कांशीराम पुण्यतिथि: मायावती की 2027 चुनावी तैयारी का बड़ा मंच

Kanshi Ram's death anniversary: ​​A big platform for Mayawati's 2027 election preparations

अजय कुमार

लखनऊ का रविवार बहुजन समाज पार्टी के लिए बेहद अहम रहा। प्रदेश मुख्यालय पर बुलाई गई बैठक भले महज़ डेढ़ घंटे चली हो, लेकिन उससे निकला संदेश दूर तक गूंजने वाला है। बसपा सुप्रीमो मायावती ने अपने भरोसेमंद जिलाध्यक्षों, मंडल कोऑर्डिनेटरों और पुराने साथियों को साफ निर्देश दिया कि अब पार्टी को केवल जिला और मंडल स्तर की राजनीति से ऊपर उठकर राजधानी में अपना शक्ति प्रदर्शन करना है। यही वजह है कि 9 अक्तूबर 2025 को होने वाली मान्यवर कांशीराम की पुण्यतिथि इस बार खास होने जा रही है। मायावती ने तय किया है कि लखनऊ में विराट आयोजन होगा और वह खुद मंच पर मौजूद रहेंगी। मायावती की इस तैयारी को महज श्रद्धांजलि कार्यक्रम समझने की भूल नहीं करनी चाहिए। असल में यह बीएसपी की राजनीतिक जमीन तलाशने की कोशिश है, जिसने 2024 लोकसभा चुनाव में पूरी तरह खाली हाथ रहकर अपने अस्तित्व को ही संकट में डाल दिया था। अब मायावती चाहती हैं कि 2027 विधानसभा चुनाव से पहले दलित समाज और पुराने कार्यकर्ताओं को दोबारा जोड़ा जाए। यही वजह है कि इस आयोजन को शक्ति प्रदर्शन के तौर पर पेश किया जा रहा है।

कांशीराम की पुण्यतिथि और बहुजन आंदोलन का प्रतीक

कांशीराम का नाम बीएसपी कार्यकर्ताओं के लिए सिर्फ एक नेता का नहीं, बल्कि पूरे आंदोलन का प्रतीक है। मायावती भली-भांति जानती हैं कि कांशीराम की पुण्यतिथि को बड़े स्तर पर मनाने से पार्टी का जुड़ाव कार्यकर्ताओं और समर्थकों की भावनाओं से दोबारा हो सकता है। अब तक यह आयोजन जिला और मंडल स्तर तक सीमित रहता था, लेकिन इस बार इसे राजधानी में लाकर मायावती दलित राजनीति का केंद्र लखनऊ बनाने की कोशिश कर रही हैं।सियासी पंडित मानते हैं कि मायावती का यह दांव दोहरी रणनीति के तहत है। पहला, संगठन में ऊर्जा भरना और दूसरा, यह संदेश देना कि बीएसपी अभी भी उत्तर प्रदेश की सियासत से गायब नहीं हुई। अगर इस आयोजन में भारी भीड़ जुटती है, तो सीधा संदेश जाएगा कि दलित समाज अब भी मायावती के साथ है और चुनावी समीकरण किसी भी वक्त बदल सकता है।

पुराने साथियों की घर वापसी और संकेत

हाल के दिनों में आकाश आनंद के ससुर और पूर्व सांसद डॉ. अशोक सिद्धार्थ की पार्टी में वापसी ने राजनीतिक हलचल बढ़ा दी। यह कदम संकेत देता है कि मायावती अब पुराने साथियों को दोबारा जोड़ने में जुट गई हैं। पार्टी समझ चुकी है कि बिना अनुभवी चेहरों और मिशनरी नेताओं के संगठन को मजबूत करना मुश्किल है। बताया जा रहा है कि कांशीराम की पुण्यतिथि पर कई और पुराने नेता मंच साझा कर सकते हैं। अगर ऐसा होता है तो यह बसपा कार्यकर्ताओं के मनोबल को मजबूत करने वाला होगा।

