विकट समस्या बनता जा रहा है भूस्खलन

नृपेन्द्र अभिषेक नृप

कल्पना कीजिए कि जब आपके सर पर छत और पैर के नीचे भूमि ही न बचे तो आप क्या करेंगे? भूस्खलन की स्थिति में लोगों का जीवन त्रासदी का शिकार हो जाता है और वे दर – दर की ठोकरें खाने पर मजबूर हो जाते है। भारत में भी यह समस्या विकराल रूप धारण कर चुकी है। हिमालयी क्षेत्र में दरकते पहाड़ों को लेकर लगातार चिंता बढ़ रही है। बादलों का फटना हो या भूस्खलन। तारीख बदलती है, साल बदलता है, लेकिन मानसून में पहाड़ों से चट्टानों के खिसकने और भूस्खलन की घटनाएं नहीं बदलती हैं। इसकी वजह से जान-माल का भारी नुकसान होता है। अक्सर सड़कें और घर बर्बाद हो जाते हैं। बहुत ज्यादा बारिश, बड़े पैमाने पर जंगलों की कटाई और अवैध निर्माण ने इस समस्या को काफी बढ़ा दिया है।

हमेशा से ही भारत के लिए बड़ा खतरा रहा भूस्खलन एक बार फिर जोशीमठ में हो रहे भूस्खलन से चर्चा में आ चुका है। कुछ समय से जोशीमठ के फिसलने की गति अचानक तेज हो गई है। जमीन के धंसने से समूचा जोशीमठ धंस रहा है। सैकड़ों भवन रहने लायक नहीं बचे हैं। कई जगह जमीन पर भी चौड़ी दरारें उभरने लगी हैं।कुछ स्थानों पर जमीन फटने से पानी बाहर निकल रहा है।

जोशीमठ समस्या क्या है?

जोशीमठ चमोली जिले में स्थित है। इस जोशीमठ में ही धार्मिकता का केंद्र और चार धामों में से एक बद्रीनाथ धाम है। हर साल यहां भक्तों का तांता लगा रहता है और लाखों की संख्या में श्रद्धालुओं की भीड़ उमड़ती है।आज यह मठ पृथ्वी के गर्त में समा रहा है और यह सब अचानक नहीं हो रहा है बल्कि इसके बारे में बहुत पहले ही अंदेशा लगाया जा चुका था लेकिन इस पर ध्यान नहीं दिया गया था।

वर्ष 1976 की मिश्रा समिति की रिपोर्ट के अनुसार, जोशीमठ मुख्य चट्टान पर नहीं बल्कि रेत और पत्थर के जमाव पर स्थित है। यह एक प्राचीन भूस्खलन क्षेत्र पर स्थित है। रिपोर्ट में कहा गया है कि अलकनंदा एवं धौलीगंगा की नदी धाराओं द्वारा कटाव भी भूस्खलन के कारकों के अंतर्गत आते हैं।

समिति ने भारी निर्माण कार्य, ब्लास्टिंग या सड़क की मरम्मत के लिये बोल्डर हटाने और अन्य निर्माण, पेड़ों की कटाई पर प्रतिबंध लगाने की सिफारिश की थी जिसे ताक पर रख कर निर्माण कार्य किया जाता रहा । इन निर्माण कार्य में वृद्धि, पनबिजली परियोजनाओं और राष्ट्रीय राजमार्ग के चौड़ीकरण शामिल है और इन कार्यो ने पिछले कुछ दशकों में ढलानों को अत्यधिक अस्थिर बना दिया है। इसके अलावा विष्णुप्रयाग से बहने वाली धाराओं और प्राकृतिक धाराओं के साथ हो रहा चट्टानी फिसलन शहर में भूस्खलन के अन्य कारण हैं। जोशीमठ की समस्या ने भूस्खलन समस्या को फिर से चर्चा में ला दिया है।

