न्यायपालिका की स्वतंत्रता पर राजनीति की आंच से बचाव, जस्टिस गवई का साहसिक कदम

Justice Gavai's bold step to protect the independence of judiciary from the heat of politics

अजय कुमार

भारत की न्यायपालिका में एक नई और ऐतिहासिक पहल की शुरुआत हुई है, जब देश के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस भूषण रामकृष्ण गवई ने यह ऐलान किया कि वे रिटायरमेंट के बाद किसी भी सरकारी पद को स्वीकार नहीं करेंगे। इस साहसिक निर्णय ने सिर्फ न्यायपालिका की गरिमा को नया सम्मान दिया है, बल्कि जनता के मन में भरोसे की उस डोर को भी मजबूत किया है जो पिछले कुछ समय से कई घटनाओं के चलते कमजोर होती जा रही थी। यूनाइटेड किंगडम में आयोजित एक अंतरराष्ट्रीय कार्यक्रम में उन्होंने कहा कि उनके कुछ अन्य साथी न्यायाधीशों ने भी यह संकल्प लिया है कि वे भी सेवानिवृत्ति के बाद किसी सरकारी पद या राजनीतिक दल से जुड़ाव नहीं रखेंगे।

चीफ जस्टिस गवई का यह बयान ऐसे समय में आया है जब भारत में न्यायपालिका की स्वतंत्रता और निष्पक्षता को लेकर गंभीर सवाल उठाए जा रहे हैं। यह बयान अप्रत्यक्ष रूप से उन घटनाओं की ओर इशारा करता है, जिनमें कुछ रिटायर्ड जजों ने सरकारी पद स्वीकार किये हैं या राजनीति में सक्रिय भागीदारी ली है। मसलन, पूर्व मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई को राष्ट्रपति द्वारा राज्यसभा में नामित किया गया और हाल ही में कलकत्ता हाईकोर्ट के न्यायाधीश अभिजीत गंगोपाध्याय बीजेपी में शामिल होकर लोकसभा चुनाव लड़ चुके हैं और सांसद बन चुके हैं।जस्टिस गवई का कहना है कि अगर कोई जज रिटायरमेंट के बाद तुरंत कोई सरकारी पद या राजनीतिक जिम्मेदारी स्वीकार करता है, तो इससे जनता के बीच यह संदेश जाता है कि शायद उन्होंने अपने कार्यकाल के दौरान फैसले किसी स्वार्थ या लालच के तहत लिये थे। इससे न्यायपालिका की साख पर आंच आती है और निष्पक्षता पर सवाल उठते हैं। वे कहते हैं, “न्यायपालिका को केवल न्याय करना नहीं चाहिए, बल्कि ऐसा भी दिखना चाहिए कि वह पूरी तरह निष्पक्ष और ईमानदार है। लोगों का विश्वास ही हमारी सबसे बड़ी पूंजी है।”

भारत में न्यायपालिका को संविधान द्वारा स्वतंत्र और स्वायत्त घोषित किया गया है। लेकिन जब रिटायरमेंट के बाद कोई जज राजनीतिक दल में शामिल होता है या किसी सरकारी संस्था में उच्च पद ग्रहण करता है, तो इस स्वतंत्रता पर प्रश्नचिह्न खड़े हो जाते हैं। यह सवाल केवल वर्तमान के बारे में नहीं है, बल्कि यह भविष्य के लिए भी एक खतरनाक परंपरा की शुरुआत हो सकती है, जिसमें न्यायिक पदों का राजनीतिक उपयोग होने लगे।जस्टिस गवई का यह रुख ऐसे समय में आया है जब देश में न्यायपालिका और सरकार के बीच कई मुद्दों को लेकर टकराव की स्थिति बनी हुई है। हाल ही में चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिया था कि नियुक्ति समिति में मुख्य न्यायाधीश या उनके प्रतिनिधि को शामिल किया जाए, लेकिन केंद्र सरकार ने संसद से कानून पास कर इस व्यवस्था को बदल दिया और समिति से न्यायपालिका को बाहर कर दिया। इस घटनाक्रम ने फिर से न्यायपालिका की भूमिका और अधिकारों पर बहस को जन्म दे दिया।

