रमेश सर्राफ धमोरा
कबीर दास जी हमारे हिंदी साहित्य के एक जाने माने महान कवि होने के साथ ही एक समाज सुधारक भी थे। उन्होंने समाज में हो रहे अत्याचारों और कुरीतिओं को खत्म करने की बहुत कोशिश की। जिसके लिये उन्हें समाज से बहिष्कृत भी होना पड़ा। परन्तु वे अपने इरादों में अडिग रहे और अपनी अंतिम श्वास तक जगत कल्याण के लिये जीते रहे। उन्होने समाज में व्याप्त रूढ़ियों तथा अन्धविश्वासों पर करारा व्यंग्य किया है। उन्होने धर्म का सम्बन्ध सत्य से जोड़कर समाज में व्याप्त रूढ़िवादी परम्परा का खण्डन किया है। कबीर ने मानव जाति को सर्वश्रेष्ठ बताते हुये कहा था कि इसमें कोई भी ऊंचा या नीचा नहीं है।
संत कबीर दास जी का जन्म संवत 1455 की ज्येष्ठ शुक्ल पूर्णिमा को बनारस में हुआ था। इसीलिए ज्येष्ठ शुक्ल पूर्णिमा के दिन देश भर में कबीर जयंती मनाई जाती है। कबीर दास के नाम पर कबीरपंथी नामक संप्रदाय आज भी प्रचलित है। इस संप्रदाय के लोग संत कबीर को भगवान के रूप में पूजते हैं। संत कबीर दास समाज में फैले आडम्बरों के सख्त विरोधी थे। उन्होंने लोगों को एकता के सूत्र का पाठ पढ़ाया। वे लेखक और कवि थे। उनके दोहे इंसान को जीवन की नई प्रेरणा देते थे। कबीर ने जिस भाषा में लिखा वह लोक प्रचलित तथा सरल भाषा थी। उन्होंने कहीं से विधिवत शिक्षा नहीं ग्रहण की थी। इसके बावजूद वे दिव्य प्रभाव के धनी थे।
कबीर मानव मात्र को एक मानते थे। वे जात-पांत, कुल-वंश, रक्त, नस्ल के आधार पर मनुष्य में अंतर करने के विरुद्ध थे। उनका विचार था कि सभी कुदरत के बन्दे हैं। कबीरदास आडम्बर, मिथ्याचार एवं कर्मकाण्ड के विरोधी थे। कबीर की भाषाएं पंचमेल खिचड़ी हैं। इनकी भाषा में हिंदी भाषा की सभी बोलियों की भाषा सम्मिलित हैं। राजस्थानी, हरयाणवी, पंजाबी, खड़ी बोली, अवधी, ब्रजभाषा के शब्दों की बहुलता है। कबीर मौखिक परंपरा के कवि थे। उन्होंने स्वयं ग्रंथ नहीं लिखे। उनके उपदेशों को बीजक में उनके अनुयायियों द्वारा संरक्षित किया गया था। कबीर दास एक ही ईश्वर को मानते थे और कर्मकाण्ड के घोर विरोधी थे।
कबीर के गुरु के सम्बन्ध में प्रचलित कथन है कि कबीर को उपयुक्त गुरु की तलाश थी। वह वैष्णव संत आचार्य रामानंद को अपना अपना गुरु बनाना चाहते थे। लेकिन उन्होंने कबीर को शिष्य बनाने से मना कर दिया था। लेकिन कबीर ने अपने मन में ठान लिया कि स्वामी रामानंद को ही हर कीमत पर अपना गुरु बनाऊंगा। इसके लिए कबीर के मन में एक विचार आया कि स्वामी रामानंद जी सुबह चार बजे गंगा स्नान करने जाते हैं। उसके पहले ही उनके जाने के मार्ग में सीढियों पर लेट जाऊंगा और उन्होंने ऐसा ही किया। एक दिन कबीर पंचगंगा घाट की सीढियों पर लेट गये। रामानन्द जी गंगास्नान करने के लिये सीढियां उतर रहे थे कि तभी उनका पैर कबीर के शरीर पर पड़ गया। उनके मुख से तत्काल राम-राम शब्द निकल पड़ा। उसी राम को कबीर ने दीक्षा-मन्त्र मान लिया और रामानन्द जी को अपना गुरु स्वीकार कर लिया।
