सुहागिनों की आस्था की जीवंतता का प्रतीक-करवा-चौथ

ओम प्रकाश उनियाल

हर सुहागन के लिए सुहाग शब्द बहुत ही महत्व रखता है। क्योंकि, पति-पत्नी एक-दूसरे के पूरक होते हैं। दोनों में से यदि कोई एक अधर में साथ छोड़ जाता है या आपसी संबंधों में किसी प्रकार की दरार आ जाती है तो जीवन नीरस हो जाता है या एकाकीपन खलने लगता है। जिसके कारण दिलो-दिमाग में तनाव व चिंता अपनी घुसपैठ कर लेती है। घर-परिवार से लेकर बाहर तक की जिम्मेदारी व वंश-वृद्धि का बीड़ा दोनों एक साथ उठाते हैं।

इसके लिए जरूरी है कि दोनों जीवनपर्यन्त स्वस्थ और सुखी रहें। हर सुहागन चाहती है कि उसके सुहाग पर किसी प्रकार का कष्ट न आए। सुख-दु:ख में पति का साथ निभाते हुए वह स्वयं हर कष्ट सहने को तैयार रहती है। यदि उसके सुहाग पर जरा-सा भी संकट आता है तो वह ईश्वर से बारंबार यही प्रार्थना करती है कि उसके सुहाग के सारे कष्ट उसकी झोली में उंडेल दिए जाएं। वैसे भी नारी को भगवान ने इतनी क्षमता प्रदान की हुयी है कि वह किसी भी कष्ट में डगमगाती नहीं। हिन्दू धर्म एक ऐसा धर्म है जो अपनी परंपराएं आज तक सनातन रूप से निभाता आ रहा है। साल भर में विभिन्न प्रकार के व्रत आते हैं। जिनका अपना-अपना महत्व है। लेकिन करवा-चौथ का व्रत ऐसा है जो सुहागिनें अपने सुहाग की दीर्घायु और स्वस्थ रहने की कामना को लेकर रखती हैं। जिसमें पानी तक ग्रहण नहीं करती। अर्थात् निर्जला-व्रत। इसीलिए इस व्रत का महत्व और भी बढ़ जाता है। इस व्रत को रखने के पीछे कुछ पौराणिक मान्यताएं भी हैं। यही कारण है कि अनादि काल से व्रत की परंपरा चली आ रही है। करवा-चौथ का व्रत कार्तिक माह के कृष्ण-पक्ष की चतुर्थी को पड़ता है। हर सुहागन सुबह से व्रत रखकर पूजन करती हैं। तथा चन्द्रोदय के पश्चात ही व्रत तोड़ती हैं। कुछ भी हो सुहागिनें कितने भी मानसिक-शारीरिक कष्ट व अन्य प्रकार के संकटों के दौर से गुजर रही हों किन्तु अपनी आस्था को जीवंत रख पतिव्रता-धर्म निभाती हैं।