बताया है। अलास्का स्थित राष्ट्रीय सुनामी चेतावनी केन्द्र के समन्वयक डेव स्नाइडर का कहना है कि सुनामी जैसी लहरों का प्रभाव कई घंटों या एक दिन से भी अधिक समय तक रह सकता है। सुनामी केवल एक लहर नहीं होती, बल्कि यह लंबे समय तक चलने वाली षक्तिशाली लहरों की एक श्रृंखला होती है। सुनामी एक विमान की गति से सैंकडो मील प्रति घंटे की रफ्तार से समुद्र पार करती है। किंतु जब लहरें किनारे के निकट पहुंचती है, तब उनकी गति धीमी पड़ जाती है। किंतु किनारे पर इनके एकत्रीकरण से जल प्रलावन की आशंका बढ़ जाती है। इस कारण पानी की ये लहरें धरती पर पहुंचती हैं और आगे- पीछे होती रहती हैं। दुनिया में अब तक 8.6 तीव्रता से लेकर 9.5 तीव्रता के भूकंप चिली, अलास्का, सुमत्रा, तोहोकू, कामचटका (1952), चिली (2010), इक्वाडोर, अलास्का (1965), अरुणाचल प्रदेश भारत और सुमात्रा (2012) आए हैं। इन भूकंपो में जान और माल का भारी नुकसान हुआ है।
दरअसल दुनिया के नामचीन विशेषज्ञों व पर्यावरणविदों की मानें तो सभी भूकंप प्राकृतिक नहीं होते, बल्कि उन्हें विकराल बनाने में हमारा भी हाथ होता है। प्राकृतिक संसाधनों के अकूत दोहन से छोटे स्तर के भूकंपों की पृश्ठभूमि तैयार हो रही है। भविश्य में इन्हीं भूकंपों की व्यापकता और विकरालता बढ़ जाती है। यही कारण है कि भूकंपों की आवृत्ति बढ़ रही है। पहले 13 सालों में एक बार भूकंप आने की आशंका बनी रहती थी,लेकिन अब यह घटकर 4 साल हो गई है। अमेरिका में 1973 से 2008 के बीच प्रति वर्श औसतन 21 भूकंप आए,वहीं 2009 से 2013 के बीच यह संख्या बढ़कर 99 प्रति वर्श हो गई। यही नहीं, आए भूकंपों का वैज्ञानिक आकलन करने से यह भी पता चला है कि भूकंपीय विस्फोट में जो ऊर्जा निकलती है उसकी मात्रा भी पहले की तुलना में ज्यादा षक्तिशाली हुई है। 25 अप्रैल 2015 को नेपाल में जो भूकंप आया था, उनसे 20 थर्मान्यूक्लियर हाइड्रोजन बमों के बराबर ऊर्जा निकली थी। यहां हुआ प्रत्येक विस्फोट हिरोशिमा-नागाशाकी में गिराए गए परमाणु बमों से भी कई गुना ज्यादा ताकतवर था। 2011 में जापान और फिर क्वोटो में आए सिलसिलेवार भूकंपों से पता चलता है कि धरती के गर्भ में अंगड़ाई ले रही भूकंपीय हलचलें महानगरीय आधुनिक विकास और आबादी के लिए अधिक खतरनाक साबित हो रही हैं। ये हलचलें भारत, पाकिस्तान, चीन और बांग्लादेश की धरती के नीचे भी अंगड़ाई ले रही हैं। इसलिए इन देशों के महानगर भी भूकंप के मुहाने पर हैं।
भूकंप आना कोई नई बात नहीं है। जापान, इक्वाडोर और नेपाल समेत पूरी दुनिया इस अभिशाप को झेलने के लिए जब-तब विवश होती रही है। बावजूद हैरानी इस बात पर है कि विज्ञान की आश्चर्यजनक तरक्की के बाद भी वैज्ञानिक आज तक ऐसी तकनीक ईजाद करने में असफल रहे हैं, जिससे भूकंप की जानकारी आने से पहले मिल जाए। भूकंप के लिए जरूरी ऊर्जा के एकत्रित होने की प्रक्रिया को धरती की विभिन्न परतों के आपस में टकराने के सिद्धांत से आसानी से समझा जा सकता है। ऐसी वैज्ञानिक मान्यता है कि करीब साढ़े पांच करोड़ साल पहले भारत और आस्ट्रेलिया को जोड़े रखने वाली भूगर्भीय परतें एक-दूसरे से अलग हो गईं और वे यूरेशिया परत से जा टकराईं। इस टक्कर के फलस्वरूप हिमालय पर्वतमाला अस्तित्व में आई और धरती की विभिन्न परतों के बीच वर्तमान में मौजूद दरारें बनीं। हिमालय पर्वत उस स्थल पर अब तक अटल खड़ा है,जहां पृथ्वी की दो अलग-अलग परतें परस्पर टकराकर एक-दूसरे के भीतर घुस गई थीं। परतों के टकराव की इस प्रक्रिया की वजह से हिमालय और उसके प्रायद्वीपीय क्षेत्र में भूकंप आते रहते हैं। इसी प्रायद्वीप में ज्यादातर एशियाई देश बसे हुए हैं।