जोशीमठ अकेला नहीं है, जो ध्वस्त होने की कगार पर है। पूरे हिमालय विशेषकर उत्तराखंड में दर्जनों कस्बे हैं, जो टाइम बम पर बैठे हैं। उत्तराखंड का केस इसलिए भी विशेष है क्योंकि भूविज्ञानियों के अनुसार संपूर्ण हिमालय में उत्तराखंड क्षेत्र ही है जहां आठ स्केल से अधिक के भूकंप आने की सर्वाधिक संभावना है। इसी कारण भूवैज्ञानिक इस क्षेत्र को सेंट्रल सिस्मिक गैप की संज्ञा देते हैं और कोढ़ में खाज यह कि उत्तराखंड के पर्वतीय इलाकों में भवन निर्माण में साधारण मानकों का भी पालन नहीं हुआ है। देहरादून, हल्द्वानी जैसे इलाकों में भी कमोबेश ऐसी ही स्थिति है।

भारत में कहाँ है सबसे ज्यादा भूस्खलन के खतरा?

भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण (जीएसआई) के अनुसार, भारत में, 420,000 वर्ग किमी, या कुल भूमि के 12.6 फीसदी क्षेत्र में चट्टानों के गिरने का खतरा हमेशा बना हुआ है। इसमें बर्फ वाले इलाके को शामिल नहीं किया गया है। भूस्खलन के खतरे वाले क्षेत्र में उत्तर पूर्व हिमालय (दार्जिलिंग और सिक्किम हिमालय क्षेत्र), उत्तर पश्चिम हिमालय (उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश और जम्मू एवं कश्मीर), पश्चिमी घाट और कोंकण की पहाड़ियां (तमिलनाडु, केरल, कर्नाटक, गोवा और महाराष्ट्र) और आंध्रप्रदेश में अरुकु क्षेत्र का पूर्वी घाट शामिल है। इन क्षेत्रों में पहाड़ों से चट्टानों के गिरने की संभावना इसलिए है क्योंकि जलवायु परिवर्तन से जोखिम बढ़ रहा है। जीएसआई ने देश में पूरे 420,000 वर्ग किलोमीटर के चट्टानों के लिए संवेदनशील माने जाने वाले क्षेत्र के 85 फीसदी हिस्से के लिए 1:50,000 पैमाने पर एक राष्ट्रीय भूस्खलन संवेदनशीलता मानचित्र बनाया है और बाकी को पूरा करने पर काम चल रहा है।

इसके लिए जिम्मेदार कारक क्या है ?

भूस्खलन भूकंप या भारी वर्षा जैसे प्राकृतिक कारणों के साथ- साथ कुछ मानवीय निर्माण कार्यो से उत्पन्न होते हैं और मानसून में खास तौर पर हर साल ऐसी घटनाएं होती है। अप्रत्याशित मौसम, जलवायु संकट, भारी और तीव्र वर्षा से देश में भूस्खलन की घटनाएं और बढ़ रही हैं। जलवायु संकट जोखिम को और बढ़ा रहे हैं, खासकर हिमालय और पश्चिमी घाट में, लेकिन एक बात देखने वाली है कि भारत मे भूस्खलन पश्चिमी घाट की अपेक्षा हिमालयी क्षेत्र में ही ज्यादा होता है। अमेरिका के शेफील्ड यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं ने एक अध्ययन में पाया कि 2004-16 की अवधि में इंसानों की वजह से घातक भूस्खलन होने के मामले में भारत सबसे बुरी तरह प्रभावित देशों में से एक था। अध्ययन में दुनिया भर के 5,031 घातक भूस्खलन का विश्लेषण किया गया। जिसमें भारत की 829 घटनाएं शामिल थी। भारत में 28 फीसदी मामलों में निर्माण कार्य की वजह से पत्थर गिरने की घटनाएं होती हैं।

सितंबर 2019 में राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन संस्थान की ओर से प्रकाशित राष्ट्रीय भूस्खलन जोखिम प्रबंधन रणनीति में भी इस विसंगति की ओर इशारा किया गया। इस रिपोर्ट में कहा गया कि हिमालयी क्षेत्र में ज्यादातर भवन निर्माण दिल्ली मास्टर प्लान से प्रेरित हैं, जो पहाड़ी शहरों के संदर्भ में उपयुक्त नहीं हैं। पर्वतीय क्षेत्रों में सड़कें बनाते समय और निर्माण करते समय अक्सर भूस्खलन होता है; बड़ी संख्या में चट्टानों को हटाना पड़ता है, जिससे वहां पर भूस्खलन हो सकता है।