भाजपा-सपा-कांग्रेस पर वार

बैठक में मायावती ने अपने अंदाज में विरोधियों को घेरा। उन्होंने कहा कि भाजपा सत्ता में रहकर दलितों और पिछड़ों को केवल वोट बैंक की तरह इस्तेमाल कर रही है, असल में उनके विकास के लिए कोई ठोस काम नहीं हुआ। सपा पर भी उन्होंने आरोप लगाया कि वह केवल यादवों और मुसलमानों की राजनीति करती है, दलितों को उसमें सम्मानजनक जगह नहीं मिलती। कांग्रेस के लिए मायावती का तंज यह था कि वह हर चुनाव से पहले दलित-पिछड़ा कार्ड खेलती है, लेकिन सत्ता में आते ही भूल जाती है।मायावती का यह बयान कार्यकर्ताओं को यह भरोसा दिलाने के लिए था कि बीएसपी ही असली बहुजन आंदोलन की वारिस है और सत्ता में हिस्सेदारी दिलाने की ताकत रखती है।

2027 का समीकरण और मायावती की रणनीति

उत्तर प्रदेश की राजनीति का भविष्य 2027 विधानसभा चुनाव तय करेगा। भाजपा लगातार संगठन और सरकार दोनों के सहारे मजबूती से खड़ी है। सपा विपक्ष की सबसे बड़ी ताकत है, जबकि कांग्रेस जातिगत जनगणना और सामाजिक न्याय के मुद्दे पर अपनी पकड़ बनाने की कोशिश कर रही है। ऐसे में मायावती का लक्ष्य साफ है कि वह चुनावी मुकाबले को त्रिकोणीय बनाएं।2007 में मायावती ने दलित-ब्राह्मण गठजोड़ बनाकर सत्ता में बहुमत हासिल किया था। लेकिन आज ब्राह्मण मतदाता भाजपा की तरफ खिसक चुका है। अब मायावती की रणनीति दलित-मुस्लिम और दलित-पिछड़ा समीकरण पर केंद्रित दिख रही है। यही वजह है कि उन्होंने पंचायत चुनाव से लेकर विधानसभा चुनाव तक का संदेश कार्यकर्ताओं को दे दिया है।

भीड़ बनाम वोट का सवाल

बीएसपी की बैठकों और आयोजनों में भीड़ जुटाने की क्षमता हमेशा रही है। चाहे 2012 हो या 2017, मायावती के आयोजनों में लाखों लोग उमड़ते रहे। लेकिन चुनौती यही है कि वह भीड़ चुनावी वोट में कैसे तब्दील हो। पिछले एक दशक का अनुभव यही बताता है कि मायावती को भीड़ तो मिलती है, पर वोट नहीं। यही वजह है कि इस बार मायावती कार्यकर्ताओं को जमीन पर काम करने की सख्त हिदायत दे रही हैं।

विरोधियों की चिंता

मायावती की इस तैयारी से भाजपा, सपा और कांग्रेस सभी असहज हैं। भाजपा जानती है कि दलित वोटरों में सेंध लगने पर उसकी सामाजिक इंजीनियरिंग कमजोर पड़ सकती है। सपा को भी डर है कि दलितों के बिना उसका ओबीसी-मुस्लिम गठजोड़ अधूरा रह जाएगा। कांग्रेस के लिए भी यह मुश्किल है क्योंकि राहुल गांधी जातिगत जनगणना और सामाजिक न्याय का नारा बुलंद कर रहे हैं। ऐसे में अगर दलित वोट दोबारा मायावती के साथ खड़ा होता है तो कांग्रेस की रणनीति ध्वस्त हो जाएगी।

शक्ति प्रदर्शन से बदलेगा माहौल या नहीं?

9 अक्तूबर का लखनऊ आयोजन बीएसपी के लिए “अस्तित्व की लड़ाई” जैसा है। अगर मायावती भारी भीड़ जुटाने में सफल रहती हैं और उसका राजनीतिक संदेश जनता तक पहुंचता है तो 2027 का मुकाबला त्रिकोणीय हो सकता है। लेकिन अगर भीड़ के बावजूद वोट न बदले तो यह बसपा के लिए और बड़ा झटका साबित होगा।फिलहाल इतना तय है कि कांशीराम की पुण्यतिथि इस बार केवल श्रद्धांजलि दिवस नहीं होगी, बल्कि यूपी की राजनीति में नई हलचल का कारण बनेगी। मायावती ने अपने कार्यकर्ताओं को स्पष्ट कर दिया है कि अब पीछे हटने का वक्त नहीं, बल्कि सत्ता में वापसी के लिए पूरी ताकत झोंकने का समय है।