कबीरदास समाज के इतने बेबाक, साफ मन के कवि हुये जो समाज को स्वर्ग और नर्क के मिथ्या भ्रम से बाहर निकालते हैं। कबीरदास को हिन्दू और मुस्लिम दोनों ही संप्रदायों में बराबर का सम्मान प्राप्त था। दोनों संप्रदाय के लोग उनके अनुयायी थे। यही कारण था कि उनकी मृत्यु के बाद उनके शव को लेकर विवाद उत्पन्न हो गया। हिन्दू कहते थे कि उनका अंतिम संस्कार हिन्दू रीति से होना चाहिए और मुस्लिम कहते थे कि मुस्लिम रीति से। किंतु इसी छीना-झपटी में जब उनके शव पर से चादर हट गई, तब लोगों ने वहां फूलों का ढेर पड़ा देखा। यह कबीरजी की ओर से दिया गया बड़ा ही सशक्त संदेश था कि इंसान को फूलों की तरह होना चाहिए।
जीविकोपार्जन के लिए कबीर जुलाहे का काम करते थे। कबीर की दृढ़ मान्यता थी कि कर्मों के अनुसार ही गति मिलती है स्थान विशेष के कारण नहीं। अपनी इस मान्यता को सिद्ध करने के लिए अंत समय में वह मगहर चले गए। क्योंकि लोगों में मान्यता थी कि काशी में मरने पर स्वर्ग और मगहर में मरने पर नरक मिलता है। मगहर में उन्होंने अंतिम साँस ली। आज भी वहां उनकी मजार व समाधी स्थित है।
संत कबीरदास वाराणसी में पैदा हुए और लगभग पूरा जीवन उन्होंने वाराणसी यानी काशी में ही बिताया था। जीवन के आखिरी समय वो मगहर चले आए और अब से पांच सौ साल पहले वर्ष 1518 में यहीं उनकी मृत्यु हुई। कबीर स्वेच्छा से मगहर आए थे और इसी किंवदंती या अंधविश्वास को तोडना चाहते थे कि काशी में मोक्ष मिलता है और मगहर में नरक।
वास्तव में कबीर केवल कवि नहीं, बल्कि कुशल शिल्पकार, सुयोग्य अभिभावक एवं शिक्षक के साथ जीवन की वास्तविकता एवं सत्यता का मार्ग दिखाने वाले आध्यात्मिक महापुरुष थे। संत कबीर दास भक्ति आंदोलन के समर्थक थे। कबीर दास की विरासत अभी भी कबीर पंथ के रूप में संदर्भित एक संप्रदाय के माध्यम से बनी हुई है। एक आध्यात्मिक समुदाय जो उन्हें संस्थापक मानता है। कबीर पंथ एक अलग धर्म नहीं है बल्कि एक आध्यात्मिक दर्शन है।
कबीर अपनी कविताओं में स्वयं को जुलाहा और कोरी कहते हैं। उन्होंने व्यक्ति के सुधार पर इसलिए बल दिया क्योंकि व्यक्तियों से ही समाज बनता है। वे चाहते थे कि हिंदू और मुसलमान में जो विडंबना है उसे खत्म कर उनमें भाईचारे की भावना उत्पन्न कर सके। वो साधु या ढोंगी और अंधविश्वासों को भी समाप्त करना चाहते थे। इसीलिये उनको आज भी समाज सुधारक के रूप में याद किया जाता है।
हिन्दू-मुस्लिम एकता के प्रतीक के तौर पर याद किए जाने वाले संत कवि कबीर धार्मिक सामंजस्य और भाई-चारे की जो विरासत छोडकर गए हैं। उसे इस मगहर में जीवंत रूप में देखा जा सकता है। मगहर देश भर में फैले कबीरपंथियों की आस्था का मुख्य केंद्र है। दुनिया भर में कबीर के करोड़ों अनुयायी हैं। उन्होंने जाति व्यवस्था, मूर्ति पूजा और तीर्थ यात्रा को अस्वीकार कर दिया। कबीर ने दोहों के नाम से जाने जाने वाले सरल दोहों के माध्यम से उपदेश दिया।
कबीर दास ने अपनी भाषा सरल और सुबोध रखी ताकि वह आम आदमी तक पहुंच सके। कबीर को शांतिमय जीवन प्रिय था और वे अहिंसा, सत्य, सदाचार आदि गुणों के प्रशंसक थे। अपनी सरलता, साधु स्वभाव तथा संत प्रवृत्ति के कारण आज विदेशों में भी लोग उनके बताये मार्ग का अनुशरण कर रहे हैं।
(लेखक राजस्थान सरकार से मान्यता प्राप्त स्वतंत्र पत्रकार है। इनके लेख देश के कई समाचार पत्रों में प्रकाशित होते रहते हैं।)