यहाँ एक खतरा बिजली परियोजनाओं से नहीं, बल्कि प्रकृतिविरोधी विकास की सोच से भी है। केदारनाथ के ऊपर 2013 में आई अकल्पनीय बाढ़ से हमने सबक नहीं सीखा और दुबारा वहां भारी-भरकम सीमेंट- कंकरीट का ढांचा खड़ा कर दिया। उस बाढ़ ने केदारनाथ समेत समूची मंदाकिनी घाटी से मानव द्वारा अतिक्रमित नदी तट क्षेत्र को साफ कर दिया था। उसके बाद भूस्खलन संवेदनशीलता की अनदेखी कर चार धाम ऑलवेदर रोड के नाम पर 825 किमी. लंबे सड़क नेटवर्क से 40 हजार से अधिक पेड़ और अनगिनत झाड़ियों समेत पहाड़ों को काट-काट कर पुराने सुसुप्त भूस्खलनों को जगा दिया गया जबकि चिपको के प्रणेता चंडी प्रसाद भट्ट के अनुरोध पर इसरो के नेतृत्व में भारत सरकार के एक दर्जन विशेषज्ञ संस्थानों ने इसी संपूर्ण चार धाम यात्रा मार्ग पर भूस्खलन के लिहाज से संवेदनशील दर्जनों स्पॉट चिह्नित किए थे।

भूस्खलन के अन्य कारण भी है। जैसे कि कभी- कभी भारी बारिश के कारण भी भूस्खलन देखने को मिलता है। साथ ही वनोन्मूलन भी भू-स्खलन का एक प्रमुख कारण है क्योंकि वृक्ष, पौधे आदि मिट्टी के कणों को सघन रखते हैं तथा वनोन्मूलन के कारण पर्वतीय ढाल अपनी सुरक्षात्मक परत खो देते हैं जिसके कारण वर्षा का जल इन ढालों पर निर्बाध गति से बहता रहता है।

एक कारण भूकंप भी है जिससे भूस्खलन प्रभावित होता है। जैसे कि हिमालय में भूकंप आया क्योंकि भूकंप ने पहाड़ों को अस्थिर कर दिया, जिससे आये दिन भूस्खलन होते रहता है। इसके अतिरिक्त उत्तर पूर्वी भारत के क्षेत्रों में, कृषि को स्थानांतरित करने के कारण भूस्खलन होता है। बढ़ती आबादी के कारण बड़ी संख्या में घर बन रहे हैं, जिससे बड़ी मात्रा में मलबा पैदा होता है जो भूस्खलन का कारण बन सकता है।

भूस्खलन को रोकने के क्या हो उपाय?

सबसे पहले तो सरकार को चाहिए कि पूर्व चेतावनी प्रणाली और निगरानी प्रणाली की व्यवस्था सुदृढ़ करे जिससे लोगों को जान- माल की हानि न हो। इसके साथ ही जोखिम वाले क्षेत्रों में निर्माण पर प्रतिबंध लगाया जाना अति आवश्यक है। लेकिन जहां निर्माण कार्य करना जरूरी लगे उसके लिए सावधानी रखने की जरूरत है। यह भी व्यवस्था हो कि अगर भूस्खलन होता है तो प्रतिक्रिया टीमों को तुरंत कार्रवाई के लिए भेजा जा सके।

जोशीमठ के कारण तमाम सवाल सामने हैं, जरूरी है कि सुरंग आधारित परियोजनाओं के दीर्घकालिक प्रभावों के अध्ययन के लिए स्वतंत्र वैज्ञानिक समीक्षा का इंतजाम हो और उसी के आधार पर नई शर्तें लागू की जाएं। जो भी परियोजनाएं निर्माणाधीन हैं, या चल रही हैं, उनकी स्वतंत्र जांच हो और सामाजिक, पर्यावरणीय ऑडिट के साथ यह भी देखा जाए कि वहां सुरक्षा मानकों का पालन होता है, या नहीं।