वैज्ञानिकों का मानना है कि रासायनिक क्रियाओं के कारण भी भूकंप आते हैं। भूकंपों की उत्पत्ति धरती की सतह से 30 से 100 किमी भीतर होती है। जापान के कुमामोतो में आया भूकंप जमीन से 20 किमी और क्वोटो का 10 किमी नीचे था। जबकि नेपाल में जो भूकंप आया था, वह जमीन से महज 15 किमी नीचे था। इससे यह वैज्ञानिक धारणा भी बदल रही है कि भूकंप की विनाशकारी तरंगें जमीन से कम से कम 30 किमी नीचे से चलती हैं। ये तरंगे जितनी कम गहराई से उठेगी, उतनी तबाही भी ज्यादा होगी और भूकंप का प्रभाव भी कहीं अधिक बड़े क्षेत्र में दिखाई देगा। लगता है अब कम गहराई के भूकंपों का दौर चल पड़ा है।
दरअसल सतह के नीचे धरती की परत ठंडी होने व कम दबाव के कारण कमजोर पड़ जाती है। ऐसी स्थिति में जब चट्टानें दरकती हैं तो भूकंप आता है। कुछ भूकंप धरती की सतह से 100 से 650 किमी के नीचे भी आते हैं,लेकिन तीव्रता धरती की सतह पर आते-आते कम हो जाती है,इसलिए बड़े रूप में त्रासदी नहीं झेलनी पड़ती है। दरअसल इतनी गहराई में धरती इतनी गर्म होती है कि एक तरह से वह द्रव रूप में बदल जाती है। इसलिए इसके झटकों का असर धरती पर कम ही दिखाई देता है। बावजूद इन भूकंपों से ऊर्जा बड़ी मात्रा में निकलती है। धरती की इतनी गहरी से प्रगट हुआ सबसे बड़ा भूकंप 1994 में बोलिविया में रिकॉर्ड किया गया है। पृथ्वी की सतह से 600 किमी भीतर दर्ज इस भूकंप की तीव्रता रिक्टर पैमाने पर 8.3 मापी गई थी। इसीलिए यह मान्यता बनी है कि इतनी गहराई से चले भूकंप धरती पर तबाही मचाने में कामयाब नहीं हो सकते हैं, क्योंकि चट्टानें तरल द्रव्य के रूप में बदल जाती हैं।
प्राकृतिक आपदाएं अब व्यापक व विनाशकारी साबित हो रही हैं, क्योंकि धरती के बढ़ते तापमान के कारण वायुमंडल भी परिवर्तित हो रहा है। अमेरिका व ब्रिटेन समेत यूरोपीय देशों में दो षताब्दियों के भीतर बेतहाशा अमीरी बढ़ी है। औद्योगिकीकरण और षहरीकरण इसी अमीरी की उपज है। यह कथित विकासवादी अवधारणा कुछ और नहीं, प्राकृतिक संपदा का अंधाधुंध दोहन कर,पृथ्वी को खोखला करने के ऐसे उपाय हैं, जो ब्रह्मांण्ड में फैले अवयवों में असंतुलन बढ़ा रहे हैं। इस विकास के लिए पानी, गैस, खनिज, इस्पात, ईंधन और लकड़ी जरूरी हैं। नतीजतन जो कॉर्बन गैसें बेहद न्यूनतम मात्रा में बनती थीं, वे अब अधिकतम मात्रा में बनने लगी हैं। न्यूनतम मात्रा में बनी गैसों का षोशण और समायोजन भी प्राकृतिक रूप से हो जाता था, किंतु अब वनों का विनाश कर दिए जाने के कारण ऐसा नहीं हो पा रहा है,जिसकी वजह से वायुमंडल में इकतराफा दबाव बढ़ रहा है। इस कारण धरती पर पड़ने वाली सूरज की गर्मी प्रत्यावर्तित होने की बजाय, धरती में ही समाने लगी है। गोया, धरती का तापमान बढ़ने लगा, जो जलवायु परिवर्तन का कारण तो बना ही, प्राकृतिक आपदाओं का कारण भी बन रहा है।