सिर्फ राजनीतिक नियुक्तियों की बात नहीं, बल्कि सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में कई हाई प्रोफाइल मामलों में भी सरकार की भूमिका पर सवाल उठाये हैं। मध्य प्रदेश के मंत्री विजय शाह के खिलाफ एसआईटी जांच की खबर सोशल मीडिया पर छाई रही, लेकिन वे अब भी मंत्री पद पर बने हुए हैं। वहीं अशोका यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर अली खान महमूदाबाद को भी एसआईटी जांच का सामना करना पड़ा और उन्हें जेल भी जाना पड़ा। यह दोहरे मापदंड न्यायपालिका पर उठ रहे सवालों को और हवा देते हैं।इन सबके बीच, जस्टिस गवई ने कॉलेजियम प्रणाली की भी आलोचना की, लेकिन उन्होंने साफ कहा कि न्यायपालिका की स्वतंत्रता को किसी भी हाल में खतरे में नहीं डाला जा सकता। उन्होंने कहा कि कॉलेजियम सिस्टम में पारदर्शिता की कमी है, लेकिन कोई भी सुधार इस तरह नहीं होना चाहिए कि जजों की नियुक्ति पर सरकार का नियंत्रण बढ़ जाए। उनका यह बयान उस चल रही बहस में एक संतुलित दृष्टिकोण लेकर आया है, जिसमें कॉलेजियम प्रणाली को खत्म कर न्यायिक नियुक्तियों में कार्यपालिका की भूमिका बढ़ाने की मांग हो रही है।

आज का दौर ऐसा है जब न्यायपालिका को सिर्फ निष्पक्ष न्याय देने के अलावा खुद को निष्पक्ष दिखाने की भी जिम्मेदारी उठानी होगी। जस्टिस गवई ने यह भी सुझाव दिया कि जजों की संपत्ति सार्वजनिक की जानी चाहिए, ताकि जनता को यह भरोसा हो कि जज किसी भी तरह के लालच या दबाव में नहीं हैं। यह विचार न केवल पारदर्शिता को बढ़ावा देता है बल्कि न्यायपालिका की विश्वसनीयता को भी मजबूत करता है।इस पूरी चर्चा का एक पहलू यह भी है कि न्यायपालिका में लंबे समय से कुछ नाम ऐसे उभरे हैं, जिन्होंने सेवा के बाद ऐसे निर्णय लिये जो विवाद का कारण बने। रंजन गोगोई का राज्यसभा में जाना उस समय सुर्खियों में रहा जब उन्होंने राफेल, राम मंदिर और एनआरसी जैसे महत्वपूर्ण मामलों में फैसले दिए थे। इसी तरह, जज अभिजीत गंगोपाध्याय ने टीचर भर्ती घोटाले से जुड़े मामलों में सरकार के खिलाफ सख्त रुख अपनाया और बाद में बीजेपी से चुनाव लड़कर संसद पहुंचे। इन घटनाओं ने यह संदेह पैदा किया कि कहीं जजों के फैसलों के पीछे भविष्य के लाभ की योजना तो नहीं छुपी होती?

इस संदर्भ में, जस्टिस गवई का निर्णय एक मिसाल बन सकता है, अगर आने वाले समय में अन्य न्यायाधीश भी इसी परंपरा का पालन करें। यह केवल एक व्यक्तिगत निर्णय नहीं है, बल्कि भारतीय लोकतंत्र और न्यायिक प्रणाली के लिए एक नयी दिशा और सोच का प्रतीक बन सकता है।लेकिन इस सब के बावजूद बड़ा सवाल यह है कि क्या इस तरह के व्यक्तिगत निर्णयों से पूरे सिस्टम की खामियों को दूर किया जा सकता है? कॉलेजियम सिस्टम की अपारदर्शिता, जजों की जवाबदेही की कमी, न्यायिक नियुक्तियों में भाई-भतीजावाद, और सरकार की बढ़ती दखल जैसे मुद्दों का समाधान केवल नैतिकता के भरोसे छोड़ा जा सकता है?सिस्टम में व्यापक सुधार की आवश्यकता अब पहले से कहीं ज्यादा है। संसद और न्यायपालिका के बीच विश्वास की डोर को मजबूत करने के लिए संवैधानिक मर्यादाओं और संतुलन की पुनर्स्थापना जरूरी है। न्यायपालिका को न केवल स्वतंत्र रहना चाहिए, बल्कि स्वतंत्र दिखना भी चाहिए।

जस्टिस बीआर गवई का फैसला इसलिए अहम है क्योंकि यह न केवल न्यायपालिका की छवि सुधारने का प्रयास है, बल्कि यह जनता को यह संदेश भी देता है कि देश में अब भी ऐसे लोग हैं जो सिर्फ अपने पद की गरिमा के लिए नहीं, बल्कि लोकतंत्र की रक्षा के लिए भी खड़े हैं। उनकी यह पहल भारत की न्यायिक प्रणाली को नई दिशा दे सकती है अगर इसे एक स्थायी परंपरा में बदला जाए।न्यायपालिका पर जनता का भरोसा तभी कायम रह सकता है जब न्याय केवल हो ही नहीं, बल्कि होता हुआ भी दिखे। और जस्टिस गवई की तरह अगर हर न्यायाधीश यह तय कर ले कि उनका काम सिर्फ न्याय करना है, किसी पुरस्कार की उम्मीद में नहीं, तब ही भारत की न्यायिक प्रणाली दुनिया की सबसे ईमानदार और मजबूत संस्थाओं में शुमार हो सकती है।