भूस्खलन को रोकने के लिए जियो टेक्नीकल इंजीनियरिंग में बहुत सारे उपाय सुझाए गए हैं। विभिन्न प्रयोगों के माध्यम से अलग-अलग स्थानों में अलग-अलग तरह की विधियां अपनाई जाती हैं। अगर हम रोड सेक्शन की बात करें तो इसमें ऊपरी और निचले ढाल के भूकटाव को रोकने के लिए बहुत सारे इंजीनियरिंग स्ट्रक्चर यानी रिटेनिंग वॉल, गेबियन वॉल, ब्रेस्ट वॉल, वायर मेस, शॉर्टक्रिटिंग, स्लोप नेलिंग जैसे उपाय हैं।

दूसरी बात, अगर हम अपने उत्तराखंड और हिमाचल के पहाड़ों की बात करें तो हमें थोड़ा यह भी ध्यान रखने की जरूरत है कि जब हम कोई भी स्ट्रक्चर बनाएं, जैसे रोड, बिल्डिंग, डैम एवं टनल बनाएं तो वहां की भूगर्भीय स्थिति का व्यापक सर्वे कर वास्तविक स्थिति को समझना बहुत जरूरी है। जैसे हमारे पहाड़ों में ज्यादातर बसावट पहाड़ी ढालों पर पूर्व में बड़े-बड़े भूस्खलनों द्वारा जमे हुए मलबे के ऊपर है। इन ढलानों को मानव ने मॉडीफाई कर अपनी आजीविका को बढ़ाने के लिए खेती के लायक बना दिया है । ऐसे जगहों को समझने की बहुत आवश्यकता है। क्योंकि जब ये ढाल बने थे, उस समय का वातावरण आज के वातावरण से भिन्न था। तब बारिश बहुत कम होती थी। वातावरण का तापमान कम था, जिसके चलते पहाड़ी ढालों पर रुके हुए इस मलबे में ठहराव था। आज वही मलबा वातावरण में बढ़ते तापमान के कारण तथा भारी बारिश के चलते भूस्खलन के रूप में नीचे सरकता जा रहा है।

आज हम देख रहे है कि गांव के गांव धसकते जा रहा हैं। हमारे पहाड़ों में बहुत सारे उदारहण हैं, जहां गांव के गांव और शहर इस प्रक्रिया के चलते आपदाग्रसित हैं। उदाहरण के तौर पर जोशीमठ, मसूरी, नैनीताल और पौड़ी। कई ऐसे शहर हैं जो पहाड़ी ढालों पर बसे हैं, वो आज धीरे-धीरे सरकने की कगार पर हैं और इसमें हमें बड़ा ध्यान देना होगा कि यहां पर जो स्ट्रक्चर्स, बिल्डिंग या फिर कोई प्लानिंग है, उसको वहां की धरती और मिट्टी के हिसाब से बनाया जाए। जोखिम वाले क्षेत्रों में निर्माण पर प्रतिबंध लगाया जाना चाहिए।

देश को संवेदनशील क्षेत्रों की पहचान करनी चाहिए और इस संबंध में प्राथमिकता के आधार पर कार्रवाई की जानी चाहिए। इसमें भूस्खलन की अधिक संभावना वाले क्षेत्रों की पहचान करने के लिए खतरनाक मानचित्रण किया जा सकता है। इसके साथ ही इसे रोकने के लिए पौधरोपण कार्यक्रम पर ज्यादा ध्यान देने की जरूरत है।

इन सबके अलावा सरकार का एक फ़र्ज़ बनता है कि भूस्खलन को रोका नहीं गया तो फिर उनके नुकसान से निपटने के लिए लोगों को बीमा की सुविधा देनी चाहिए। ताकि उसके माध्यम से लोगो का पुर्नवास किया जा सके और लोग अपने निजी जिंदगी में वापस आ पाए।

इस प्रकार हम देखते है कि भूस्खलन की समस्या भारत के लिए सर दर्द बन चुकी है। जिस तरह से सांस्कृतिक विरासत के रूप में विख्यात जोशीमठ काल के गाल में समा रहा है, उसी तरह आगे भी न जाने कितने क्षेत्र पृथ्वी में समा जाएंगे। सरकार को वक्त रहने ठोस कदम उठाना ही होगा वरना लाखों लोगों का जीवन अस्त – व्यस्त हो जाएगा और वे दर- दर की ठोकरें खाने को विवश हो जाएंगे।