धरती धोरां री .. अमर गीत के रचयिता कन्हैयालाल सेठिया

Kanhaiyalal Sethia, creator of the song Dharti Dhoran Ri..Amar

रावेल पुष्प

  • हमारा देश स्वतंत्रता से पूर्व कई रियासतों में बंटा हुआ था, उन्हीं में से लोह पुरुष सरदार वल्लभभाई पटेल ने 1949 में कुछ रियासतों को मिलाकर बनाया था- राजस्थान!
  • अंग्रेजों ने इन क्षेत्रों का नाम राजपूताना दिया था लेकिन अंग्रेजी लेखक इतिहासकार कर्नल जेम्स टाॅड ने एक ग्रंथ लिखा था- “अनाल्स एंड एंटीक्विटीज आफ राजस्थान”

जेम्स टाॅड ने सबसे पहले इस क्षेत्र को राजस्थान के नाम से अलंकृत किया था और स्वाधीनता के बाद भी इस नाम को ही स्वीकृति मिली थी। जिस तरह जेम्स टाॅड का नाम राजस्थान के साथ बड़े सम्मान से जुड़ा हुआ है, उसी तरह आज के राजस्थान के साथ जो नाम बड़े आदर से जुड़े हुए हैं उनमें से एक नाम है कन्हैयालाल सेठिया! उनका जन्म भले ही 11सितम्बर 1919 को राजस्थान में हुआ था, लेकिन प्रारंभिक शिक्षा इसी कोलकाता में हुई थी। 1942 में जब महात्मा गांधी का करो या मरो का नारा बुलंद हुआ था, तो वे भी देश सेवा में लग गए थे भले ही इसके लिए उनकी पढ़ाई बाधित हो गई थी। उनके अंदर अंग्रेजी दासता से मुक्ति की आग बड़ी प्रबल थी। उन्हें लक्ष्मी के साथ सरस्वती का भी आशीर्वाद प्राप्त था और कविता के सारे गुण मौजूद थे तो उन्होंने काव्य पंक्तियों की झंकार से रच डाली – अग्नि वीणा!

अग्निवीणा की रचनाओं में स्वाधीनता की अलख जगाने के सारे तत्व मौजूद थे, जिसके कारण अंग्रेजी सरकार ने उन पर राजद्रोह का मुकदमा दायर कर दिया। स्वाधीनता के बाद राजस्थान सरकार ने उन्हें स्वतंत्रता सेनानी का दर्जा दिया लेकिन उन्होंने सरकार से किसी भी तरह का आर्थिक या फिर किसी किस्म का और लाभ नहीं लिया । उनके स्वतंत्रता संग्राम के दौरान लिखी कविताओं के लिए उन्हें युग- चारण कवि के रूप में पहचान मिली । उनकी ऐसी एक रचना की बानगी है-

ना यह समझो कि हिन्दुस्तान की तलवार सोई है।

जिसे सुनकर दहलती थी कभी छाती सिकन्दर की

जिसे सुन करके ‘कर’ से छूटती थी तेग़ बाबर की

जिसे सुन शत्रु की फौजें बिखरती थीं, सिहरती थीं

विसर्जन की शरण ले डूबती नावें उभरती थीं

हुई नीली जिसकी चोट से आकाश की छाती

न यह समझो कि अब रण बांकुरी हुंकार सोई है।।1।।

फिरंगी से ज़रा पूछो कि हिन्दुस्तान कैसा है

कि हिन्दुस्तानियों के रोष का तूफान कैसा है

जरा पूछो भयंकर फांसियों के लाल तख्तों से बसा है नाग बांबी में मगर ओ छेड़ने वालों-

न यह समझो कि जीवित नाग की फुंकार सोई है।।2।।

गौरतलब है कि बंगाल के विद्रोही कवि नज़रुल इस्लाम की देशभक्ति पूर्ण रचनाओं का पहला संकलन भी अग्निवीणा के नाम से ही प्रकाशित हुआ था, जिसकी हुंकार भरी कविताओं के कारण उन्हें विद्रोही कवि के रूप में जाना पहचाना जाता है। उनकी विद्रोही कविता की कुछ आखिरी पंक्तियां यों थीं –

संघर्षों से थककर, मैं महान विद्रोही,

तभी शांति से विश्राम करूंगा जब मैं

आकाश और हवा को उत्पीड़ितों की करुण कराहों से मुक्त पाऊंगा।

जब युद्ध के मैदानों से खनकती खूनी तलवारें हट जाएंगी, तभी

संघर्षों से थककर, मैं शांति से विश्राम करूंगा,

मैं शाश्वत विद्रोही हूं,

मैं इस दुनिया से परे अपना सिर उठाता हूं और,

ऊँचा, सदैव सीधा और अकेला!

कन्हैया लाल सेठिया जी की रचनाओं के 14 संकलन राजस्थानी में जहां प्रकाशित हुए, हिंदी में 18 और उर्दू में 2 संकलन प्रकाशित हैं। उनकी शुरुआत की राजस्थानी कविताओं में “रमणीयां रा सोरठा” माना जाता है। इसके अलावा “नीमड़ो” राजस्थानी की एक लघु पुस्तिका भी है। उनकी रचनाओं का देश की विभिन्न भाषाओं में तथा विदेशी भाषा में भी अनुवाद हो चुका है। उनकी 1962 चीन युद्ध के दौरान हिंदी कृति प्रतिबिंब का प्रकाशन हुआ तो फिर उसका अंग्रेजी अनुवाद भी हुआ,जिसकी भूमिका हरेन्द्रनाथ चट्टोपाध्याय ने लिखी थी। उन्हें मिलने वाले सम्मान और पुरस्कारों की फ़ेहरिस्त तो काफ़ी लंबी है, लेकिन फिर भी कुछ का जिक्र तो किया ही जा सकता है मसलन- राजस्थानी काव्य कृति “लीलटांस”पर साहित्य अकादमी नई दिल्ली द्वारा राजस्थानी भाषा की सर्वश्रेष्ठ कृति के रूप में पुरस्कृत ,विवेक संस्थान कोलकाता द्वारा उत्कृष्ट साहित्य सृजन के लिए पूनम चंद्र भदोरिया सम्मान, हिंदी साहित्य सम्मेलन प्रयाग द्वारा साहित्य वचनस्पति की उपाधि, हिंदी काव्य कृति “निर्गंध” पर भारतीय ज्ञानपीठ नई दिल्ली द्वारा मूर्ति देवी साहित्य पुरस्कार, भारत सरकार द्वारा पद्मश्री से अलंकृत तथा साहित्यिक पत्रिका मधुमती द्वारा उन पर एक विशेषांक प्रकाशित किया गया । उनकी राजस्थानी की उत्कृष्ट कविताओं के लिए उन्हें कौन नहीं जानता, इसलिए उन्हें राजस्थानी का भीष्म पितामह भी कहा जाता है। किसी भी लेखक या कवि की कोई एक रचना उसकी पहचान बन जाती है और वो एक रचना ही उसे अमर कर देती है, जैसे ‘उसने कहा था’ कहानी के लिए गुलेरी जी, वंदे मातरम के लिए बंकिम चंद्र, सारे जहां से अच्छा के लिए इकबाल, उसी तरह “धरती धोरां री” कविता ने कन्हैयालाल सेठिया जी को अमरता ही प्रदान कर दी और इसकी पंक्तियां तो राजस्थान की पहचान बन गई हैं। धरती धोरां री की कुछ पंक्तियां काबिले- गौर हैं –

धरती धोरां री,

आ तो सुरगां नै सरमावै,

ईं पर देव रमण नै आवै,

ईं रो जस नर नारी गावै,

धरती धोरां री!

सूरज कण कण नै चमकावै,

चन्दो इमरत रस बरसावै,

तारा निछरावळ कर ज्यावै,

धरती धोरां री !

काळा बादळिया घहरावै,

बिरखा घूघरिया घमकावै,

बिजळी डरती ओला खावै,

धरती धोरां री!

जिसका आखिरी बंद है-

ईं रै सत रीे आण निभावां,

ईं रै पत नै नही लजावां,

ईं नै माथो भेंट चढ़ावां,

मायड़ कोड़ां री,

धरती धोरां री !

श्री सेठिया जी का यह अमर गीत देश के कण-कण में गूंजने लगा, हर सभागार में धूम मचाने लगा, घर-घर में गाये जाने लगा। स्कूल-कॉलेजों के पाढ्यक्रमों में इनके लिखे गीत पढ़ाये जाने लगे, जिसने पढ़ा वह दंग रह गया, कुछ साहित्यकारों की संकुचित सोच को झटका लगा,जो यह मानते थे कि श्री कन्हैयालाल सेठिया सिर्फ राजस्थानी कवि हैं, इनके प्रकाशित काव्य संग्रह ने यह साबित कर दिखाया कि श्री सेठीया जी सिर्फ राजस्थान के ही नहीं पूरे देश के कवि हैं।

प्रसिद्ध इतिहासकार डॉक्टर सुनीति कुमार चटर्जी ने राजस्थानी साहित्य पर अपनी एक महत्वपूर्ण टिप्पणी की थी- राजस्थान माता की यदि मूर्ति बनाई जाए तो उसके एक हाथ में तलवार और दूसरे में वीणा देना उपयुक्त होगा। राजस्थान अपने वीरों की शूरता से जितना गौरवान्वित था, अपने साहित्य से उससे कहीं कम गौरवान्वित नहीं।

विश्वकवि रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने राजस्थान के वीर रस से पगे कवित्त और दोहों को सुनकर राजस्थान रिसर्च सोसायटी के एक जलसे की सदारत करते हुए कहा था –

“राजस्थान ने अपने रक्त से जिस साहित्य का निर्माण किया है,उसके जोड़ का साहित्य और कहीं नहीं मिलता।”

कन्हैया लाल सेठिया का “धरती धोरां री” गीत तो राजस्थान का वंदना गीत बन चुका है और राजस्थान की समृद्ध साहित्यिक,सांस्कृतिक विरासत में अपनी विशिष्ट पहचान बना चुका है और इसने देश-दुनिया में निःसंदेह अपना परचम तो लहराया ही है।